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ISSN 0972-1002
श्रमण ŚRAMAŅA
A Quarterly Research Journal of Jainology
Vol. LXV
No. I
January-March 2014
प्रशान्त रस
भगवान महावीर
पारवनाश
वाराणसी
Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
Established : 1937
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STHUT ŚRAMANA
(Since 1949)
A Quarterly Research Journal of Jainology
Vol. LXV
No. I
January-March 2014
Joint Editor
Dr. Ashok Kumar Singh
Assistant Editor Om Prakash Singh
Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
(Established: 1937)
(Recognized by Banaras Hindu University as an External Research Centre)
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Dr. Shugan C. Jain Chairman, New Delhi
ADVISORY BOARD
Prof. Cromwell Crawford Univ. of Hawaii
Prof. Anne Vallely
Univ. of Ottawa, Canada
Prof. Peter Flugel
SOAS, London
Prof. Christopher Key Chapple Univ. of Loyola, USA
Prof. M.N.P. Tiwari B.H.U., Varanasi Prof. K. K. Jain B.H.U., Varanasi Dr. A.P. Singh, Ballia
Prof. Ramjee Singh Bheekhampur, Bhagalpur Prof. Sagarmal Jain Prachya Vidyapeeth, Shajapur Prof. K.C. Sogani Chittaranjan Marg, Jaipur Prof. D.N. Bhargava Bani Park, Jaipur Prof. Prakash C. Jain JNU, Delh
EDITORIAL BOARD
Prof. Gary L. Francione New York, USA Prof. Viney Jain, Gurgaon Dr. S. P. Pandey
PV,
Varanasi
ISSN: 0972-1002 SUBSCRIPTION
Annual Membership
Life Membership
For Institutions: Rs. 500.00, $ 50 For Institutions: Rs. 5000.00, $ 250 For Individuals: Rs. 150.00, $ 30 For Individuals: Rs. 2000.00, $ 150
Per Issue Price: Rs. 50.00, $ 10
Membership fee & articles can be sent in favour of Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-5 PUBLISHED BY
Shri Indrabhooti Barar, for Parshwanath Vidyapeeth, I. T. I. Road, Karaundi, Varanasi 221005, Ph. 0542-2575890
Email: pvpvaranasi@gmail.com
NOTE: The facts and views expressed in the Journal are those of authors only. (पत्रिका में प्रकाशित तथ्य और विचार लेखक के अपने हैं ।)
Theme of the Cover : Bhāgavāna Mahavir
Printed by- Mahaveer Press, Bhelupur, Varanasi
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Contents
Our Contributors
सम्पादकीय
१.
१-१३
जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे डॉ० अनुराधा सिंह सुदीप कुमार रंजन
जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श डा० अशोक कुमार सिंह जैन अभिलेखों का वैशिष्टय डॉ० अरुण प्रताप सिंह
१४-२२
२३-३१
जैन कला एवं परम्परा मे बाहुबली: आदर्श एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि डॉ० शान्ति स्वरूप सिन्हा
३२-३९
दलितोद्धारक आचार्य तुलसी एक अन्तरावलोकन ओम प्रकाश सिंह
४०-४३
44-52
Panegyric (Prasasti) literature Dr. Ashok Kumar Singh Jain Studies through Indian Antiquary Dr. Navin Kumar Srivastav
53-60
स्थायी स्तम्भ
पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार समीक्षा एवं साभार प्राप्ति
६१-६४ ६५-७१
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Our Contributors
Dr. Anuradha Singh Associate Professor Department of History, BHU, Varanasi Sudip Kumar Ranjan Research Scholar, Department of History, BHU, Varanasi
Dr. Ashok Kumar Singh Associate Professor & Joint Editor of Śramaņa Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
Dr. Arun Pratap Singh Associate Professor Bajranj Mahavidyalaya, Sikandarpur, Ballia, U.P.
Dr. Shanti Swaroop Sinha Assistant Professor, Visul Art History & Deging Faculty of Visul Art, BHU, Varanasi, U.P.
Mr. Om Prakash Singh Librarian, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
Dr. Navin Kumar Srivastava Research Associate Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
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सम्पादकीय
इस अंक में जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे डॉ० अनुराधा सिंह एवं सुदीप कुमार रंजन, जैन अभिलेखों का वैशिष्ट्य डॉ० अरुण प्रताप सिंह एवं परम्परा में बाहुबलि, डॉ० शान्ति स्वरूप सिन्हा, दलितोद्धारक आचार्य तुलसी- एक अन्तरावलोकन, ओम प्रकाश सिंह, Jain Studies through Indian Antiquary - Dr. Navin Kumar Srivastava और जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श तथा Jain Prasasti Literature मेरे द्वारा लिखित है।
मुख पृष्ठ पर दिया गया चित्र प्रशान्त रस के उदाहरण के रूप में उपप्रवर्तक श्री अमरमुनि द्वारा सम्पादित सचित्र अनुयोगद्वारासूत्र (पद्मप्रकाशन, दिल्ली) से लिया गया है हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं । शान्त रस, जिसे उक्त कृति में प्रशान्त रस कहा गया है, का सर्वप्रथम लक्षण, उदाहरण प्ररूपित करने का श्रेय आर्यरक्षित को दिया जा सकता है। उनके द्वारा रचित अर्धमागधी आगम अनुयोगद्वार में प्रशान्त का लक्षण एवं उदाहरण पाया जाता है।
इस समय पूरा भारत प्रजातंत्र 2014 का महापर्व मना रहा है। इस पूरे परिवेश में भगवान महावीर प्रवर्तित भाषा समिति - सम्यग्भाषा, जिससे अभिप्राय सत्य, हितकारी, परिमित और सन्देहरहित भाषण से है, साथ ही वचन गुप्ति - वाचिक क्रिया के प्रत्येक प्रसङ्ग पर या तो वचन का पालन - नियमन करना या मौन धारण करना इन दोनों नियमों का पालन करना अत्यन्त आवश्यक हो जाते है। भगवान महावीर की वचन गुप्ति असत्यचनों में प्रवृत्ति का निषेध करती है तो भाषा समिति में सत् वचनों में प्रवृत्ति अपेक्षित है। संचार के माध्यमों की व्यापक और सहज उपलब्धता की स्थिति में वाक् संयम का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया है जितना शायद कभी नहीं था। महावीर जयन्ती के अवसर पर सभी को हार्दिक बधाइयाँ ।
डॉ० अशोक कुमार सिंह
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जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्ये
डॉ० अनुराधा सिंह सुदीप कुमार रंजन
अर्धमागधी में उपलब्ध जैन अंग साहित्य जैन परम्परा का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य है। ये सामान्य रूप से भगवान महावीर के उपदेश माने जाते हैं। अत: भगवान महावीरकालीन संस्कृति के धरोहर हैं। यद्यपि इनमें प्रक्षिप्त अंश भी पाये जाते हैं। उपलब्ध अंग साहित्य की संख्या ग्यारह है। इनमें उल्लिखित वस्त्र उद्योग, धातु उद्योग, स्वर्ण एवं रत्न उद्योग, प्रसाधन उद्योग, चित्र उद्योग, रंग उद्योग, मद्य उद्योग, सिलाई उद्योग, वस्तु उद्योग आदि से सम्बन्धित तथ्यों का विवेचन इस लेख में किया गया है।
-सम्पादक प्राचीन काल से ही देश के आर्थिक विकास में उद्योग-धन्धों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जैन ग्रंथों में भी अंग-आगम काल में कृषि, खनिज और वनसम्पदा आधारित विभिन्न उद्योगों की उन्नत अवस्था का विवरण मिलता है। दशवैकालिवचूर्णि में उद्योगों से अर्थोपार्जन करने का उल्लेख है। आवश्यक चूर्णि में वर्णित है कि जब भोगयुग के पश्चात् कर्मयुग का आरम्भ हुआ तो ऋषभदेव ने अपनी प्रजा को सौ प्रकार के शिल्प सिखाए। प्रश्नव्याकरण से ज्ञात होता है कि उस समय असि, मसि, कृषि, वाणिज्य
