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प्रस्तावना
अधिकार १०-सुदर्शन का दीक्षाग्रहण और तप
सुदर्शनका अपने पुत्र सुकान्तको अपने पदपर प्रतिष्ठित कर मुनिदीक्षा ग्रहण करना (१-७ )। सुदर्शनके चरित्रसे प्रभावित हो राजा धात्रीवाहनका भी अपने पुत्रको राज्य दे मुनि होना। रानियोंका भी तप स्वीकार करना तथा अन्य भव्यजनों द्वारा श्रावकके व्रत अथवा सम्यक्त्व ग्रहण करना ( ८-१९) । सुदर्शन द्वारा मुनिचर्याका पालन एवं नागरिकों द्वारा सुदर्शन मनोरमा एवं राजाके चरित्रकी प्रशंसा । आहारदान व भक्ति (२०-४५) । सुदर्शनका ज्ञानार्जन, गुरुभक्ति एवं मुनिव्रतोंका परिपालन ( ४६-४९) । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह त्याग इन पांच व्रतोंका और उनकी पच्चीस भावनाओंका पांच प्रवचन, माताओंका पंचेन्द्रिय संयम केशलोंच, परिग्रह-जय तथा वन्दना सामायिक आदि गुणोंका परिपालन ( ५०-१४८ )। अधिकार ११-केवलज्ञानोत्पत्ति
धर्मोपदेश करते हुए सुदर्शन मुनिका ऊर्जयन्तादि सिद्ध क्षेत्रोंको वन्दना कर पाटलिपुत्र नगरमें आहार निमित्त प्रवेश (१-६)। पण्डिता धात्रोके संकेतपर देवदत्ता गणिका द्वारा श्राविकाका वेश धारणकर मुनिराजका आमन्त्रण तथा अपने यौवन
और वैभव द्वारा उनका प्रलोभन (७-१६) । मुनि द्वारा संसारके स्वरूप शरीरको अपवित्रता और क्षणभंगुरता भोगोंको भयंकरता व वैभवकी चंचलता आदिका उपदेश देकर स्त्री स्वभावका चिन्तन करते हुए ध्यानमें तल्लीनता (१७.३०) । देवदत्ताने मुनिको अपने यौवनादि द्वारा प्रलोभित करनेकी तीन दिन तक चेष्टा की
और अन्तत: निराश होकर मुनिराजको श्मशानमें लाकर छोड़ दिया (३१-३७)। जो अभया रानी आर्तध्यानसे मरकर व्यन्तरो हुई थी उसका विमान आकाश मार्गमें स्खलित होनेसे उसने मुनिको देखा और उन्हें पहिचान कर बदले की भावनासे घोर उपसर्ग करना प्रारम्भ किया । यक्षने आकर मुनिकी रक्षा को। व्यन्तरीने मुनिसे सात दिन तक युद्ध किया और अन्ततः परास्त होकर भाग गयी । (३८-४३) मुनिका निश्चल ध्यान । नाना गुणस्थानों द्वारा कर्मप्रकृतियोंका क्षय (४४-५७) । सुदर्शन मुनि द्वारा क्रमसे कर्म क्षय कर केवलज्ञान तथा वर्धमान तीर्थकरके तीर्थमें अन्तकृत केवली पदको प्राप्ति (५८-६०)। इन्द्रासनका कम्पायमान होना । देवोंका
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