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प्रस्तावना
प्रथम भव में वे विन्ध्यगिरिमें व्याघ्र नामक भिल्लराज थे। दूसरे जन्ममें वे एक गोपालके कूकर हुए। उनके कानोंमें कुछ धार्मिक उपदेशोंकी ध्वनि पड़ जानेसे उन्होंने तीसरे जन्ममें नर भव पाया । और वे एक व्याधके पुत्र हुए। चौथे जन्ममें वे सुभग नामक गोपाल हुए। वे चम्पापुरीके सेठ जिनदत्तकी गौएँ चराते थे । प्रसंगवश उन्होंने एक मुनिराजके प्रति श्रद्धा व्यक्त की और उन्होंके मुखसे नमो. कार मन्त्रको पाकर उसे ही अपने जीवनकी आराधनाका विषय बना लिया। उसीके प्रभावसे वे अपने पांचवें भवमें श्रेष्ठो पुत्र सुदर्शनके रूपमें प्रकट हुए। उन्हें खूब वैभव भी मिला और घोर यातनाएं भी सहनी पड़ों। किन्तु वे न तो वैभव
और भोग-विलासके अवसरोंसे प्रलोभित हुए और न उसके निषेधसे उत्पन्न क्लेशों और पीड़ाओंसे घबराये । आत्मसंयमके उच्चतम आदर्शका अनुसरण करते हुए उन्होंने वीतरागता और सर्वज्ञताकी वह स्थिति प्राप्त कर लो जो संसारसे मुक्ति पानेके लिए आवश्यक होती है । (८ : ४० आदि ) ।
सुदर्शन चरित सम्बन्धी साहित्य
उपलभ्य प्राचीन साहित्यमें सुदर्शन मुनिके जीवन चरित्रका संकेत हमें शिवार्य कृत मूलाराधना ( भगवती आराधना ) में मिलता है। यहां कहा गया है कि
अन्नाणी वि य गोवो आराधित्ता मदो नमोक्कारं ।
चंपाए सेटिकुले जादो पत्तो य सामन्नं ॥ (७६२) अर्थात् अज्ञानी होते हुए भी सुभग गोपालने नमोकार मन्त्रको आराधना की। जिसके प्रभावसे वह मरकर चम्पानगरके श्रेष्ठिकुल में ( सुदर्शन सेठके रूपमें) उत्पन्न हुआ और वह श्रमण मुनि होकर श्रमणत्वके फलस्वरूप मोक्ष को प्राप्त हुआ।
भगवती आराधनामें दृष्टान्तोंके रूपसे सूचित कथाओंको विस्तृत रूपसे वर्णन करनेवाली प्रमुख दो रचनाएं उपलब्ध हुई हैं। पहली रचना हरिषेणाचार्य रचित वृहत् कथाकोश है ( डॉ० आ० ने० उपाध्ये द्वारा सम्पादित सिंघी जैन ग्रन्थमाला -१७, बम्बई-१९४३ ) इसमें कुल १५७ कथानक हैं। जिनको रचना संस्कृत
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