और शिल्प आजीविका के प्रमुख साधन थे। नगर उद्योग केन्द्र थे, राजा सिद्धार्थ के यहाँ नगर शिल्पियों द्वारा निर्मित सुन्दर और बहुमूल्य वस्तुओं का बाहुल्य था। जैन परम्परा अनुसार मनुष्य की उपार्जन पद्धति उसकी वृत्ति को प्रभावित करती है। इसलिए इस बात का ध्यान रखा जाता था कि मनुष्य की उत्पादन पद्धति ऐसी हो जिससे मनुष्य के मनुष्यत्व का विकास हो। अनेक व्यवसाय आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होने पर भी नैतिक दृष्टि से हेय होने के कारण त्याज्य थे। उपासकदशांग और आवश्यकचूर्णि में इस प्रकार के १५ वर्जित व्यवसायों का उल्लेख है:
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इंगालकम्मे (अंगार कर्म), वणकम्मे (वनकर्म), भाडीकम्मे (भाटकर्म), साडीकम्मे (शाटककर्म), फोडकम्मे (स्फोटकर्म), दंतवाणिज्जे (दंतवाणिज्य), लाखवाणिज्जे (लाख वाणिज्य), केसवाणिज्जे (केश वाणिज्य), रसवाणिज्जे ( रस वाणिज्य), विसवाणिज्जे (विष वाणिज्य), जंतपीलणकम्मे (यंत्रपीड़न कर्म), निलंछणकम्मे (नपुंसककर्म), दावाग्गिदावणया (दावाग्निदावण) और असईजनपोसणा (दुराचारी लोगों का संरक्षण)। इन व्यवसायों में किसी न किसी प्रकार की हिंसा होती थी अतः जैनियों के लिए ये व्यवसाय वर्जित थे, परन्तु सामान्य जन में जीविका के साधन के लिए इनका प्रचलन था।
शिल्पी उन्हीं वस्तुओं का निर्माण करते थे जिनसे उनको लाभ होता था। प्रश्नव्याकरण से ज्ञात होता है कि राजा और नगरवासी शिल्पियों द्वारा निर्मित सुन्दर वस्तुओं का उपयोग करते थे। इस काल में शिल्पकारों को शिक्षा भी दी जाती थी, शिल्प एवं उद्योग में पारंगत होने के लिए व्यक्ति कलाचार्य के समीप जाते थे।' शिल्पशालाएँ विस्तृत भूमि पर बनायी जाती थीं, शिल्प शालाओं में कुम्भकार शाला, लौहकार शाला, पण्यशाला आदि नाम प्राप्त होते हैं। इन्हीं शालाओं में तीर्थंकर और यात्री ठहरते भी थे।
शिल्पी अपने व्यवसाय के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति सचेष्ट रहते थे। इसी कारण वे निगम, संघ, पूग, श्रेणी, निकाय आदि संगठनों में संगठित थे । ९° ये संगठन शिल्पियों के सुख तथा दुःख में सहयोग प्रदान करते थे। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि जब युवराज मल्लीकुमार ने क्रोधित होकर एक चित्रकार को मृत्युदण्ड दिया तो श्रेणी उसे समुचित न्याय दिलाने के लिए राजसभा में गयी। फलतः राजा ने मृत्युदण्ड के स्थान पर चित्रकार का अंगूठा काटकर (संडासक) उसे राज्य से निर्वासित कर दिया । १९
उद्योगों को देश की वनसम्पदा, खनिज सम्पदा, कृषि और पशुपालन समृद्धि से कच्चा माल नियमित रूप से उपलब्ध होता रहता था। वस्त्र उद्योग, काष्ठ उद्योग, चर्म उद्योग तथा वास्तु[-उद्योग के लिए कच्चे माल की आपूर्ति वन से हो जाती थी । कृषि से वस्त्र, खांड, तेल, मद्य आदि उद्योग चलते थे। खनिज सम्पदा से धातु उद्योग में उन्नति हुई थी। यातायात की सुविधा के कारण कच्चे माल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने तथा उद्योग से उत्पादित वस्तुओं के वितरण में सुविधा थी ।
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जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 3 राजा की निजी उद्योगशालाएँ भी हुआ करती थीं। आचारांग से ज्ञात होता है कि राजा श्रेणिक ने यान, वल्कल, कोयले और मुंजदर्भ के शल्याध्यक्षों को बुलाया था।१२ राजाओं द्वारा बड़े-बड़े उद्योग चलाने के उल्लेख भी जैन ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। स्थानांग से ज्ञात होता है कि राजाओं की भौतिक सुख सुविधाओं के लिए नव निधियाँ होती थीं।१३ जैन अंग ग्रन्थों में उपलब्ध प्रमुख उद्योगों के विवरण को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता हैवस्त्र उद्योग- ज्ञाताधर्मकथांग में बहत्तर प्रकार की कलाओं का वर्णन मिलता है, इनमें से एक कला वस्त्र बनाना भी थी।१४ विभिन्न प्रकार के वस्त्रों और इन पर किये गये चित्रांकन से अंग-आगम काल में वस्त्र उद्योग की उन्नत अवस्था का पता चलता है। उस समय सुन्दर, सुकोमल और पारदर्शी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था। वस्त्र इतने हल्के होते थे कि नासिका के उच्छ्वास से भी उड़ जाते थे।५ वस्त्रों पर स्वर्ण द्वारा चित्र तथा किनारियाँ भी बनाई जाती थीं। मेघ कुमार की माता रानी धारणी देवी स्वर्णतारों से हंस बने किनारियों वाले वस्त्र पहनती थीं।१६ वस्त्रों को बनाने हेत कपास, सन, रेशम तथा ऊन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। आचारांगसूत्र में पाँच प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख मिलता है- ऊनी वस्त्र (वस्त्र जंगिय), रेशमी वस्त्र (भंगिय), सन अथवा बल्कल से बने (सणिय), ताड़पत्र के रेशों से बने (पोतग) तथा तुलकण, कपास और ओक के डोडों से बने वस्त्र (खोमिय)।७ सूतीवस्त्रों को कपास, सन तथा बाँस के पौधों के रेशों से निर्मित किया जाता था। कपास से सूत बनाने की एक लम्बी प्रक्रिया थी। बृहत्कल्पभाष्य में लिखा है कि सर्वप्रथम 'सडुग' (कपास) को औटकर बीजरहित किया जाता था। तदुपरान्त धुनकी से धुनकर 'पूनी' (रूई) तैयार की जाती थी। नालब उपकरण की सहायता से सूत को भूमि पर फैलाकर आड़ा-तिरछा करके ताना बुना जाता था। स्त्रियाँ भी सूत कातने का कार्य करती थी। जैन साहित्य में साधुओं को कपास ओटती हुई स्त्री से भिक्षा लेना निषेध किया गया था। आचारांगसूत्र में पशु के बाल के निर्मित ऊनी वस्त्र को 'जंगिय' कहा गया है, ये पाँच प्रकार के होते थे- 'मेसाणि' या 'औणिक' (भेड़, बकरी के ऊन
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से निर्मित), 'उटाणि' या 'औष्ट्रिक' (ऊँट के बालों से निर्मित), मिगाईणाणि या मृगरोमज (मृग के रोम से बना ), 'कुतप या पेसणि' (चूहे आदि के रोम से), पेसलाणि या किटटू' (विदेशी पशुओ या अश्व के रोम से बने )। १८ निशीथचूर्णि से ज्ञात होता है कि 'रालग' उत्तम प्रकार का ऊनी वस्त्र होता था जो मुख्यतः ओढ़ने के काम आता था। १९
मृग, भेड़, गौ, महिष और बकरे के चर्म के वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। सिन्ध देश के चर्मवस्त्र मूल्यवान होते थे । २०
आचारांगसूत्र में रेशमी वस्त्र को 'भंगिय' कहा गया है। २१ यह वस्त्र वृक्ष के पत्तों पर पले विशेष प्रकार के कीड़ों के लार से बनता था। अनुयोगद्वार में अंडों से निर्मित रेशमी वस्त्रों को 'अंडज' और कीड़ों की लार से बने वस्त्रों को 'कीडज' कहा गया है। २२ आचारांगसूत्र में पाँच प्रकार के रेशमी वस्त्रों का उल्लेख आया है२३ पट्ट (पट्ट वृक्ष पर पले कीड़ों की लार से निर्मित), मलय (मलय देश में उत्पन्न वृक्षों के पत्तों पर पले कीड़ों की लार से निर्मित), अंशुक (दुकूल वृक्ष की भीतरी छाल के रेशों से निर्मित), चीनांशुक (चीन देश के ) और देशराग ( रंगे हुए वस्त्र )। २४ ज्ञाताधर्मकथांग में भी रेशमी वस्त्र का उल्लेख आया है। धारिणी देवी की शैया पर कसीदाकढ़ा हुआ 'क्षौमदुकूल' (रेशमी चादर ) बिछा हुआ था। २५ राजा बहुमूल्य रेशमी वस्त्रों को धारण भी करता था । आचारांगसूत्र में वर्णित है कि महावीर की दीक्षा के समय उन्हें एक लाख मूल्य वाला क्षौमवस्त्र पहनाया गया था। २६ काशी का रेशमी वस्त्र अधिक बहुमूल्य होता था।
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आचारांगसूत्र से ज्ञात होता है कि उक्त वस्त्रों के अतिरिक्त सूक्ष्म, कोमल और बहुमूल्य वस्त्रों का निर्माण होता था, यथा- सहिण (सूक्ष्म व सौन्दर्यशाली), आय (बकरे की खाल से निर्मित), गज्जफल (स्फटिक के समान स्वच्छ), कोयव अर्थात् रोमदार कम्बल, पावारण ( लबादा में लपेटने वाले वस्त्र ) ।
वस्त्रों को केवल शरीर पर धारण करने के लिए ही नहीं प्रयोग किया जाता था। वह मच्छरदानी, परदे, तौलिये आदि के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि धारिणी देवी की शैया मलक, नवत, कुशक्त, बिम्ब और सिंहकेसर नामक अस्तरणों से आच्छादित था
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जाता था
जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 5 तथा उस पर मसहरी (मच्छरदानी) लगी हुई थी।२७ मेघकुमार ने नहाकर रोयेंदार और अत्यन्त कोमल गंधकषाय (सुगन्धित कषैले रंग से रंगे) वस्त्र से अपने को पोछा था।२८ वस्त्र व्यवसाय से जुड़े रंगरेज, धोबी और दर्जियों का उल्लेख हुआ है। वस्त्रों की रंगाई-धुलाई का काम धोबी करते थे। धोबी की गणना अठारह श्रेणियों में होती थी।२९ रंगीन वस्त्रों को देशराग कहा जाता था।३० मूल्य के आधार पर तीन प्रकार के वस्त्र थे। उत्तम वस्त्र का मूल्य एक लाख ‘रूवग' और साधारण का अठारह 'रूवग' था। इनके मध्य का वस्त्र मध्यम मूल्य का था। देश के निम्नवर्ग के लोगों के लिए सस्ता और साधारण वस्त्र निर्मित किया जाता था वहीं सम्पन्न वर्ग की आवश्यकतानुसार मूल्यवान और सुन्दर वस्त्रों का निर्माण किया जाता था।३१ भारत के वस्त्र को विदेशों में भी निर्यात किया जाता था।३२ धातु उद्योग : ज्ञाताधर्मकथांग की बहत्तर कलाओं में धातुकला की भी शिक्षा दी गई है।३३ विपाकसूत्र तथा उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है धातुकार्य करने वाले जब लोहा, सीसा, ताँबा, रांगा आदि को पिघलाते थे तो कलकल की आवाज निकलती थी।३४ लोहे का काम करने वाले को लौहकार कहा जाता था। नगर और गाँवों में लौहकारों की शालाएँ थी जिन्हें 'समर' अथवा अयस कहा जाता था।२५ महावीर इन लौहकार शालाओं में कई बार विहार किये थे।३६ लोहे के छोटे-छोटे टुकड़े करके उसके उपकरण बनाए जाते थे। ज्ञाताधर्मकथांग में लुहारों की भट्ठियों का उल्लेख मिलता है।३७ भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि लोहा तपाने की भट्ठी में लोहे को तप्त किया जाता था। बीच-बीच में चमड़े की बनी हुई धौकनी से अग्नि प्रज्ज्वलित किया जाता था। इसके बाद प्रतप्त लोहे को लौह निर्मित उपकरण ‘सँड़सी' से आवश्यकतानुसार ऊँचा-नीचा किया जाता था। फिर प्रतप्त लोहे को एरण पर रखकर ‘चर्मष्ठ या मुष्टिक' (हथौड़े) से पीटा जाता था। पीटे हुए लोहे को ठंडा करने के लिए कुण्ड में डाला जाता था जिसे 'द्रोणी' कहते थे।३८ लोहार लोहे को पीटकर पतलाकर उससे अनेक प्रकार के युद्ध उपकरण, मुद्गल, भुशंडि, करौंत, त्रिशूल, हल, गदा, भाला, तोमर, शूल, बर्ची, तलवार आदि निर्मित करते थे।३९ आचारांगसूत्र से ज्ञात होता है कि दैनिक
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6 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 जीवन में काम आने वाले घरेलू उपकरण कैंची, छुरी, सुई, नहरनी आदि लोहे से बनाए गये थे। स्वर्ण एवं रत्न उद्योग : प्राचीन काल में स्वर्ण उद्योग चरमोत्कर्ष पर था। सम्पन्न होने के कारण स्वर्णकारों को समाज में उच्च स्थान भी प्राप्त था।
औपपातिकसूत्र में वर्णित है कि स्वर्ण को आग में तपा कर अम्ल में प्रक्षालित किया जाता था। फिर पुनः अग्नि में डालने पर वह रक्तवर्ण का हो जाता था। राजा के लिए स्वर्णयान, भवन तथा आभूषण बनाए जाते थे। रानियाँ भी स्वर्ण के आभूषणों से अलंकृत रहती थीं। ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार धारिणी देवी ने हार, करधनी, बाजूबन्द, कड़े, अंगूठियाँ आदि पहन रखा था।२ मेघकुमार ने दीक्षा लेने से पूर्व अठारह लड़ियों का हार, नौ लड़ियों का अर्द्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, प्रालम्ब (कंडी), पाद प्रालम्ब (पैरों तक लटकने वाला आभूषण) कड़े, टुटिक (भुजा का आभूषण), केयूर, अंगद, दसों अंगुलियों में दस मुद्रिकाएँ, कंदोरा कुण्डल आदि पहने हुए थे।४३ औपपातिकसूत्र से ज्ञात होता है कि अश्वों और हाथियों को सोने के आभूषणों से सुशोभित किया जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित है कि स्वर्णकारों ने मल्लीकुमारी की एक स्वर्णप्रतिमा भी बनायी थी।५ स्वर्णकारों के सदृश रत्नकार भी होते थे। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि राजगृह में एक नन्द नामक मणिकार रहता था। ६ राजा द्वारा रत्नजटित मकट का पहनना रत्न उद्योग के वैभव का प्रतीक था।४७ रत्नों का प्रयोग प्रसाधन मंजूषा तथा शृंगारदान बनाने में किया जाता था।४८ मेघकुमार के बाल को धारिणी देवी ने रत्न की 'डिबिया' में रखा था।४९ रत्न विभिन्न प्रकार के होते थे। ज्ञाताधर्मकथांग में सोलह प्रकार के रत्नों का उल्लेख हुआ हैकर्केतन, वैदूर्य, लौहिताक्षर, मसार, हेसगर्ग, पुलक, सौगंधिक, ज्योतिरस, अंक, अंजन, रजत, जातरूप, अंजनपुलक, स्फटिक तथा रिष्ट।५० स्थानांग से विदित होता है कि मणियों को खान से निकालकर शोधित किया जाता था।५१ आवश्यकचूर्णि से ज्ञात होता है कि 'राजगिरि' के एक मणिकार ने मणिरत्न जटित सुन्दर बैलों की जोड़ी बनाई थी।५२
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जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 7 भाण्ड उद्योग : प्राचीन युग में मिट्टी के बर्तन का सर्वाधिक उपयोग होता था। जम्बूद्वीप प्रज्ञाप्ति तथा प्रज्ञापनासूत्र से ज्ञात होता है कि 'मृण्भाण्ड' बनाने वाले को कुम्हार तथा धातु के बर्तन बनाने वाले को कोलालिक कहते थे।५३ ज्ञाताधर्मकयांग में कुम्हारों की दुकान (कमोरशाला) का उल्लेख आया है जहाँ से नूतन घड़े खरीदे जाते थे । १४ उपासकदशांग में भी कुम्हार के कर्मस्थान को 'कुमारशाला' कहा गया है, यहाँ पर भगवान महाबीर ने आश्रय लिया था । कुम्हार जल द्वारा मिट्टी को गीला करता था तथा उसमें सार और करीष मिलाकर मिश्रण तैयार करता था तथा उस मिश्रण को चाक पर रखकर बर्तन का आकार देता था तथा सूत और दण्ड की सहायता से उसे बाहर निकालता था। ५६
काष्ठ उद्योग : पुरातन युग में लकड़ी के उपकरणों का अत्यधिक महत्त्व था। लकड़ी काटने वाले को 'वणकम्म' कहते थे और लकड़ी काटने के लिए कुल्हाड़ी और फरसे का प्रयोग होता था।" लकड़ी से ओखल, मूसल, पीढ़े, रथ, पालकी, यान, हल, जुआ, पाटा आदि उपकरणों का निर्माण होता था । ५८ प्राचीन युग में भवनों के द्वार, गवाक्ष, सोपान, कंगूरे आदि काष्ठ से निर्मित किये जाते थे । १९ ज्ञाताधर्मकथांग से यह स्पष्ट होता है कि काष्ठ के द्वारा ही नाव की मेढ़ी (मोटा लट्ठा) जो सब पट्टियों का आधार होता था, माल (व्यक्ति के बैठने का ऊपरी भाग) आदि निर्मित किया जाता था।° गोशीर्ष चन्दन की लकड़ी तथा तिनिश की लकड़ी को बहुमूल्य माना जाता था । तिनिश की लकड़ी का प्रयोग यान तथा रथ आदि वाहनों में किया
जाता था । ६१
तेल उद्योग : प्राचीन काल में तिल, अरसी, सरसों, एरण्ड आदि से तेल निकाला जाता था।६२ बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार तेल निकालने की क्रिया को 'जंतपीलणकम्म' (यंत्र पीड़न कर्म ) कहा जाता था । ६३ मुख्य रूप से खाने के अतिरिक्त तेलों का उपयोग औषधियों के रूप में होता था। विभिन्न प्रकार की औषधियों को मिश्रित कर तेल बनाये जाते थे। सौ औषधियों के साथ पकाए गये तेल को 'शतापक' तथा सहस्त्र औषधियों में पकाए जाने वाले तेल को 'सहस्त्रपाक' कहा जाता था। शतपाक और सहस्त्रपाक तेल होते थे, इनसे उस युग में आयुर्वेद की उन्नत
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8 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 अवस्था का भी पता चलता है। हंस को चीरकर साफ कर उसके उदर में दवाइयां भरकर तेल में पकाने से प्राप्त तेल को 'हंसतेल' कहा जाता था।६४ इसी प्रकार मरु प्रदेश के पर्वतीय वृक्षों से प्राप्त तेल ‘मरुतेल' कहा जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि चन्दन का भी तेल बनता था जिसे दर्दर मिट्टी के घड़े में रखकर अग्नि में पकाया जाता था।६५ यह तेल अत्यन्त सुगंधित और गुणकारी होता था। खाण्ड उद्योग : जैन उल्लेख से खांड उद्योग की उन्नतता का पता चलता है। आचारांगसूत्र से गन्ने की खेती का ज्ञान होता है।६६ गन्ने की खेती प्रचुर मात्रा में होती थी जिससे गुड़, खांड और राब का निर्माण होता था।६७ गुड़
