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सुदर्शनचरितम्
में हुई है । इसमें ६०वीं कथा सुभग गोपाल शीर्षक है और वह १७३ पद्यों में पूर्ण हुई है। उसके अन्त में कहा गया है :
" इति श्रीजिननमस्कारसमन्वितसुभगगोपालकथानकमिदम् "
इस ग्रन्थकी रचना उसकी प्रशस्तिके अनुसार विक्रम संवत् ९८९ तथा शक संवत् ८५३ में हुई थी ।
दूसरी रचना मुनि श्रीचन्द कृत कहाकोसु ( कथाकोश ) है जो हाल ही प्रकाश में आयी है ( डॉ० हो० ला० जैन द्वारा सम्पादित । प्राकृत ग्रन्थ परिषद - १३ अहमदाबाद, सन् १९६९ ) । इसकी रचना अपभ्रंश पद्योंमें हुई है और उसमें ५३ संधियाँ हैं । जिनमें १९० कथाओं का समावेश है । अधिकांश कथानक उपर्युक्त हरिषेण कृत कथाकोशके समान ही हैं । तथापि भाषा, शैली एवं काव्य गुणोंके कारण इस रचनाकी अपनी विशेषता है । यहाँ सुभग गोपाल व सुदर्शन सेठका चरित्र २२वीं संधि १६ कडवकोंमें सम्पूर्ण हुआ है । यद्यपि इस ग्रन्थ में उसकी रचना-कालका उल्लेख नहीं है तथापि इन्हीं श्रीचन्द मुनिका एक दूसरा ग्रन्थ भी पाया जाता है जिसका नाम दंसणकहरयणकरंड ( दर्शनकथा रत्नकरंड ) है और उसमें उसका रचनाकाल विक्रम संवत् ११२३ निर्दिष्ट है । अतएव उनका प्रस्तुत कथाकोश इसी समयके कुछ काल पश्चात् रचित अनुमान किया जा सकता है ।
इसी विषयकी तीसरी रचना नयनन्दि कृत सुदंसणचरिउ ( सुदर्शन चरित ) है । यह अपभ्रंश भाषाका एक महाकाव्य कहा जा सकता है। यह काव्य गुणोंसे भरपूर है । यों तो समस्त अपभ्रंश रचनाएँ अपने लालित्य एवं छन्द-वैचित्र्य के लिए प्रसिद्ध हैं तथापि यह काव्य तो ऐसे अनेक विविध छन्दोंसे परिपूर्ण पाया जाता है कि जिनका अन्यत्र प्रयोग व लक्षण प्राप्त नहीं होते हैं । कहीं-कहीं तो महाकविने स्वयं अपने छन्दोंके नाम निर्दिष्ट कर दिये हैं। कि कविने अपना छन्द कौशल प्रकट करनेके लिए हो यह काव्य १२ संधियों में समाप्त हुआ है । और ग्रन्थकी उसकी रचना अवन्ति ( मालवा ) प्रदेश की राजधानी धारा नगरीके बडविहार नामक जैन मन्दिर में राजा भोजके समय विक्रम संवत् ११०० में हुई थी। इस
ऐसा प्रतीत होता है
इसकी रचना की हो । प्रशस्तिके अनुसार ही
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