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सूत्र संवेदना-५
परापरैरजिते18 - अन्य देवों के द्वारा अजित हे अजिता ! (आपको नमस्कार हो ।)
परापरैः अर्थात् अन्य प्रकृष्ट देवों द्वारा । विजयादेवी कभी भी अन्य देवों से जीती नहीं गई हैं इसलिए उनको ‘अजिता !' कहकर नमस्कार किया गया है ।
अपराजिते - हे अपराजिता ! (आपको नमस्कार हो ।) विजया देवी को अपराजिता के रूप में संबोधित कर यह सूचित किया गया है कि वे कभी भी किसी से भी पराभव या तिरस्कृत नहीं होती।
जिज्ञासा : देवी को संबोधित करते हुए विजये, सुजये, अजिते और अपराजिते ये चारों शब्द एकार्थक होने के बावजूद इन शब्दों का प्रयोग किस लिए किया गया है ?
तृप्ति : अपेक्षा से यह बात ठीक है कि ये चारों शब्द एकार्थक हैं, फिर भी चारों में विशेषता भी है। 'विजया' शब्द यह बताता है कि उन्होंने शत्रुओं के ऊपर विजय प्राप्त की है । न्याय नीतिपूर्वक जय प्राप्त करने के लिए 'सुजया' शब्द का प्रयोग किया है। ‘अजिता' 18. परापरैः' का अन्वय जैसे ऊपर 'परापरैः अजिता' जोड़ा वैसे 'परापरैः' शब्द को जयति इति
जयावहे के साथ जोड़कर उसका अन्वय 'जगत्यां परापरैः जयति इति जयावहे' इस प्रकार भी हो सकता है। इस प्रकार अर्थ निकालें तो प्रबोध टीका के अनुसार से परापरै अर्थात् पर और अपर मंत्रों के रहस्य द्वारा विजयादेवी जगत् में जय को प्राप्त करती हैं, इसीलिए जयावहा हैं,
ऐसा अर्थ निकलता है। 19. यहाँ विजयादेवी के लिए सुजया, अजिता और अपराजिता विशेषणों का प्रयोग कर पू.
मानदेवसूरि म.सा. ने एक ही देवी को संबोधित कर उनके सान्निध्य में रही हुई पद्मा, जया, विजया और अपराजिता इन चारों देवियों को सूचित किया है । अथवा चार देवियों के ये अलग-अलग संबोधन हैं ऐसा मानें तो भगवती, जयावहा और भवति ये तीन पद चारों के लिए विशेषण रूप में बने हैं। किसी के प्रति अत्यंत आदर बताने के लिए भी इस प्रकार अलग-अलग विशेषणों से संबोधन किया जाता है ।