और शक्कर का निर्माण आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण अंग थे। जहाँ गन्ने का संग्रह किया जाता था उसे 'उच्छघर' अथवा 'इक्षुगृह' कहा जाता था।६८ दशपुर में इक्षुगृह में आचार्य ठहरते थे। गुड़ बनाने के स्थान को 'इक्खुवाड़े कहा गया है।६९ इक्षुगृह में गन्नों को काट-छाँट कर 'इक्षुयंत्र (इक्खुजत)° से पेरकर रस निकाला जाता था। रस को उबालकर गुड़ निर्मित किया जाता था।७१ गुड़ के अतिरिक्त खाण्ड; काल्पी (मिश्री), चीनी तथा चीनी से अनेक प्रकार की वस्तुओं का निर्माण होता था। भारत से विदेशों को चीनी निर्यात भी किया जाता था। भारतीय व्यापारी कालका द्वीप में अन्य वस्तुओं के साथ चीनी भी लेकर गये थे।७२ प्रसाधन उद्योग : शृंगारप्रियता तथा विलास प्रियता होने के कारण प्रसाधन उद्योग उन्नति पर था। सामान्यजन से लेकर समृद्ध लोग तक प्रसाधन का उपयोग करते थे। ज्ञाताधर्मकथांग और प्रश्नव्याकरणसूत्र में चन्दन, कपूर, चम्मा, दमकन, तगर, इलाइची, कुंकुम, जूही, कस्तूरी, लवंग, तुरुष्क, अगर, केतकी, केसर, मेरुआ, स्नान मालिका, नव मालिका, धूप आदि का सुगंधित द्रव्यों के रूप में उल्लेख आया है।७३ सूत्रकृतांगसूत्र में से स्त्रियों के अंगराग, रंग, सूरमा तथा सौन्दर्य बढ़ाने हेतु गुटिका बनाये जाने का उल्लेख है। चित्र उद्योग : हमारे समाज में चित्रकला का सदैव से ही एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। प्राचीनकाल में चित्रकार अपनी कला का प्रदर्शन भवनों, रथों, वस्त्रों, बर्तन आदि पर किया करते थे। ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञात होता है कि
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__ जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 9 धारिणी देवी के शयनागार की छत लताओं, पुष्पावलियों तथा उत्तम चित्रों से अलंकृत थी। इसी प्रकार मल्लीकुमार ने अपने चित्रकार श्रेणी को बुलाकर चित्रसभा बनाने का आदेश दिया। चित्रकार रंग और तूलिकायें लाकर चित्र-रचना में प्रवृत्त हो गये।७६ बृहकल्पभाष्य से विदित होता है कि एक विदुषी गणिका ने अपनी चित्रसभा में विभिन्न उद्योगों से संबंधित चित्र बनवा रखे थे। जब कोई आगन्तुक चित्र विशेष की ओर आकर्षित होता था तो वह उसकी रुचि का अनुमान लगा लेती थी।७७ रंग उद्योग : जैनग्रंथों में कषाय, हरिद्र, रक्त, नील, पीत आदि रंगों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में भी चित्रों तथा वस्त्रों को रंग से निखारा जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग से यह ज्ञात होता है कि राजा श्रेणिक ने कषाय (केसर) रंग से रंग हुए वस्त्र से शरीर को पोछा।८ कृमिराग से रंगे कम्बल, वीणा, लालरंग के हल्दी एवं चिकुर से रंगे वस्त्र पीत वर्ण के, नीले से तथा काली स्याही से रंगे पदार्थ काले रंग के होते थे।७९ मद्य उद्योग : आचारांगसूत्र में मदिरालय को पानस्थल कहा गया है। भिक्षुओं को मद्य सेवन का निषेध था। स्थानांगसूत्र में भी मद्य को बार-बार विकृति की संज्ञा दी गई है।८१ मद्यपान विलासिता की वस्तु थी। इसके दुष्परिणामों के कारण ही इसे घृणा की दृष्टि से देखा गया है। परन्तु फिर भी पर्व और उत्सवों में जनता भी मद्यपान करती थी। औषधि के रूप में भी मद्य का प्रयोग किया जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग से विदित होता है कि शौनक राजर्षि को एक चिकित्सक ने भोजन, औषध के साथ-साथ मद्यपान की भी सलाह दी थी।८२ बृहत्कल्पभाष्य में विभिन्न वस्तुओं से मंदिर निर्माण किए जाने का उल्लेख मिलता है। गुड़ से बनाई जाने वाली मदिरा को गौड़ो, चावल से बनाई गई मंदिरा को पेष्टी, बांस के अंकुरों से बनी मदिरा को वंशीण तथा फलों से निर्मित मदिरा को ‘फलसुराण' कहा जाता था।३ सिलाई उद्योग : वस्त्रों को बनाने के बाद उनकी सिलाई भी की जाती थी। सिलाई की कला भी ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित बहत्तर कलाओं में से एक कला थी। सिलाई करने में दक्ष पुरुष, स्त्रियाँ, जनसाधारण से लेकर समृद्ध तथा सम्पन्न व्यक्तियों के वस्त्र सिला करते थे। आचारांगसूत्र में सिलाई में उपयोग में आने वाले उपकरणों का उल्लेख आया है जैसे
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10 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 सुई, कैंची आदि। सूत्रकृतांग में भी सुई और धागे (सुई/सुत्तग) द्वारा कपड़े सिलने का उल्लेख आया है।५ ये सुइयां बांस (वेणु), पशुओं के सींग तथा लोहे द्वारा निर्मित की जाती थीं तथा सिलाई करने वाले दर्जी उसका उपयोग करते थे।८६ वास्तु उद्योग : पुराकालीन भारत में वास्तु उद्योग अपनी पराकाष्ठा तक विकसित था। नगरों की संरचना, दुर्गीकरण, प्राकार, परिखा आदि वस्तु उद्योग के उत्कर्ष के द्योतक हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में वास्तु विशेषज्ञों का वर्णन है जो राजमहल, भवन, तृणकुटीर, साधारण गृह, गुफा, बाजार, देवालय, सभामण्डप, प्याऊ, आश्रम, भूमिगृह, पुष्करिणी स्तूप आदि बनाते थे।८७ उद्योगों की उन्नत स्थिति अंग आगम काल में आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण थी। उद्योग और कृषि में बेहतर समन्वय पाया जाता था। उद्योगों ने ग्रामीण व नगरीय व्यवस्था के मध्य भी समन्वय का कार्य किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन अंग ग्रन्थों में प्राप्त उल्लेखों से तत्कालीन उद्योगों की स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। समाज के वस्त्र, धातु, स्वर्ण एवं रत्न, भाण्ड, काष्ठ, तेल, खाण्ड, प्रसाधन, चित्र, रंग, मद्य, सिलाई आदि उद्योग उत्यन्त विकसित थे। सन्दर्भ -
दशवैकालिकचूर्णि, पृ० १०२ आवश्यकचूर्णि, १/१५६ प्रश्नव्याकरण, ५/५ कल्पसूत्र, ६३ कल्पसूत्र, ६३ उपासकदशांगसूत्र १/३८; आवश्यकचूर्णि, भाग-२, पृ० २९६ निशीथचूर्णि, भाग-२, गाथा, ४४१९ प्रश्नव्याकरण, ४/४ दशवैकालिकसूत्र, ९/१३, १४ ; अंतकृद्दशांगसूत्र, ३/२; ज्ञाताधर्मकथांग, १/९९ उत्तराध्ययनसूत्र- १९/६६, ६७; निशीथचूर्णि भाग-२, पृ० ४३३;
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जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 11 भगवतीसूत्र, १५/२२ ज्ञाताधर्मकथांग ८/११८; वृहत्कल्पभाष्य, भाग-२, गाथा १०९१। ज्ञाताधर्मकथांग ८/१२९, १३० आचारांग, २/२/२/८; दशाश्रुतस्कन्धदशा-१० स्थानांग, ९/२२ ज्ञाताधर्मकथांग, ८/१०३, १०४ वही, १/१३३; भगवती ९/३३/५७ वही, अचारांग, २/५/१/१४१ आचारांगसूत्र २/५/१/१४४, ५५७ निशीथचूर्णि भाग-२, गाथा ६४५ आचारांग, २/५/१/१४५ वही, २/५/१/१४५ अनुयोगद्वार, २८/३८ आचारांग, २/५/१/१४५ निशीथचूर्णि, भाग-२, पृ० ३९९ ज्ञाताधर्मकथांग- १/१७ आचारांग, २/१५ ज्ञाताधर्मकथांग १/४२ वही, १/१७ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ३/१०; प्रज्ञापना, १/१०५, १०६ बृहत्कल्पभाष्य, भाग-२, गाथा ३०० निशीथचूर्णि भाग-२, गाथा ९५७ ज्ञाताधर्मकथांग, १७/३ ज्ञाताधर्मकथांग, १/१७ विपाकसूत्र, ६/५/७१, उत्तराध्ययनसूत्र, १९/६८ आचारांग, १/९/२/२ वृहत्कल्पभाष्य, भाग ४, गाथा ३९४३ ज्ञाताधर्मकथांग, १/९/२६ भगवतीसूत्र १६/९/७
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12 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 ३९. प्रश्नव्याकरण , ३१५
आचारांगसूत्र, २/७/६११
औपपातिकसूत्र, ३३ ज्ञाताधर्मकथांग, १/४४ वही, १/१४२
औपपातिक सूत्र ४१ ४५. ज्ञाताधर्मकथांग, ३/३५
वही, १३/८ वही, १/१४२ राजाप्रश्नीयसूत्र, १३२ ज्ञाताधर्मकथांग १/१४१ वही, १/६९ स्थानांग, ९/२२
आवश्यकचूर्णि भाग-१, पृ० २७२ ५३. जम्बूद्वीपप्रज्ञाप्ति ३/१०, प्रज्ञापना, १/१०५
ज्ञाताधर्मकथांग, १२/१६ उपासकदशांग, ७/१९ वही, ७/१७ उत्तराध्ययनसूत्र, १९/६६ .
