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लघु शांति स्तव सूत्र अपनी साधना से शांतिनाथ प्रभु को यथार्थ रुप में पहचाना और इन शब्दो द्वारा उनके उस स्वरूप की पहचान करवाने का प्रयत्न किया। उनके शब्दों के सहारे हे नाथ ! मैं भी जैसे-जैसे आपके दर्शन करता हूँ, आपके बाह्य और अंतरंग स्वरूप को निहारता हूँ, वैसे-वैसे मेरा रोम-रोम विकस्वर होता है। मेरा हृदय सुखद संवेदनाओं से भर जाता है और अनायास ही आपको पुनः पुनः नमस्कार हो जाता है। हे नाथ ! आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आपने जिस प्रकार जगत् की रक्षा की, उसी प्रकार दुर्गति से मेरी भी रक्षा करें । हे करुणासागर! जैसे आप जगद्वर्ती जीवों के दुःखादि को दूर करते हैं, वैसे ही मोक्षमार्ग में मेरी भी कायरता को दूर कर मुझे भी निर्भय बनाएँ
और मोक्ष के मार्ग पर मुझे आगे बढ़ाएँ ।” अवतरणिका:
पूर्व की गाथा में जो बताया गया है कि, भगवान तीन लोक का पालन करने में उद्यत हैं और सभी प्रकार के दुःख आदि का नाश करते हैं; तब शंका होती है कि भगवान तो वीतराग हैं; उन्हें किसी का पालन करने की या किसी का दु:ख नाश करने की इच्छा नहीं होती, तो ऐसी प्रवृत्ति कैसे संभव है ? इसका समाधान करते हुए स्तवकार इस गाथा में कहते हैं कि, भगवान स्वयं भले यह कार्य नहीं करते, तो भी उनके प्रभाव से ही यह कार्य हो जाता है क्योंकि प्रभु के नाम मात्र का प्रभाव ही ऐसा है कि उसे सुनते ही उनके प्रति भक्तिवाले देवता उत्साहित होकर दुःखादि का नाश करते हैं।