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सूत्र संवेदना-५ __प्रभु आज्ञा का पालन करते हुए ये महात्मा जिस प्रकार अनासक्त भाव में मग्न रहते हुए, निःसंग भाव के सुख का अनुभव करते हैं वैसा सुख दुनिया में दूसरा कोई भोग नहीं सकता । वे तो सदैव समता के सागर में डूबे रहकर प्रतिदिन अपने स्वाभाविक सुख की वृद्धि करते रहते हैं। उनके जैसा जीवन जीने की शक्ति सामान्य साधक में नहीं होती तो भी उनके हृदय में तीव्र रुचि रहती है कि, 'मैं उनके जैसी आत्मरमणता कब साधूंगा ।'
सुबह ऐसे मुनिवरों का स्मरण करने से और पूर्व में बताए गए नामजिन, शाश्वत-अशाश्वत स्थापनाजिन, द्रव्यजिन का कीर्तन करते हुए भवसागर से पार उतरा जा सकता है, वैसा श्री जीवविजयजी महाराज बताते हैं।
ये दोनों गाथाएँ बोलते हुए साधक को ढ़ाई द्वीप में रहनेवाले, सुविशुद्ध संयम का पालन करनेवाले सभी साधु-साध्वीजी भगवंतों को स्मृति में लाकर उनके चरणों में मस्तक झुकाकर सोचना चाहिए कि
"ये मुनि भगवंत भी मेरे जैसे ही हैं, फिर भी उनका मन और इन्द्रियाँ कितनी नियंत्रण में हैं, उनका जीवन कैसा संयमित है ! मैं तो कैसा कायर हूँ कि, इन्द्रिय और मन की पराधीनता के कारण छोटे-छोटे व्रतों का भी यथायोग्य पालन नहीं कर सकता। आज इन महात्माओं को प्रणाम कर ऐसी अभिलाषा करता हूँ कि मुझ में भी उनके जैसा सत्त्व विकसित हो और मैं भी मोक्षमार्ग की साधना करके भवसागर से पार उतर जाऊँ ।"