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सूत्र संवेदना-५ है। यह मार्ग चर्मचक्षु से दिखाई देनेवाला नहीं है और इस मार्ग पर चलते तुरंत ही फल की प्राप्ति हो जाए ऐसा भी नहीं है। इसीलिए कभी कभी साधकों के मन भी साधनामार्ग से विचलित हो जाते हैं। तब मन में ऐसी व्यथा और विह्वलता का अनुभव होता है कि, “इस मार्ग पर चल तो रहा हूँ, परन्तु फल मिलेगा या नहीं ?" साधक में ऐसी उत्कंठा उत्पन्न हो तब उसके धैर्य को स्थिर और श्रद्धा को अडिग रखने के लिए और किसी भी प्रकार की उत्सुकता या असर के बिना, शुरू किए गए कार्य को पूर्ण करवाने के लिए सम्यग्दृष्टि देव-देवियाँ अनेक प्रयत्न करते हैं। जैसे कि संयम जीवन का त्याग करके संसार की तरफ कदम बढ़ाने के लिए तत्पर बने हुए आषाढ़ाचार्य को बचाने के लिए देव अनेक बार बालक का रूप धारण कर स्वयं उपस्थित हुए और उनको प्रतिबोधित करके धर्म में स्थिर किया। __इस प्रकार प्रारंभ किए गए कार्य में मन को निश्चल रखकर, विघ्नों का असर मन या मुख पर न आए-इस प्रकार आंतरिक प्रीतिपूर्वक और फल की उत्सुकता के बिना कार्य करने में विजयादेवी निमित्त बनती है, इसलिए वे 'धृतिदा' कहलाती हैं। __ धृति की तरह जयादेवी सम्यग्दृष्टि जीवों को रति भी देती हैं, इसलिए स्तवनकारश्री कहते हैं, 'हे देवी! सम्यग्दृष्टि जीवों को आप रति देनेवाली हैं।' रति का अर्थ है हर्ष, आनंद या प्रीति । जयादेवी की प्रभुभक्ति सम्यग्दर्शन की शुद्धि, संयमी आत्माओं के प्रति उनकी प्रीति तथा भक्ति एवं उनके संघसेवा के अनेकविध कार्य सबके आनंद की वृद्धि करनेवाले हैं। इसी से वे 'रतिदा' भी हैं।
इसके अतिरिक्त स्तवनकारश्री देवी को संबोधित कर कहते हैं, "आप सम्यग्दृष्टि जीवों को बुद्धि देनेवाली हैं ।" मनन करने की, विचार करने की या एक पदार्थ को अनेक दृष्टिकोण से देखने की