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लघु शांति स्तव सूत्र
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विवेचन:
भव्यानां (सत्त्वानां)27 कृतसिद्धे28 - भव्य जीवों के कार्यों को सिद्ध करनेवाली (हे विजयादेवी ! आपको नमस्कार हो !)
साधुओं के लिए संयम सहायक विजया देवी की विशेषताओं को बताकर अब स्तवनकार कहते हैं, “हे विजयादेवी ! आप भव्य प्राणियों के सभी कार्य सिद्ध करनेवाली हैं ।" भव्य29 अर्थात् मोक्षगमन की योग्यता धारण करनेवाले जीव । मोक्ष में जाने की योग्यता तो अनंत जीवों की है, परन्तु जो शीघ्र मोक्ष में जानेवाले हैं, वैसे जीव आसन्न भव्य जीव कहलाते हैं। इस गाथा में 'भव्य' शब्द से आसन्न भव्य जीव समझना है।
ऐसे जीवों की मुख्य इच्छा आत्महित साधने की होती है। आत्महित के लिए किसी भी कार्य का प्रारंभ करने पर विघ्नों की संभावना होती है। विघ्नों के संकेत मिलने पर साधक शासनभक्त देवों का स्मरण
27. इस गाथा का अर्थ भव्यानां सत्त्वानाम् इन दोनों शब्दों को जोड़कर किया गया है क्योंकि
टीकाकार ने भी इन दोनों शब्दों को जोड़कर किया है और उसके मूल में 'च' का प्रयोग न होने से यह बात बहुत संगत लगती है। प्रबोध टीकाकार ने इस गाथा का अर्थ करते हुए भव्यानाम् और सत्त्वानाम् इन दोनों शब्दों को अलग रखा है। उन्होंने भव्य से उत्तम प्रकार के उपासक, सत्त्व शब्द से मध्यम कक्षा के उपासक और आगे आनेवाले भक्तानां जन्तूनाम् शब्द से कनिष्ठ कोटि के उपासकों का ग्रहण किया है। मन्त्र शास्त्र में किसी भी कामना के बिना भक्ति करनेवाले उत्तम कोटि के उपासक दिव्य कहलाते हैं। सत्त्वशाली सकाम भक्तिवाले मध्यम कोटि के उपासक वीर कहलाते हैं और अति सकाम भक्तिवाले जघन्य कोटि के उपासक पशु कहलाते हैं। उसमें यहाँ दिव्य कक्षा के उपासकों को 'भव्य' शब्द से ग्रहण किया गया है । 28. भव्यानां कृतसिद्धे - भव्यानां सत्त्वानां भविकप्राणिनां कृता सिद्धिः सर्वकार्येषु निर्विघ्नसमाप्तिः यया सा । तस्याः संबोधने - हे भव्यानां कृतसिद्धे । भव्य प्राणियों के सभी कार्यों में निर्विघ्न
समाप्ति जिनके द्वारा हुई है, ऐसी हे देवी ! 29. यहाँ जगत् मंगल कवच की रचना में 'भव्य' शब्द से हृदय ग्रहण करना है ।