Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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बालचन्द्रजी सि. शास्त्रीकी इस हेतु नियुक्ति करली । इसी बीच यह भी निश्चय किया गया कि ग्रंथके सुसंशोधन तथा व्यापक उपयोगकी दृष्टिसे एक मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद जोड़ना भी वाञ्छनीय है । यह कार्य पं. बालचन्द्रजीके सुपुर्द किया गया ।
इस समय जब ग्रंथकी प्रेसकापी व शोलापुरकी हस्तलिखित पूरी प्रति हमारे सन्मुख आई, तथा अनुवाद जोड़नेका भी निश्चय हुआ, तब कार्यकी विशालताको देखकर मुझे प्रतीत हुआ कि जिस थोडेसे फंडके भरोसे मैंने यह कार्य प्रारंभ किया है वह इसके लिये सर्वथा अपर्याप्त है । अत एव मैंने यह विचार किया कि चूंकि यह ग्रंथ धवला टीकासे बहुत संबंध रखता है और उसके संशोधन में सहायक है, अत एव उसी फंडमेंसे इसका प्रकाशन करा दिया जाय । तदनुसार मैंने यह प्रस्ताव ' जैन साहित्योद्धारक फंड' के ट्रस्टबोर्ड के सन्मुख रखा । बोर्डने मेरा प्रस्ताव स्वीकार तो कर लिया, पर कुछ सदस्योंने इस बातकी चिन्ता भी प्रकट की कि इससे फंडकी शक्ति विभाजित होकर आगे धवलसिद्धान्तके प्रकाशन में ही कठिनाई न उपस्थित होने लगे ? मेरी इस द्विविधाके समयपर ही गजपंथाकी बैठक के लिये ब्रह्मचारी जीवराजजीका निमंत्रण प्राप्त हुआ । और उस बैठकमें इस ग्रंथको ' जीवराज जैन ग्रंथमाला ' में प्रकाशित करानेका निश्चय हो गया । इस प्रकार मेरी वह चिन्ता शान्त हो गई । यहींपर डॉ. उपाध्यायजीने इस बातपर जोर दिया कि ग्रंथके मुद्रणका प्रबंध अमरावतीमें ही किया जाय, और उस संबंधी तथा हिन्दी अनुवाद रखने की आवश्यकताओंका विचार कर उन्होंने मुझसे प्रेरणा की कि तिलोयपण्णत्तीके सम्पादनमें मैं भी उनका साथी बनूं। मैंने इस बात से बहुत जी चुराया, पर उनकी प्रेरणासे अन्तमें मुझे उनकी बात स्वीकार करना पड़ी ।
डा. उपाध्यायजी कृत पाठरचना, सच्चे सावधान संशोधकके अनुकूल, पूर्णतः प्रतियोंके पाठोंके ही आधारसे हुई थी। जहां उन्हें पाठ में अशुद्धि प्रतीत हुई वहां एक मात्रा या वर्णके परिवर्तन से कल्पित पाठ भी उन्होंने टिप्पणीमें देना उचित समझा था । पर जब पं. बालचन्द्रजी और मैं पाठ व अनुवादके मिलान एवं संशोधनके लिये बैठे तब ज्ञात हुआ कि अनेक दृष्टियों (जिनका खुलासा प्रस्तावना में किया गया है ) यह क्रम ठीक न होगा, किन्तु वही पाठ मूलमें रखना ठीक होगा जो हमें संभव लिपि - दोषका विचार करके शुद्ध और अनुवादके अनुकूल जंचता है । हां, ऐसे स्थलोंपर प्रतियोंके पाठ टिप्पण में अवश्य सावधानीसे रख दिये जाँय । इसके गुण-दोषोंपर विचार कर अन्ततः डा. उपाध्यायजी भी इससे सहमत हो गये । इसप्रकार हस्तलिखित प्रतियोंके आधारको छोड़कर जो कल्पित पाठ स्वीकार किये गये हैं वे रखे तो हम तीनों की सम्मतिसे गये हैं, तथापि उनका विशेष उत्तरदायित्व पं. बालचन्द्रजी शास्त्री और मुझपर ही है, क्योंकि वे कल्पनाएँ प्रायः अनुवादके समय या उसका मूलसे मिलान करते समय हम दोनोंके बीच उत्पन्न हुई हैं ।
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