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सकलतीर्थ वंदना
३२९ “प्रभु ! आपकी साक्षात् उपस्थिति होते हुए भी मेरे पुण्य की कमी के कारण मैं आपके प्रत्यक्ष दर्शन नहीं कर सकता और न ही आपकी देशना सुनकर सभी संशयों को दूर कर अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ सकता हूँ। धन्य है महाविदेह के लोगों को जिन्होंने आपका सफल संयोग प्राप्त किया है। द्रव्य से तो आपको पाने की मेरी ताकत नहीं है फिर भी भाव से मैं आपके संयोग को सफल करके शीघ्र शाश्वत सुख
को प्राप्त करूँ, यही मेरी प्रार्थना है।" सिद्ध अनंत नमु निशदिश :
चौदह राजलोक के अंत में स्फटिक रत्न से बनी हुई सिद्धशिला है। उसके ऊपर लोक के अंतिम भाग के बिल्कुल नज़दीक अनंत सिद्ध भगवंत हैं।
सिद्ध भगवंतों ने कर्म और शरीरादि के बंधनों को तोड़कर अनादिकालीन पराधीनता का अंत कर, अनंत ज्ञानमय, अखंड आनंदमय अपने शुद्धस्वरूप को प्रगट किया है। शुद्ध स्वरूप में मग्न होकर वे शाश्वत काल तक परम सुख का अनुभव करेंगे।
यह पद बोलते हुए सिद्ध भगवंतों का स्मरण कर उनकी वंदना करते हुए सोचना चाहिए कि,
'हे भगवंत ! जैसे आप हैं वैसा ही मैं हूँ । आपका स्वरूप प्रगट है जब कि मेरा कर्मों से ढंका हुआ है। अनंत ज्ञान, अनंत आनंद जैसे आपके हैं वैसे ही मेरे हैं, ऐसा मैंने शास्त्रों से जाना है, परन्तु अभी तक यह आनंद भोगने को नहीं मिला। भगवंत ! आपके आलंबन से आपके ध्यानादि द्वारा अपनी शक्तियों को प्रगट करने में कृपाकर मेरी सहायता करें।"