प्रश्नव्याकरणसूत्र, १७ ५९. वही, पृ० १७ ६०. ज्ञाताधर्मकथांग, ९/१० ६१. वृहत्कल्पभाष्य, भाग-१, गाथा २/६
उपासकदशांग १/३८ ६३. वृहत्कल्पभाष्य, भाग १, गाथा ५२४ ६४. वही, भाग ५, ६०३१ ६५. ज्ञाताधर्मकथांग, १/१४२ ६६. आचारांगसूत्र, २/१/४०२, ३५० ६७. अनुयोगद्वार, १/६६ ६८. व्यवहार, ८/२४२
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जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 13 राजप्रश्नीयसूत्र ४२ प्रश्नव्याकरण, २/१३ राजप्रश्नीय, १/२ ज्ञाताधर्मकथांग, १७/२२ प्रश्नव्याकरण, १६३, ज्ञाताधर्मकथांग-११७/१७, (प्रश्न सूत्र ४१) सूत्रकृतांग, ११४, व्याख्याप्रज्ञाप्ति, २/८/५ ज्ञाताधर्मकथांग, १/१७ वही, ८/९६ वृहकल्पभाष्यं, भाग - १, माया २६२ ज्ञाताधर्मकथांर्ग, ११३० राजप्रश्नीयसूत्र, ३०-४० आचारांगसूत्र, २/११३४० स्थानांगसूत्र, ४/११/१८५ ज्ञाताधर्मकथांग, ५/६५ वृहत्कल्पभाष्य, भाग-४, गाथा ३४/२ आचारांगसूत्र, २/७/६ सूत्रकृतांग, ४/२/१२ निशोचचूर्णि, २, पृ० ३ प्रश्नव्याकरणसूत्र, १३
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जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श
डा० अशोक कुमार सिंह आचार्य भरत द्वारा नाट्यशास्त्र में निरूपित आठ रसों के विवेचन को ही प्रामाणिक माना जाता है। इन आठ रसों में शान्त रस उल्लिखित नहीं है। यद्यपि नाट्यशास्त्र के एक संस्करण के आधार पर उसकी टीका में अभिनवगुप्त ने नवम रस शान्त का विस्तृत विवेचन किया है। परन्तु नाट्यशास्त्र के अन्तः साक्ष्यों से भी स्पष्ट है कि भरत ने आठ रसों का ही निरूपण किया है। अत: विद्वानों के अनुसार नाट्यशास्त्र में शान्त रस वाला वह विवरण प्रक्षिप्त है। भरत का अनुसरण करते हुए महाकवि कालिदास और दण्डी ने भी रसों की सख्या आठ मानी है। संस्कृत साहित्य में नवें रस के रूप में शान्तरस का सर्वप्रथम प्रतिपादन उद्भट द्वारा माना जाता है। इनका समय नवीं शती के पूर्वार्द्ध के लगभग स्वीकृत है। इसके विपरीत जैन परम्परा में शान्त रस का विवेचन इससे शताब्दियों पूर्व में रचित ग्रन्थ और उसकी टीकाओं में मिलना
आरम्भ हो जाता है। आर्यरक्षित रचित चूलिका आगम अनुयोगद्वारसूत्र और उसके कुछ व्याख्याकारों का समय निश्चित रूप से उद्भट के पूर्व है। साथ ही यह भी आश्चर्यजनक है कि जैन परम्परा के महान आचार्य कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र और उनके महान शिष्यों रामचन्द्र-गुणचन्द्र सूरि ने तद्विषयक अपने विवेचन में अनुयोगद्वारसूत्र प्रतिपादित तथ्यों का अनुसरण न करते हुए संस्कृतकाव्य शास्त्र परम्परा का अनुसरण किया है। रस-स्वरूप निरूपण और रसों के क्रम-निर्धारण में भी परम्परा का प्रभाव दिखाई पड़ता है। प्रस्तुत लेख में इन्हीं तथ्यों पर विचार किया गया है।
-सम्पादक आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र के षष्ठ 'रसाध्याय' में रस-निष्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है- विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:१ अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारि भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। आचार्य भरत के रस-निष्पत्ति सम्बन्धी सूत्र की व्याख्या करते हुए भट्टलोल्लट, शंकुक, भट्टनायक तथा अभिनवगुप्त ने क्रमश: उत्पत्तिवाद (आरोपवाद), अनुमितिवाद, भुक्तिवाद (भोगवाद) और अभिव्यक्तिवाद- इन चार सिद्धान्तों
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जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श : 15 की स्थापना की है। ये आठ रस महामना द्रुहिण द्वारा कहे गये हैं। इस प्रकार आठ रस की परिकल्पना सर्वप्रथम द्रुहिण द्वारा की गयी है पर उनकी और उनकी रचना की पहचान नहीं हो सकी है। अतः सामान्यतया नाट्यशास्त्र ही रस-विवेचन का आदिशास्त्र माना जाता है। आचार्य के अभिमत में इन रसों के हेतुभूत रस चार हैं - शृंगार, रौद्र, वीर तथा बीभत्स।४ शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत तथा बीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है।' साथ ही उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि शृंगार का अनुकरण करने वाली प्रवृत्ति हास्य, रौद्र का कर्म करुण, वीर का कार्य अद्भुत तथा बीभत्स वस्तु या उसे देखने का कार्य भयानक रस है । ६
भरत के उक्त विवेचन को यहां प्रस्तुत करने का अभिप्राय यह बताना है कि आचार्य भरत द्वारा आठ रसों का ही निरूपण किया गया है- एवमेते रसा सेयात्वष्टौ लक्षणलक्षितः ।
नवें रस के रूप में शान्त रस को कालान्तर में सम्मिलित किये जाने की सम्भावना प्रतीत होती है। महाकवि कालिदास और दण्डी (सप्तम शती का पूर्वार्द्ध) भी भरत द्वारा आठ रसों का ही निरूपण किये जाने की पुष्टि करते हैं। कालिदास ने विक्रमोर्वशीयम्' में उल्लेख किया है- भरत मुनि ने तुम्हारे द्वारा अभिनय करने के लिये आठ रसों से युक्त जो नाटक बनाया है, उस सुन्दर भावपूर्ण नाटक को कुबेरादि लोकपालों के साथ इन्द्र महाराज देखना चाहते हैं। दण्डी ने भी काव्यादर्श' में आठ रसों का ही उल्लेख किया हैग्राम्यता दोष के अभाव तथा माधुर्य से कथन में रसोत्पत्ति हुई। इस प्रकार आठ रसों से युक्त होना रसवत् अलंकार का कारण है। दशरूपककार धनंजय (९७४-९९६ई०) ने भी यह कथन कर कि कुछ विद्वान 'शम' को भी स्थायी भाव बताते हैं परन्तु नाटक में इसकी पुष्टि नहीं होती, आठ रस की ही मान्यता को स्वीकार किया है । १०
परन्तु आचार्य अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र पर अपनी प्रसिद्ध टीका अभिनवभारती (१०१४ - १०१५ ई०) में नाट्यशास्त्र के किसी पाठ के आधार पर जो टीका प्रस्तुत की है उसके अनुसार भरत ने शान्त रस का भी निरूपण किया है। उल्लेखनीय है कि अभिनवभारती में शान्तरस का विस्तृत विवेचन
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16 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2014
मिलता है। नाट्यशास्त्र के छठें अध्याय में ८२ एवं ८३ श्लोकों के मध्य शान्त रस से सम्बन्धित पाठ उपलब्ध है। इसके श्लोकों पर क्रम संख्या भी नहीं दी गई है। इस अंश को विद्वान प्रक्षिप्त मानते हैं। इन्हीं श्लोकों पर अभिनवभारती में विवेचन हुआ है। १२ अभिनवगुप्त शान्तरस के पक्षधर हैं। इनके पूर्व काव्यशास्त्रियों में शान्तरस की मान्यता के सम्बन्ध में मतभेद था और यह अत्यन्त विवादग्रस्तविषय था ।
भरत नाट्यशास्त्र के शान्तरस के अंश को प्रक्षिप्त मानने की स्थिति में संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा में शान्तरस का सर्वप्रथम साहित्यिक उल्लेख उद्भट द्वारा अपनी कृति काव्यालंकारसारसंग्रह में किया गया माना जासकता है। डा० हर्मन याकोबी के अनुसार इनका समय नवम शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है। १३ अभिनवगुप्त का समय भी इनके बाद आता है ।
जैन परम्परा में शान्त रस का निरूपण उद्भट से पूर्व आर्यरक्षित रचित चूलिका आगम अनुयोगद्वारसूत्र और उसकी टीकाओं में उपलब्ध होता है। अनुयोगद्वार पर रचित दो व्याख्या उद्भट से पूर्ववर्ती हैं- जिनदासगणि महत्तर की अनुयोगद्वारचूर्णि और याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र की अनुयोगद्वार शिष्यहितावृत्ति। अनुयोगद्वार के कर्त्ता का काल ईसा की प्रथम शताब्दी है । जिनदासगणि महत्तर प्रमुख चूर्णिकार हैं और इनका समय छठीं -सातवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य हरिभद्र का समय सातवीं-आठवीं शती माना जाता है। ग्यारहवीं-बारहवीं शती में उत्पन्न मलधारि हेमचन्द्र ने भी अनुयोगद्वार पर टीका की रचना की है। ये कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र से भिन्न हैं। इन तीनों टीकाओं में सम्बद्ध अंश की व्याख्या में शान्तरस का विवेचन आया है।
