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अड्ढाइज्जेसु सूत्र विशेषार्थ :
'अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु-अर्धतृतीय द्वीप समुद्र में।
तीसरा जिसमें आधा है अर्थात् दो संपूर्ण द्वीप और तीसरा आधा द्वीप जिसमें है ऐसे (जंबूद्वीप, धातकी खंड और आधा पुष्करावर्तद्वीप रूप) ढाई द्वीप में ।
पन्नरससु कम्मभूमिसु - पंद्रह कर्मभूमियों में ।।
जहाँ असि, मसि एवं कृषि का व्यवहार होता है ऐसे पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच महाविदेह रूप पंद्रह कर्मभूमियों में ।
जावतं के वि साहु - जो भी साधु हो ।
चौदह राजलोक रूपी विश्व के ठीक मध्य में एक राजलोक प्रमाण ति लोक है। ति लोक में असंख्य द्वीप-समुद्र हैं । इन असंख्य द्वीपों में भी मनुष्य के जन्म-मरण तो ढ़ाई द्वीपरूपी क्षेत्र में ही होते हैं । उसमें भी धर्म करने की सामग्री तो मात्र पंद्रह कर्मभूमिओं के मनुष्यों को ही मिलती है। इसलिए इस गाथा में क्षेत्र मर्यादा को बताते हुए कहा गया कि ढाई द्वीप में भी केवल पंद्रह कर्मभूमि में रहे हुए जितने साधु हैं।
यह पद बोलते हुए सोचना चाहिए कि, “इतने विशाल विश्व में संयमी आत्मा के दर्शन हों ऐसा क्षेत्र तो एक बिंदु के बराबर भी नहीं है । ऐसे क्षेत्र में मेरा जन्म हुआ है । सचमुच, मैं धन्य हूँ ।” 1A. यहाँ अड्ढाईज्जेसु दोसु दीवसमुद्देसु' ऐसा पाठ भी आवश्यक चूर्णि में है । मूल पाठ में दोसु शब्द ____ अध्याहार है । अर्थात् संपूर्ण दो द्वीप-समुद्र और अर्ध तृतीय द्वीप इस तरह ढाई द्वीप समुद्र में। B. हारिभद्रीय आवश्यक टीका में इन दोनों पदों का संलग्न अर्थ जंबूद्वीप, धातकीखंड
पुष्कराद्धेषु किया गया है। उसके आधार पर इस पंक्ति का अर्थ जंबूद्वीप, धातकीखंड और
अर्धपुष्करावर्त द्वीपरूप ढाई द्वीप करना ज्यादा योग्य लगता है । C. ढ़ाई द्वीप की विशेष समझ के लिए ‘सूत्र-संवेदना भाग-२' पुक्खरवरदी सूत्र देखें ।