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लघु
शांति स्तव सूत्र
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विवेचन :
सर्वस्यापि 22 च सङ्घस्य भद्र - कल्याण - मड्गल- प्रददे 23! सकल संघ को भद्र, कल्याण और मंगल देनेवाली (हे देवी ! आप जय प्राप्त करें ।)
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स्तवनकार सबसे पहले कहते हैं, “हे ! जयादेवी ! आप सकल संघ का भद्र, कल्याण और मंगल करनेवाली हैं ।" संघ24 का अर्थ है समुदाय । शास्त्रीय परिभाषा में जिनेश्वर की आज्ञा को शिरोधार्य करनेवाले साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के समुदाय को संघ कहते हैं। इस प्रकार के संघ के प्रति विजयादेवी को अत्यंत आदर है । इसी कारण से वे संघ का कल्याण करती हैं।
सुख के
भद्र, कल्याण और मंगल ये तीन शब्द सामान्य अर्थ में पर्यायवाची शब्द हैं। इनके विशेष अर्थ इस प्रकार हो सकते हैं। भद्र 25 अर्थात् सौख्य अर्थात् विजयादेवी समय-समय पर श्रीसंघ को सुख
22. सर्वस्यापि सभी संघ को ऐसा प्रयोग करने के द्वारा 'भी' शब्द से स्तोत्रकार ने सकल संघ = चतुर्विध संघ को ग्रहण किया है।
23. इस गाथा में देवी की विविध नामों से स्तुति करने के साथ पूज्य मानदेवसूरि म. सा. ने पूरे संसार का हित करने की अपनी भावना को व्यक्त करते हुए 'जगत्-मंगल-कवच' की रचना भी की है। कवच का सामान्य अर्थ 'बख्तर' या रक्षण का साधन होता है। मस्तक, वदन, कंठ, हृदय, हाथ और पैर इन छः अंगों की रक्षा के लिए कवच धारण किया जाता है। मंत्र साधना में कवच का अर्थ 'सभी अंगों का रक्षण करनेवाली स्तुति' ऐसा होता है। मंत्र साधना में कवच अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अलग-अलग देवताओं के लिए अलग-अलग प्रकार के कवच होते हैं। जगत्-मंगल-कवच की रचना करते हुए सबसे पहले स्तवकार ने मस्तक स्थानीय श्रीसंघ का स्मरण किया है क्योंकि इस स्तव की रचना का मुख्य उद्देश्य श्रीसंघ के ऊपर आई हुई आपत्ि को टालना था ।
24. ‘आणाजुत्तो संघो सेसो पुण अट्ठिसंघाओ' भगवान की आज्ञायुक्त हो वही संघ कहलाता है। आज्ञा को एक ओर रखकर श्रावक-श्राविका या साधु-साध्वी का लेबल लगाकर घूमनेवाला संघ नहीं है, परन्तु हड्डियों का ढ़ेर है । - संबोधसत्तरी-योगविंशिका टीका
25. भद्रं सौख्यं, कल्याणं नीरोगित्वं, मङ्गल दुरितोपशामकम् ।
- लघुशांति स्तव टीका