शान्तरस का विवेचन कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र की कृति काव्यानुशासन और उनके शिष्यद्वय रामचन्द्रसूरि और गुणचन्द्रसूरि द्वारा लिखित नाट्यदर्पण में भी मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र का काल १०८८-११७२ है। इस प्रकार उद्भट से पूर्व तीन जैन कृतियों अनुयोगद्वारसूत्र, अनुयोगद्वारचूर्णि और अनुयोगद्वार - शिष्यहितावृत्ति में शान्तरस का विवेचन मिलता है। मलधारि हेमचन्द्र रचित अनुयोगद्वार टीका, काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण उद्भट से परवर्ती काल की रचनायें हैं।
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जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श : 17 जैन परम्परा की इन कृतियों में निरूपित रस-प्रकरण पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण में यह विवेचन संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा के अनुरूप है। काव्यानुशासन में नौ रसों का क्रम नाट्यशास्त्र के ही अनुरूप है- शृंगारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकबीभत्साद्भुतशान्ता नवरसाः।१४ इसी प्रकार नाट्यदर्पण१५ में भी रस-परिगणना में संस्कृत काव्य-शास्त्र की परम्परा के अनुरूप प्रतिपादन किया गया है
___ शृंगार-हास्य-करुणाः, रौद्रवीरभयानकाः। बीभात्साद्भुतशान्ताश्च, रसा: सद्भिःर्नवस्मृताः। श्लोक ९ विवेक ३। जैन परम्परा के इन महान आचार्यों द्वारा अनुयोगद्वार१६ और उसके व्याख्या साहित्य में वर्णित रस-प्रकरण का संज्ञान न लेना विचारणीय है।
जैन कृतियों में प्रशान्त रस के स्वरूप पर विचार का आरम्भ अनुयोगद्वार से किया जाना स्वाभाविक है। अनुयोगद्वार में रस-प्रकरण १८ गाथाओं में निरूपित है। दो-दो गाथाओं में प्रत्येक रस का लक्षण और उदाहरण बताया गया है। इसमें नौ रसों की गणना इस प्रकार की गई है१ वीरो, २ सिंगारो, ३ अब्भुओ य, ४ रुद्दो होइ बोधव्वो। ५ वीलणओ ६ बीभच्छो ७ हासो, ८ कलुणो, ९ पसन्तो। अर्थात् वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, वीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण तथा प्रशान्त रस। अनुयोगद्वारसूत्र में वर्णित रसों के क्रम और नाम से संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा से अन्तर को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है- १. शृंगार के स्थान पर वीर रस को प्रथम स्थान, २. भयानक रस के स्थान पर वीडनक रस, ३. हास्य (२) और करुण (३) को क्रमशः सातवां और आठवां स्थान, ४. शान्त का प्रशान्त नामकरण, ५. रसों के लक्षण में अन्तर।
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18 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014
श्रृंगार को रसों का राजा या रसराज कहा गया है। भरत इसे उज्ज्वल, पवित्र तथा उत्तम मानकर इसका रसराजत्व सिद्ध करते हैं। इसकी व्यापकता, महत्ता तथा प्रभावान्विता ही इसकी रसराजता का कारण है। शृगांर रस का प्रभाव जड़-चेतन, चर-अचर सभी पर देखा जाता है। अन्य रसों का क्षेत्र उतना व्यापक नहीं है जितना शृगांर का। इसी लिये रस-निर्देश के क्रम में इसे प्रथम स्थान दिया गया है। रसों के क्रम-निर्धारण में विद्वानों ने जैन आचार्यों रामचन्द्र-गुणचन्द्र की कृति नाट्यदर्पण का महत्त्वपूर्ण अवदान माना है। इनके अनुसार सर्वप्रथम श्रृंगार की गणना इसलिए की जाती है कि कामप्रधान है और सर्वसुलभ होने से सभी प्राणियों में पाया जाता है। शृंगार का अनुगामी हास्य है अत: इसके बाद उसे स्थान मिलता है। करुण हास्य का विरोधी है इसलिए उसे तृतीय स्थान प्राप्त है। रौद्र रस, आदि को भी क्रम प्रदान करने का कारण बताया गया है। श्रृंगार के स्थान पर वीर रस को प्रथम स्थान दिये जाने का आधार जैन परम्परा की अपनी पृष्ठभूमि है। निवृत्तिमार्गी जैन परम्परा का प्रमुख लक्ष्य मोक्ष है। तप और साधना इसका आधार है। परित्याग करने में गर्व या पश्चात्ताप न होने, तपश्चरण में धैर्य और शत्रुओं (अन्तः शत्रुओं) का विनाश करने में पराक्रम रूप लक्षण वाले वीर रस को जैन परम्परा में श्रृंगार पर वरीयता दिया जाना स्वाभाविक है।१८ नाट्यदर्पण के अनुसार भी वीर रस को धर्मप्रधान माना गया है।१९ रतिसंयोग अर्थात् सुरत क्रीड़ा के कारणभूत रमणी आदि के साथ संगम की इच्छा को उत्पन्न करने वाला, मण्डनअलंकार, आभूषणों आदि से शरीर को अलंकृत करना, सजाना, विलासकामोत्तेजक नेत्रादि की चेष्टाएं, विब्बोय-विकारोत्तेजक शारीरिक प्रवृत्ति, लीलागमनादिरूप रमणीय चेष्टा और रमण-क्रीड़ा करना रूप लक्षण वाले शृंगार रस को जैन परम्परा में कदापि प्रथम स्थान नहीं दिया जा सकता था। वीर रस की अपेक्षा शृंगार रस को गौण स्थान दिया जाना अपरिहार्य था। दोनों परम्पराओं ने शृंगार रस के स्वरूप का वर्णन करने में पृथक् दृष्टिकोण अपनाया हैं। वैदिक परम्परा में यह कोरी विलासिता या कामुकता का प्रदर्शन न कर यथार्थ के आधार फलक पर अधिष्ठित है और उसका सम्बन्ध उत्तम प्रकृति के स्त्री-पुरुषों से है। आचार्यों ने इसका देवता विष्णु को मानकर
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जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श : 19 शृंगार के विश्वकल्याणपरक स्वरूप को उजागर किया है। वस्तुतः साहित्य का श्रृंगार तभी उपयोगी एवं ग्राह्य हो सकता है, जब वह सामाजिक दृष्टि से मान्य हो। धर्म अविरुद्ध काम ही शृंगार रस का सहायक हो सकता है। जब कामोद्रेक उत्तमता के शृंग पर जाय अर्थात् काम का समाजोपयोगी एवं उत्तम रूप प्रस्तुत किया जाय तभी वह शृंगार की भावनाओं को पूर्णकर सकेगा। शृंगार में प्रेम का सहज, स्वस्थ एवं उदात्त रूप चित्रित होना चाहिए। शृंगार रस में उदात्तता का भाव है अत: शृंगार यहाँ रस राज कहा गया है। इस पृष्ठभूमि में जब हम जैन परम्परा में श्रृंगार के लक्षण पर विचार करते हैं तो उसमें शृंगार रस रति अर्थात् सुरत क्रीडा के कारण भूत साधनों के संयोग की अभिलाषा का जनक कहा गया है तथा मण्डन, विलास, हास्य, लीला और रमण ये शृंगार रस के लक्षण बताये गये हैं। भयानक रस के स्थान पर वीडनक रस२१ का प्ररूपण भी जैन परम्परा की अपनी विशेषता है। विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनय न करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपत्नी आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से व्रीडनक रस उत्पन्न होता है। लज्जा और शंका उत्पन्न होना इस रस के लक्षण हैं। इसका उदाहरण नवोढ़ा वधू के कथन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। वधू कहती है- इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद बात क्या हो सकती है- मैं तो इससे बहुत अधिक लजाती हूँ। मुझे तो इससे बहुत अधिक शर्म आती है कि वर-वधू के प्रथम समागम होने पर गुरुजन-सास आदि वधू द्वारा पहने वस्त्र की प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार लोकमर्यादा और आचार मर्यादा के उल्लंघन से वीडनक रस की उत्पत्ति होती है। लज्जा आना और आशंकित होना इसके ज्ञापक चिह्न हैं। लज्जा अर्थात कार्य करने के बाद मस्तक का नमित होजाना, शरीर का संकुचित होजाना और दोष प्रकट न होजाय इस विचार से मन का दोलायमान बना रहना। वीडनक का उदाहरण भी स्पष्ट है। किसी क्षेत्र या किसी काल में ऐसी लोक परम्परा रही होगी कि नवोढ़ा को अक्षत योनि प्रदर्शित करने के लिये सुहागरात के बाद उसके रक्तरंजित वस्त्रों का प्रदर्शन किया जाता था परन्तु है यह अतिशय लज्जाजनक।
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20 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 जैन टीकाकारों२२ ने भयानक रस के उल्लेख न करने के कारणों पर भी प्रकाश डाला है। उनके अनुसार भयानक रस का अन्तर्भाव रौद्ररस में हो जाता है। वीडनक के स्थान पर भयानक रस के स्वीकार किये जाने का भी जैन टीकाकार ने उल्लेख किया है। उनके शब्दों में लोगों ने व्रीडनक के स्थान पर भयोत्पादक संग्राम आदि के दर्शन से होने वाले भयानक रस को स्वीकार किया है- अस्यस्थाने भयजनकसंग्रामादि-वस्तु-दर्शनादिप्रभवः भयानको रसः पठ्यतेअन्यत्र। स च रौद्ररसान्तर्भावविवक्षणात् पृथक् नोक्ताः। हास्यरस (२) को सातवां स्थान२३ देकर उसे गौण स्थान देना भी जैन परम्परा के अनुरूप है। भाषा समिति एवं वचन गुप्ति को आचार में पालन करना आवश्यक है। भाषा समिति सम्यग्भाषा-सत्य, हितकारी, परिमित
