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प्रस्तावना
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१५
अनेक शाखाएँ स्थापित हुईं जैसे कारंजा व जेरहटमें सं० १५०० के लगभग, उत्तर भारत की कुछ शाखाएँ सं० १२६४ के लगभग, दिल्ली, जयपुर, ईडर व सूरत शाखाएँ सं० १४५०, नागोर व अंटेर सं० १५८०, भानपुर में सं० १५३० के लगभग तथा लातूरमें सं० १७०० के लगभग शाखाएं स्थापित हुई ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में बलात्कारगण के जिन आचार्यों का उल्लेख पाया जाता है वे उत्तर भारत तथा सूरतकी शाखा में हुए पाये जाते हैं । उत्तरकी शाखा में प्रभाचन्द्रका काल सं० १३१० से १३८५ तक और पद्मनन्दिका सं० १३८५ से सं० १४५० तक प्रमाणित होता है । पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीर्तिने सूरतकी शाखाका प्रारम्भ किया । उनका सबसे प्राचोन उल्लेख सं० १४९९ वैशाख कृष्ण ५ का उनके द्वारा स्थापित एक मूर्तिपर पाया गया है। उन्होंके पट्टशिष्य प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता विद्यानन्दि हुए; जिनके सम-सामयिक उल्लेख उनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयीं मूर्तियों पर सं० १४९९ से सं० १५३७ तक पाये गये हैं ( भट्टा० सम्प्र० क्र० ४२७-४३३ ) ।
विद्यानन्दिके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी कोई वृत्तान्त ग्रन्थ- प्रशस्तियों या अन्य लेखों में नहीं पाया जाता । केवल एक पट्टावली ( जै० सि० भास्कर १७ पृ० ५१ व भट्टा० सम्प्र० क्र० ४३९ ) में अष्टशाखा - प्राग्वाटवंशावतंस तथा 'हरिराज - कुलोद्योतकर' कहा गया है जिससे ज्ञात होता है कि वे प्राग्वाट ( पौरवाड ) जाति के थे, तथा उन के पिता का नाम हरिराज था । पौरवाड जाति में अथवा उस के किसी एक वर्ग में आठ शाखों की मान्यता प्रचलित रही होगी, जैसा कि परवार जाति में भी पाया जाता है ।
प्राग्वाट जाति का प्रसार प्राचीन कालसे गुजरात प्रदेशमें पाया जाता है । इसी प्रदेश की प्राचीन राजधानी श्रीमाल ( आधुनिक भीनमाल थी) जो आबूके प्रसिद्ध जैन मन्दिर विमलवसही के निर्माता प्राग्वाटवंशीय मंत्री विमलशाहका पैत्रिक निवास स्थान था । इस प्राग्वाटजातिमें विद्यानन्दिके गुरु भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिका विशेष मान रहा पाया जाता है । उन्होंने पौरपाटान्वयकी अष्टशाखावाले एक श्रावक द्वारा संवत् १९९३ में एक जिन मूर्तिकी स्थापना करायी थी ( भट्टा० सम्प्र० ४२५ ) संवत् १६४५ में धर्मकीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तिपर पौरपट्ट
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