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विशाल - लोचन दलं
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प्रकृष्ट पुण्य के स्वामी, जन्म से ही वैरागी, परम योगी, धीर, गंभीर प्रभु का जन्माभिषेक करते हुए विबुधवरों को जैसा आनंद होता है, हृदय में जैसी उर्मियाँ उठती हैं, जैसी सुखद संवेदना होती है वैसा आनंद या वैसी संवेदना उनको भौतिक सुख भुगतने में नहीं होती । देवियों के साथ विलास करते समय आनंद के साथ तृष्णा की आग उनके हृदय को जलाती थी, अनेक प्रकार की क्रीडाएँ करते समय भी मस्ती के साथ उनके विरह की चिंता चित्त को विह्वल करती थी । जब कि प्रभु भक्ति करते समय ऐसे दुःख - मिश्रित सुख का नहीं, बल्कि केवल सुख का ही अनुभव होने से उनको प्रभुभक्ति के आनंद के सामने उच्चकोटी के दैविक सुख भी तृण जैसे लगते हैं । देवों की यह परिस्थिति जानकर साधक अपनी भावना व्यक्त करते हैं कि वे जिनेश्वर हमें भी मोक्ष सुख देनेवाले बनें ।
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यह गाथा बोलते समय साधक मेरुशिखर के ऊपर जन्माभिषेक द्वारा पूजित जिनेश्वर परमात्माओं को स्मृति में लाकर सोचता है कि,
“ जिस प्रभु का जन्म मात्र भी विबुधवरों के लिए इतना आनंदप्रद है, उस प्रभु का प्रौढ़काल तो कितना अद्भुत होगा ! ऐसे प्रभु की भक्ति करके में भी प्रभु के पास शिवसुख की प्रार्थना करूँ और प्रयत्न करके उसे प्राप्त करूँ ।”
गाथा :
कलङ्क-निर्मुक्तममुक्तपूर्णतं, कुतर्क - राहु-ग्रसनं सदोदयम् । अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितं,
दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ।।३।।