और सन्देह रहित भाषण तथा वचनगुप्ति-वाचिक क्रिया के प्रत्येक प्रसंग पर या तो वचन का नियमन करना या मौन धारण करना वचन गुप्ति है। समिति में सत्क्रिया के प्रवर्तन की मुख्यता है और गुप्ति में असत्क्रिया के निषेध की मुख्यता। तात्पर्य यह कि वाचिक क्रिया और वाच्य-विषय पर पूर्ण नियन्त्रण जैन परम्परा में अपेक्षित है। जबकि हास्य रस रूप, वय, वेष और भाषा की विपरीतता से उत्पन्न होता है। हास्य रस मन को हर्षित करने वाला है और प्रकाश-मुख, नेत्र, उसका लक्षण है। उन्मुक्त या उन्मत्त व्यवहार पर आधारित हास्य रस को जैन परम्परा में अपेक्षाकृत गौण स्थान प्राप्त होना स्वाभाविक है। प्रशान्त रस२४ को दोनों परम्पराओं में अन्तिम नवम क्रम प्रदान किया गया है। कारण स्पष्ट है कि इसे रस में बाद में सम्मिलित किया गया। प्रशान्त या शान्त रस की उत्पत्ति और लक्षण बताते हुए कहा गया है- निर्दोष (हिंसादि) दोषों से रहित, मन की समाधि (स्वस्थता) से और प्रशान्त भाव से जो उत्पन्न होता है और अविष्कार जिसका लक्षण है उसे प्रशान्त रस जानना चाहिए। प्रशान्त रस सूचक उदाहरण इस प्रकार है- सद्भाव के कारण निर्विकार, रूपादि विषयों के अवलोकन की उत्सुकता के परित्याग से उपशान्त एवं क्रोधादि दोषों के परिहार से प्रशान्त, सौम्य दृष्टि से युक्त मुनि का मुखकमल वास्तव में अतीव श्रीसम्पन्न होकर सुशोभित हो रहा है।
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जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श : 21 इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रशान्त रस का साहित्य में सर्वप्रथम निरूपण जैन परम्परा में हुआ है। जैन परम्परा का भारतीय काव्य शास्त्र को यह महत्त्वपूर्ण अवदान माना जा सकता है। उद्भट से लगभग आठ सौ वर्ष पूर्व प्रशान्त रस का लक्षण और उदाहरण अनयोगद्वारसत्र में प्राप्त होता है। रसों के क्रम-निर्धारण में भी जैन परम्परा का प्रभाव परिलक्षित होता है और परवर्ती हेमचन्द्र, रामचन्द्र गुणचन्द्र जैसे महान जैन आचार्यों द्वारा अनुयोगद्वारसूत्र का अनुसरण न किया जाना आश्चर्य का विषय है। सन्दर्भ :
नाट्यशास्त्र, आचार्य भरत, सम्पा० के० एस० रामस्वामी शास्त्री, गायकवाड
ओरिएण्टल सिरीज बड़ौदा, द्विती० परिवर्द्धिन एवं आलोचनात्मक सं० १९५६, अध्याय ५, खण्ड १, पृ० २७२। सहाय, राजवंश 'हीरा', भारतीय साहित्य शास्त्र कोश, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, १९७३, पृ० ९०५। शृंगारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानका: बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः।। ६/१५, नाट्शास्त्र, पूर्वोक्त, पृ० २६६ ते हयष्टौ रसाः प्रोक्ता द्रुहिणेन महात्मना - ६/६/, वही, पृ० २६७ तेषामुत्पत्ति हेतवश्चत्वारो रसाः। तद्यथा शृंगारो रौद्रो वीरो बीभत्स इति।- वही, पृ० २९५ वही, ६/४०-४२ वही, ६/८३, पृ० ३४१ मुनिना भरतेन तमद्यभर्ता मसता द्रष्टुमनाः सलोकपालः।। २।८, विक्रमोर्वशीयम्,
कालिदास, सम्पा० परमेश्वरानन्द शास्त्री, लवपुर, १९६२। ९. इह तु त्वष्टरसायत्ता रसवत्ता स्मृता गिरात्।। १/२९२, काव्यादर्श, दण्डी,
अनु० ब्रजरत्नदास, वाराणसी १९८८।। १०. शममपि केचित् प्राहुः पुष्टिर्नाट्येषु नैतस्य।। ४/४४, दशरूपक, धनंजय,
अनु० डा० राजबलि पाण्डेय, उर्मिला प्रकाशन, दिल्ली,त्र १९९२। नाट्यशास्त्र, आचार्य भरत, पूर्वोक्त, अध्याय ६, खण्ड १, पृ० ३३२३३५।
वही, पृ० ३३२-३३५। १३. श्रृंगारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकाः।
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बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृता ।। ४/४ काव्यालंकारसंग्रह, द्रष्टव्य-भारतीय साहित्य शास्त्र कोश, पूर्वोक्त, पटना, १९७३, पृ० १०१२। काव्यानुशासन, हेमचन्द्र, सम्पा० आर० सी० पारिख, महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई १९३८, खण्ड १, अध्याय २/२७
नाट्यदर्पणम्, रामचन्द्र - गुणचन्द्र, सम्पा० एल० बी० गांधी, गायकवाड ओरिएण्टल सिरीज, बड़ौदा १९५९, विवेक ३, श्लोक ९ अनुयोगद्वारसूत्र, आर्यरक्षित, सम्पा० एवं अनु० मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १९८७, सूत्र २६२ (१)
वही, २६२ (२)
वही, २६२ (३)
वही,
वही ६२
वही, २६२
अनुयोगद्वारसूत्रटीका, मलधारि हेमचन्द्र, आगमसुत्तणि (सटीक) सम्पा० मुनि दीपरत्नसागर, आगम श्रुत प्रकाशन, अहमदाबाद १९९९, भाग ३०, पृ० १२४।
अनुयोगद्वारसूत्रटीका, मलधारि हेमचन्द्र, आगमसुत्तणि (सटीक) सम्पा० मुनि दीपरत्नसागर, आमग प्रकाशन समिति, ब्यावर १९८७, सूत्र २६२ वही, २६२ (९)
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जैन अभिलेखों का वैशिष्टय
डॉ० अरुण प्रताप सिंह
अभिलेखों का इतिहास लेखन एवं पुनर्निमाण में विशिष्ट महत्त्व है। प्रस्तर, धातु एवं मृण्पात्रों पर लिखे हुए लेखों को तोड़ना-मरोड़ना, विकृत करना या प्रक्षिप्त करना सम्भव नहीं है। उत्कीर्ण सामग्री तत्कालीन सामग्री का यथार्थ बोध कराती है। ईसा पूर्व चतुर्थ शती के बाद से उपलब्ध होने वाले ये अभिलेख भारत के इतिहास के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। जैन अभिलेखों से भी इतिहास सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं। प्रस्तुत लेख में उदाहरणों के माध्यम से इसके महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।
-सम्पादक इतिहास लेखन एवं पुनर्निर्माण में अभिलेखों का विशिष्ट महत्त्व है। ये अतीत के ऐसे अमिट स्रोत हैं जिनके प्रक्षिप्त होने की सम्भावना अत्यल्प रहती है। प्राचीन भारत में नाशवान पदार्थों यथा पत्तों, चमड़ों एवं कागजों पर लिखे हुए लेख तो नष्ट हो गये, परन्तु पत्थरों, धातुओं एवं मृण्पात्रों पर उत्कीर्ण अभिलेख कालजयी सिद्ध हुए। ये स्रोत अमिट इसलिए हैं क्योंकि एक बार लिखने के पश्चात् उन्हें पुनः तोड़ना-मरोड़ना या विकृत करना सरल एवं सुगम नहीं था। अतः ये अपने समय की यथार्थ स्थिति का बोध कराते हैं और तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य सांस्कृतिक सामग्री का यथारूप प्रदर्शन करते हैं। प्रायः चतुर्थ शताब्दी ई० पूर्व के प्रारम्भ से लेकर आगामी कई शताब्दियों तक सम्पूर्ण भारत में अभिलेख उत्कीर्ण किये गये हैं। ये इतिहास के जीवन्त स्रोत हैं। प्रायः सम्पूर्ण भारत में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्मानुयायियों के लेख प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों को धर्म के आधार पर बाँटना उचित नहीं प्रतीत होता परन्तु लेख की सुविधा के लिए उन लेखों को जैन अभिलेख कहा गया है जिसका प्रारम्भ जैन तीर्थकरों की प्रार्थना या नमस्कार से तथा अन्त भी इसी तरह होता है; अथवा वे अभिलेख जो पूर्णरूपेण जैन परम्परा के वाहक हैं। ऐतिहासिक सूचना के मूल स्रोत : जैन अभिलेख ऐतिहासिक घटनाओं के मूल स्रोत के रूप में स्थापित हैं। कुछ ऐतिहासिक राजवंशों की सूचना हमें
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24 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 सिर्फ जैन अभिलेखों से ही होती है। कलिंग नरेश खारवेल का उदाहरण सर्वप्रसिद्ध है। हाथी गुम्फा अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध यह अभिलेख जैन तीर्थंकरों एवं सिद्धों की प्रार्थना से प्रारम्भ होता है। 'नमो अरहतानं, नमो सव सिधानम" यहाँ यह बताना आवश्यक है कि जैन धर्मावलम्बी इस नरेश की ऐतिहासिक उपलब्धियों के बारे में किसी भी साहित्यिक स्रोत से कुछ भी ज्ञात नहीं होता। यदि यह लेख नहीं प्राप्त होता तो इस प्रभावशाली सम्राट के विषय में हम अन्धकार में ही रहते। हाथी गुम्फा के इस अभिलेख का वही महत्त्व है जो समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति अथवा यशोधर्म के मन्दसौर अभिलेख का। यदि ये दोनों अभिलेख नहीं प्राप्त होते तो समुद्रगुप्त की दिग्विजयी भूमिका केवल मुद्राओं के सहारे नहीं आंकी जा सकती थी। कालिदास के रघुवंश के आधार पर रघु के दिग्विजय की जो तुलना समुद्रगुप्त से की जाती है, उसका मूल आधार प्रयाग प्रशस्ति ही है। इसी प्रकार यदि मन्दसौर का अभिलेख नहीं मिलता तो हम यशोधर्म के विषय में बिल्कुल अन्जान रहते और यह नहीं जान पाते कि सदाशिव के चरणों में नत रहने वाले मिहिरकुल को किसने अपने पैरों में नत रहने को विवश किया।
