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सूत्र संवेदना-५ 'इति' - इस प्रकार स्तुत अर्थात् इस तरह जिनकी स्तवना की गई है - वे गाथा के प्रथम पद में कहा गया है कि, 'प्रभु का नाम सुनकर संतुष्ट हुई विजयादेवी' इस विशेषण में ही उनकी विशिष्ट स्तवना की गई है।
स्तवना करने का यह एक विशेष प्रकार है। विजया देवी के औदार्य, संघ-वात्सल्य आदि गुणों की यहाँ कोई स्तुति नहीं की गई है। यहाँ तो उनका प्रभु के नाम श्रवण मात्र से उल्लसित हो जाने का अति आदरणीय गुण गर्भित रूप में वर्णित है। इसी में उनकी गुणानुरागिता के दर्शन होते हैं। शांतिनाथ भगवान अनंत गुणों के स्वामी हैं। इसलिए ही विजयादेवी की प्रभु के प्रति तीव्र भक्ति है। सम्यग्दर्शन की शुद्धि के बिना प्रभु के विशेष गुणों की पहचान भी नहीं होती, तो प्रेम की तो बात ही कहाँ ? निर्मल सम्यग्दर्शन के कारण ही विजयादेवी प्रभु का नाम मात्र सुनते ही हर्षित हो जाती हैं। यह भक्ति का एक प्रकर्ष है। प्रभु वीर ने जिनको धर्मलाभ भेजा उस सौभाग्यशाली सुलसा श्राविका में भी यह विशिष्ट गुण था। वह भी वीर प्रभु का नाम सुनते ही रोमांचित हो जाती थी और उसका हृदय आनंद से छलकने लगता था। लोकोत्तर दृढ़ श्रद्धा से ही ऐसा परिणाम प्रकट होता है। ___ यहाँ जैसे 'इति' का ऐसा विशिष्ट अर्थ किया गया है वैसे ही गाथा नं. १५ जो विजयादेवी की स्तुति स्वरूप नवरत्नमाला की अंतिम गाथा है, उसमें भी ‘एवं यन्नामाक्षर-पुरस्सरं संस्तुता जयादेवी...' पद द्वारा पुनः यही बात दोहराई गई है । वहाँ भी अंत में ऐसा कहा जायेगा कि 'शांतिनाथ भगवान का नाम लेकर जिसकी स्तवना को है ऐसी जयादेवी' । उसकी विशेष समझ उसी गाथा में मिलेगी।
नमत तं शान्तिम् - उन शांतिनाथ भगवान को आप नमस्कार करें।