Book Title: Tarksangraha
Author(s): Santoshanand Shastri, Shrutvarshashreeji, Paramvarshashreeji
Publisher: Umra S M P Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ HORRORIENCELExareerCRORSCRECISXcMESSAGRECTEXCRICARom ___पातु वः काशीपतिः किञ्चिद् प्रास्ताविकम् Dwarao5VOTags2005/ 15/2015065 DVOBODA COBASOVSKI OBRTBOOXOROLAS COPASYQUSTUSE प्रस्तुत तर्कसंग्रहः ग्रंथका प्रकाशन होने पर अतीव हर्षकी अनुभूति हो रही है। काणादं पाणिनीयञ्च सर्वशास्त्रोपकारकम्' इस प्रसिद्ध उक्ति के अनुसार न्यायशास्त्रका उपकारकत्व सर्व विदित ही है। और इसी कारण से न्याय-वैशेषिक दर्शनका सम्मिलित प्रकरणग्रंथ 'तर्कसंग्रह', न्यायके प्रारंभिक छात्रो के हृदयमें अपना स्थान बनाये रखने में सफल रहा है। तर्कसंग्रह के उपर यद्यपि संस्कृत और हिन्दी, नाना प्रकारकी व्याखयाए प्रचलित हुइ है। परंतु पूज्य जैन साधु-साध्वीजीकी अध्ययन जिज्ञासा को लक्ष्य में रखकर, अत्यंत सरळतासे ग्रंथ विदित हो शके इस प्रकारकी भाषा शैली इस व्याख्यामे रखी गई है। अत एव कही कही थोडा बहुत विस्तार भी किया गया है। ___व्याकरण-शास्त्र 'गौ मुख सिंह' है अर्थात् ऐसा सिंह जीसका मुख गौ की तरह है। इसका आशय यह प्रतीत होता है कि व्याकरण-शास्त्र प्रारंभमें सरळ किन्तु उत्तरोतर कठिन होता है। जबकि नव्यन्याय को ‘सिंह मुख गौ' की उपमा दी गई है। अर्थात् न्याय-शास्त्र प्रारंभ में कठिन होता है परंतु जैसे जैसे छात्र गण उसका अभ्यास करते जाते है वो एकदम सरळ हो जाता है। आशा है कि मोक्षमार्गानुगामी पू. साधु-साध्वीजी गण ग्रंथ के इस स्वभाव-भेद और उपयोगिता को जानकर न्याय-अध्ययन की और प्रेरित होंगे। प्रस्तुत व्याख्या हिन्दीमें ही लिखी गई थी किंतु उपयोगिता को देखते हुए पू. साध्वीजी श्रुतवर्षाश्रीजी तथा पू.सा. परमवर्षाश्रीजीने । (सागर समुदाय) बहुत ही मनोयोगपूर्वक इसका गुजराती अनुवाद तथा 15/cracemovaisucesssxcecias DESHOREASTEORKSHETRIEARGESEASSETTERSECREXSIOSEKSHEELES

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 262