Book Title: Sramana 2014 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्ये डॉ० अनुराधा सिंह सुदीप कुमार रंजन अर्धमागधी में उपलब्ध जैन अंग साहित्य जैन परम्परा का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य है। ये सामान्य रूप से भगवान महावीर के उपदेश माने जाते हैं। अत: भगवान महावीरकालीन संस्कृति के धरोहर हैं। यद्यपि इनमें प्रक्षिप्त अंश भी पाये जाते हैं। उपलब्ध अंग साहित्य की संख्या ग्यारह है। इनमें उल्लिखित वस्त्र उद्योग, धातु उद्योग, स्वर्ण एवं रत्न उद्योग, प्रसाधन उद्योग, चित्र उद्योग, रंग उद्योग, मद्य उद्योग, सिलाई उद्योग, वस्तु उद्योग आदि से सम्बन्धित तथ्यों का विवेचन इस लेख में किया गया है। -सम्पादक प्राचीन काल से ही देश के आर्थिक विकास में उद्योग-धन्धों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जैन ग्रंथों में भी अंग-आगम काल में कृषि, खनिज और वनसम्पदा आधारित विभिन्न उद्योगों की उन्नत अवस्था का विवरण मिलता है। दशवैकालिवचूर्णि में उद्योगों से अर्थोपार्जन करने का उल्लेख है। आवश्यक चूर्णि में वर्णित है कि जब भोगयुग के पश्चात् कर्मयुग का आरम्भ हुआ तो ऋषभदेव ने अपनी प्रजा को सौ प्रकार के शिल्प सिखाए। प्रश्नव्याकरण से ज्ञात होता है कि उस समय असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्प आजीविका के प्रमुख साधन थे। नगर उद्योग केन्द्र थे, राजा सिद्धार्थ के यहाँ नगर शिल्पियों द्वारा निर्मित सुन्दर और बहुमूल्य वस्तुओं का बाहुल्य था। जैन परम्परा अनुसार मनुष्य की उपार्जन पद्धति उसकी वृत्ति को प्रभावित करती है। इसलिए इस बात का ध्यान रखा जाता था कि मनुष्य की उत्पादन पद्धति ऐसी हो जिससे मनुष्य के मनुष्यत्व का विकास हो। अनेक व्यवसाय आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होने पर भी नैतिक दृष्टि से हेय होने के कारण त्याज्य थे। उपासकदशांग और आवश्यकचूर्णि में इस प्रकार के १५ वर्जित व्यवसायों का उल्लेख है:

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