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सुदर्शनचरितम् छितिरा मूर, गोहिल गोत्रके गृहस्थ साधु दीनूका उल्लेख है। (लेख ५२५ ) प्राग्वाट, पौरपाट व पोरवाड एक ही जातिके वाचक हैं । आश्चर्य नहीं जो भट्टा० देवेन्द्रकीर्ति भी इसी जातिमें उत्पन्न हुए हों और उन्हींके प्रभावसे विद्यानन्दि उनके द्वारा दीक्षित हुए हों। सं० १४९९ के मूर्तिलेखमें उन्हें मुनि देवेन्द्रकीतिके शिष्य मात्र कहा गया है। किन्तु सं० १५१३ के मूतिलेखमें उनका श्री देवेन्द्रकीति-दीक्षित आचार्य श्री विद्यानन्दि रूपसे उल्लेख हुआ है। सं० १५३७ के मूर्तिलेखमें वे 'देवेन्द्रकीर्तिपदे' विद्यानन्दि कहे गये हैं। अतः उससे पूर्व ही वे अपने गुरुके पट्टपर अधिष्ठित हो चुके थे।
विद्यानन्दिने भ्रमण भी खूब किया था। पट्टावलीके अनुसार उन्होंने सम्मेदशिखर, चम्पा, पावा, ऊर्जयन्त (गिरनार ) आदि समस्त सिद्ध क्षेत्रोंकी तीर्थ-यात्रा की थी। तथा उनका सम्मान राजाधिराज महामण्डलेश्वर वज्रांग-गंगजयसिंह-व्याघ्र-नरेन्द्र आदि द्वारा किया गया था। इन माण्डलिक राजाओंकी ऐतिहासिक जानकारी उपलभ्य नहीं है। उनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी मूर्तियोंमें हूमड जातीय श्रावकोंके अधिक उल्लेख हैं। अन्य जाति व वर्ग सम्बन्धी उल्लेखोंमें काष्ठासंव-हुंवड वंश, सिंहपुरा जाति राइकवाल ( रैकवाल ) जाति, गोलाथंगार ( गोलसिंगारे ) वंश, पल्लीवाल जाति तथा अग्रोतक अन्वय ( अगरवाल ) के नाम आये हैं।
अधिकांश लेख मूर्ति-प्रतिष्ठा सम्बन्धी होनेसे स्पष्ट है कि इस कालके भट्टारकों द्वारा धर्मप्रचार हेतु यह कार्य विशेष रूपसे अपनाया गया था।
उक्त समस्त उल्लेखोंसे विद्यानन्दिके कार्य-कलापोंका काल विक्रम सं० १४९९ से १५३८ तक पाया जाता है। इस कार्यकालके भीतर प्रस्तुत रचना कब और कहाँ की गयी इसका संकेत हमें प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तिम अधिकारके ४२वें पद्यमें मिलता है। जहां कहा गया है कि इस पवित्र सुदर्शन चरित्रकी रचना उन्होंने गंधारपुरोके छत्र ध्वजा आदिसे सुशोभित जैन मन्दिर में की थी। गंधारनगर या गंधारपुरीका उल्लेख सेन गणकी सूरत शाखाके भट्टारको सम्बन्धी अनेक लेखों में प्राप्त होता है । महोचन्द्रके शिष्य जय-सागर द्वारा संवत् १७३२ में रचित सीताहुणर नामके गुजराती रासमें गंधारनगरका उल्लेख है तथा इस ग्रन्थको
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