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सुदर्शनचरितम्
मूलसंघ सरस्वती गच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्दान्वय- प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, कीर्ति और विद्यानन्दि ( ग्रन्थकार ); विद्यानन्दिके चार शिष्य मल्लिभूषण, गर, सिसाहनन्दि और नेमिदत्त ।
देवेन्द्र
श्रुत
इस पट्टावलिके अतिरिक्त ग्रन्थमें उसके रचना-काल सम्बन्धी कोई सूचना नहीं पायी जाती । हाँ, जिस प्राचीन हस्तलिखित प्रतिपरसे प्रस्तुत संस्करण तैयार किया गया है उसकी ग्रन्थ समाप्ति व अन्तिम पुष्पिकाके पश्चात् लिखा है "शुभंभवतु " ॥ छ | ग्रन्थ संख्या श्लोक १३६२ ।। संवत् १५९१ वर्षे अखाड ( आषाढ ) मासे शुक्ल पक्षे ॥ यद्यपि यहाँ यह स्पष्ट सूचित नहीं किया गया कि उक्त काल निर्देश ग्रन्थ रचनाका है या प्रति लेखनका तथापि अन्य उपलभ्य प्रमाणों परसे यही प्रमाणित होता है कि वह प्रति लेखन-काल है, रचना - काल नहीं ।
पूर्वोक्त परम्पराका उल्लेख अन्य अनेक ग्रन्थों तथा शिलालेखों में भी पाया जाता है, जिनके लिए देखिए डॉ० जोहरापुरकर कृत भट्टारक सम्प्रदाय ( जीवराज जैन ग्रन्थमाला ८, शोलापुर, १९५८ ) । इसमे बलात्कारगण संबन्धी मूल शिलालेखों व प्रशस्तियों के पाठ कालक्रमसे उद्धृत हैं, तथा उनपरसे ज्ञात गुरुपरम्पराओंका परिचय भी व्यवस्थासे कराया गया है। इस सामग्री के अनुसार बलात्कारगणका सबसे प्राचीन और स्पष्ट उल्लेख उत्तरपुराण टिप्पण में किया गया है जहाँ विक्रमादित्य संवत्सर १०८० में भोज देवके राज्य में बलात्कारगण के श्रीनन्दि आचार्यके शिष्य श्रीचन्द्र मुनि द्वारा उस टिप्पण के रचे जानेकी बात कही गयी है ।
धारवाड जिलेके गाबरवाड नामक स्थान से एक ऐसा भी शिलालेख मिला है जिसमें मूल संघ व नन्दिसंघके बलगार गणका उल्लेख है ( जै० शि० संग्रह भाग चार १५४. मा० दि० जे० ग्र० ४८ भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९६२ ) यह शक ९९३ ( वि० सं० ११२८ ) का है । किन्तु इसमें जो आठ आचार्योंकी परम्पराका उल्लेख और उसीके समान एक अगले लेख क्र० १५५ में जो तीन आचार्योंका उल्लेख हुआ है उसपरसे अनुमान होता है कि इस गणका अस्तित्व कोई डेढ़ पौने दो सौ वर्ष पूर्व अर्थात् विक्रम संवत् १५० के लगभग भी था । बलगार और बलात्कारगण एक ही प्रतीत होते हैं । कालान्तर में इस गणकी
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