Book Title: Sudarshan Charitam
Author(s): Vidyanandi, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 125
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुदर्शनचरितम् [१०, १४०रौद्रमेतद्वयं स्वामी दुर्गतेः कारणं ध्रुवम् । परित्यज्य दयासिन्धुः सर्वद्वन्द्वविवर्जितः ॥१४०।। आज्ञापायविपाकोत्थं संस्थानविचयं तथा । धर्मध्यानं चतुर्भदं स्वर्गादिसुखसाधनम् ॥१४१।। ध्यायन्नित्यं स मोक्षार्थी षड्विधं चेति सत्तपः। आभ्यन्तरं जगत्सारं करोति स्म सुखप्रदम् ॥१४२।। शुक्लध्यानं चतुर्भेदं साक्षान्मोक्षस्य कारणम् । तदने कथयिष्यामि भवभ्रमणवारणम् ॥१४३।। एवं तपस्यतस्तस्य संजाता विविधर्द्धयः । अनेकभव्यलोकानां परमानन्ददायिकाः ॥१४४।। तथा चोक्तम्बुद्धि तओ वि य लद्धी विउवण लद्धी तहेव ओसहिया। मणवचिअरकी गा वि य लद्धीओ सत्त पण्णत्ता ॥१४५।। ग्रीष्मकाले महाधीरः पर्वतस्योपरि स्थितः । शीतकाले बर्हिदेशे प्रावृट्काले तरोरधः ।।१४६।। कुर्वन्महातपः स्वामी ध्यानी मौनी मुनीश्वरः। शैथिल्यं कर्मणां शक्तिं नयति स्म महामनाः ॥१४७।। इत्येवं स मुनीश्वरो गुणनिधिमूलोत्तरान् सद्गुणान् संसाराम्बुधितारणैकनिपुणान स्वर्गापवर्गप्रदान् । सद्रत्नत्रयमण्डितोऽतिनितरां वृद्धि नयन्नित्यशो निर्मोहः परमार्थपण्डितनुतश्चक्रे जिनोक्तं तपः ॥१४८।। ॥ इति सुदर्शनचरिते पञ्चनमस्कारमाहात्म्यप्रदर्शके मुमुक्षुश्रीविद्यानन्दिविरचिते सुदर्शनतपोग्रहणमूलोत्तरगुणप्रतिपालनव्यावर्णनो नाम दशमोऽधिकारः ॥ For Private And Personal Use Only

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