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विशाल-लोचन दलं
येषामभिषेक-कर्म कृत्वा, मत्ता हर्षभरात् सुखं सुरेन्द्राः । तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः।।२।। कलङ्क-निर्मुक्तममुक्तपूर्णतं, कुतर्क-राहु-ग्रसनं सदोदयम्। अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितं, दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम्॥३॥ गाथा : विशाल-लोचन-दलं, प्रोद्यद्-दन्तांशु-केसरम्। प्रात:रजिनेन्द्रस्य, मुख-पद्मं पुनातु वः।।१।। गाथार्थ :
विशाल नेत्रों रूपी पत्रों वाला, झिलमिल दाँतों की किरणों रूपी केसरवाला, श्री वीर जिनेश्वर का मुखरूपी कमल प्रातःकाल में आपको पवित्र करे । ।।१।। विशेषार्थ :
वीर प्रभु की स्तुति करते हुए इस गाथा में रचनाकार ने सर्वप्रथम प्रभु के मुख की कमल के साथ तुलना की है । जिस प्रकार प्रातःकाल में खिला हुआ कमल अपने मनोहर रूप, सुमधुर सुवास आदि से अनेक भ्रमरों को आकर्षित करता है और मनुष्यों के मन को प्रसन्न करता है, उसी प्रकार दो विशाल नेत्र रूप पत्रों (पत्तियों) वाला और तेजस्वी दांत की किरणों रूपी केसरों से युक्त वीर प्रभु का मुखकमल सुयोग्य आत्माओं को अपनी तरफ आकर्षित करता है। आकर्षित हुए जीव उत्तम द्रव्यों से प्रभु की बाह्य भक्ति करते हैं और उनके गुणों को जानकर उन गुणों को प्राप्त करने का प्रयत्न करके, आत्मकल्याणकारी अंतरंग भक्ति करते हैं । गाथा के अंत में 'प्रभु का ऐसा मुखारविंद आप सब को पवित्र करे !' ऐसा कहकर सूत्रकारश्री ने सभी जीवों के प्रति शुभकामना व्यक्त की है ।