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लघु शांति स्तव सूत्र
७७ जिज्ञासा : देवकृत अतिशयों को भगवान के अतिशय क्यों कहे गये हैं ?
तृप्ति : प्रभु के पुण्य प्रभाव के बिना एक भी देव की ताकत नहीं है कि प्रभु के अंगूठे जैसा अत्यंत रूपसंपन्न एक अंगूठा भी बना सकें या समवसरण, अष्ट महाप्रातिहार्य वगैरह की रचना कर सकें । भगवान के पुण्य प्रभाव के बल से ही देवता भगवान के जैसे तीन रूप तथा आठ महाप्रातिहार्य वगैरह की रचना कर सकते हैं । ऐसे देवकृत अतिशय भी प्रभु के पुण्य के कारण ही देवता बना सकते हैं। इसलिए ये भगवान की विशेषता या भगवान के अतिशय के रूप में पहचाने जाते हैं ।
ये चौंतीस अतिशय जिसमें समाते हैं, वैसे अपायापगमातिशय, ज्ञानातिशय, पूजातिशय और वचनातिशय रूप चार अतिशय भी शास्त्र में वर्णित हैं ।
अपायापगमातिशय : भगवंत जहाँ विद्यमान होते हैं वहाँ १२५ योजन तक लोगों में दुर्भिक्ष, हैजा, महामारी वगैरह सभी प्रकार के कष्ट, रोग या उपद्रव शांत हो जाते हैं; यह भगवंत का अपायापगमातिशय है । ऐसी कष्टहारिणी शक्ति संसार में अन्य किसी के पास नहीं होती ।
ज्ञानातिशय : केवलीभगवंत का ज्ञान संपूर्ण होने के बावजूद उनमें तीर्थंकर जैसा अतिशय नहीं है । तीर्थंकर अपने केवलज्ञान द्वारा जिस प्रकार अनेक जीवों के ऊपर उपकार कर सकते हैं, अनुत्तरवासी देवों के भी संशयों को दूर कर सकते हैं, उस प्रकार सामान्य केवली नहीं कर सकते। इस तरह तीर्थंकर प्रभु का केवलज्ञान, स्वरूप से सभी केवलियों जैसा ही होने के बावजूद फल की अपेक्षा से सोचें तो विशेष ही है ।