जैन अभिलेख केवल उत्तर भारत के इतिहास में ही प्रासंगिक नहीं हैं अपितु सम्पूर्ण दक्षिण भारत के राजवंशों का इतिहास जानने में बहुउपयोगी हैं। हम केवल दो राजवंशों का उदाहरण देकर अपनी बात को पुष्ट करना चाहेंगे- गंग वंश एवं होयसल वंश। दक्षिण भारत में गंग वंश अति प्रसिद्ध रहा है। इस वंश का उद्भव ही जैन मुनि के आशीर्वाद एवं निर्देश के फलस्वरूप हुआ। इसकी प्रारम्भिक सूचना के स्रोत केवल जैन अभिलेख हैं। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि जैन आचार्य सिंहनन्दी ने इस राजवंश के प्रथम नरेश माधव को उच्च आदर्शों को स्थापित करने का निर्देश दिया था। यह अति महत्त्वपूर्ण है कि राजवंश की स्थापना के समय ही जैन मुनि ने निर्देश दिया था कि अपनी प्रतिज्ञात बात को यदि तुम नहीं करोगे, अगर तुम दूसरों की स्त्रियों को बलात् ग्रहण करोगे, अगर माँस एवं मधु का सेवन करोगे, अगर आवश्यकता वालों को अपना धन नहीं दोगे, अगर युद्ध भूमि से भाग जाओगे तो वंश नष्ट हो जायेगा। कर्नाटक के शिमोगा जिले के कल्लूर गुडु से प्राप्त संस्कृत तथा कन्नड़ मिश्रित अभिलेख के उपर्युक्त घटना के साथ गंग वंश की पूरी वंशावलि दी गई है।
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जैन अभिलेखों का वैशिष्ट्य : 25 इसी प्रकार होयसल वंश दक्षिण भारत का एक प्रसिद्ध राजवंश था। इस वंश की स्थापना में भी जैन मुनि का योगदान था और उन्हीं के उच्च आदर्शों पर राजवंश की स्थापना हुई थी। प्रारम्भिक अभिलेखों में इसका सविस्तार वर्णन है। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इस वंश का नामकरण भी जैन मुनि के आशीर्वाद से हुआ। साधना में रत एक जैन मुनि पर व्याघ्र द्वारा आक्रमण करते हुए देखकर मुनि के द्वारा पोय, सल (हे सल, इसे मारो) बोलने पर सल नामक वीर व्यक्ति ने अपना नाम ही पोयसल रखा और व्याघ्र को अपना राजचिह्न बनाया। इस वंश के नरेश पोयसल या होयसल कहलाए और व्याघ्र उनके लाञ्छन के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इसी अभिलेख में विष्णुवर्द्धन की पटरानी शांतलादेवी को पतिव्रत, धर्मपरायणता एवं भक्ति में रुक्मिणी, सत्यभामा और सीता जैसी देवियों के समान बताया गया है"अनवरतपरमकल्याणांभ्युदयशतसहस्रफलभोग भागिनी द्वितीय लक्ष्मी सामनेयुः। अभिनवरुक्मिणी देवियु। पतिहितसत्यभामेयु। विवेकक बृहस्पतियु। पतिव्रताप्रभावप्रसिद्धसीतेयु। प्राचीन भारतीय इतिहास की कुछ अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाने में जैन अभिलेखों का प्रशंसनीय योगदान है। इस सन्दर्भ में गुप्त सम्राट रामगुप्त का दृष्टान्त विचारणीय है। देवीचन्द्रगुप्तम् नाटक के कुछ अंशों को पढ़कर प्रसिद्ध विद्वान् सिलवां लेवी ने रामगुप्त की ऐतिहासिकता का एक क्षीण अनुमान लगाया था। रामगुप्त का कथानक तत्कालीन साक्ष्यों के आलोक में अनैतिहासिक प्रतीत होता था हालाँकि कुछ साहित्यिक ग्रन्थों में इसके संदर्भ मिलने प्रारम्भ हो गये थे। कालान्तर में कुछ मुद्रा साक्ष्य भी प्राप्त हुए परन्तु उसकी ऐतिहासिकता सन्देह के घेरे में थी और इतिहासकार दो परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित थे। जब तीर्थंकर मूर्तियों से सम्बन्धित आयागपटों पर गुप्तकालीन लिपि में तीन लेख विदिशा से प्राप्त हुए तब उनकी ऐतिहासिकता पर संदेह सदा के लिए समाप्त हो गया। यह स्वीकार कर लिया गया कि रामगुप्त सम्भवतः जैन धर्मावलम्बी था। वह परिस्थितियों के कारण विवश था
और व्यर्थ के रक्तपात से बचना चाहता था। सांस्कृतिक सामग्री की प्रचुरता : जैन अभिलेख सांस्कृतिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण हैं। जैन धर्म के विशेष संदर्भ में ये साहित्यिक स्रोतों का समर्थन तो करते ही हैं उससे ज्यादा अकाट्य एवं परिपक्व साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। उदाहरणार्थ- जैन
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26 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 संघ के ऐतिहासिक विभाजन की प्राथमिक जानकारी हमें जैन अभिलेख से ही प्राप्त होती है। जैन संघ का विभाजन श्वेताम्बर-दिगम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय में हुआ। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में संघ विभाजन की प्रारम्भिक सूचना तीसरी शताब्दी के उत्तराध्ययन नियुक्ति और ग्रन्थों से ही प्राप्त होती है जबकि इस सम्बन्ध में सूचना देने वाला दिगम्बर सम्प्रदाय का प्राचीनतम स्रोत दसवीं शताब्दी के मध्य का हरिषेण का बृहत्कथाकोष है। इसके पूर्व हमें किसी भी जैन साहित्यिक स्रोत से इसकी सूचना नहीं मिलती। यहाँ उल्लेखनीय है कि संघ विभाजन की आभिलेखिक सूचना हमें पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही मिल जाती है। कदम्ब वंश के यशस्वी नरेश मयूरशर्मन निर्गत अभिलेख में श्वेतपट (श्वेताम्बर), निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) एवं यापनीय का एक साथ उल्लेख मिलना ऐतिहासिक दृष्टि से अतिविशिष्ट है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों के ग्रन्थों में एक दूसरे के प्रति भ्रामक सूचना दी गई। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में अन्तिम निह्नव के रूप में बोटिक या बोडिग सम्प्रदाय तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में अर्धफलक सम्प्रदाय की सूचना दी गई है जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। ऐसी किसी भी भ्रामक सूचना का जैन अभिलेखों में नितान्त अभाव है। उक्त अभिलेख "नमः जयति भगवाज्जिनेन्द्रो के साथ प्रारम्भ होता है तथा नमो नमःषभाम नमः के साथ अन्त होता है। जैन अभिलेख साहित्यिक ग्रन्थों की ऐतिहासिकता की पृष्टि के लिए सूचना प्रदान करते हैं। जैन संघ के ऐतिहासिक विभाजन के पहले हमें गणों, कुलों एवं संभोगों का विकास दिखायी देता है। कल्पसूत्र में विभिन्न आचार्यों से निस्सृत गणों, कुलों एवं शाखाओं का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में प्रसिद्ध आङ्ग गण, उडुवाडिय गण, उत्तरबलिस्सह गण एवं वेषवाटिक गण का उल्लेख है। इनमें से चारण या वारण', कोट्टियार, उद्देहिकीय गण तथा वेषवाटिक गण के मेहिय कुल ३ का आभिलेखिक साक्ष्य प्राप्त होता है। कुषाणकालीन ये अभिलेख ग्रन्थ में वर्णित संदर्भो की ऐतिहासिकता को पुष्ट करते हैं। इसी ग्रन्थ में महावीर के गर्भापहरण एवं उसे पुनर्स्थापित करने का संदर्भ प्राप्त होता है। इसकी पुष्टि मथुरा से प्राप्त मथुरा के अभिलेखों से ही होती है। मथुरा से प्राप्त ईसा पूर्व के एक अभिलेख में हरिणम जिसने इस घटना को सम्पन्न किया था को भगवानमेसो कहा गया है। यह अभिलेख बुरी तरह खण्डित है।४ पत्थरों पर भी इसका चित्रण किया गया है जो मथुरा के म्यूजियम में सुरक्षित है।
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जैन अभिलेखों का वैशिष्ट्य : 27 कला एवं वास्तुकला के सम्बन्ध में भी प्राथमिक सूचना देने का श्रेय जैन अभिलेखों को ही है। कलिंग जिन अर्थात् कलिंग देश में पूजित जैन तीर्थंकर की प्रतिमा का ज्ञान हमें हाथी गुम्फा अभिलेख से होता है। अतः चतुर्थ शताब्दी ईसापूर्व में जिन मूर्ति की ऐतिहासिकता की सम्भावना पर विचार कर सकते हैं। इसी प्रकार जैन स्तूपों के अस्तित्व के प्राचीनतम सन्दर्भ हमें जैन अभिलेख से प्राप्त होते हैं। मथुरा से एक अभिलेख में वादेव स्तूप का उल्लेख है और इसे देवनिर्मित कहा गया है ।१५ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में निर्मित यह स्तूप इतना प्राचीन था कि इसके निर्माता को लोग भूल चुके थे और इसे देवनिर्मित मानने लगे थे। मूर्ति एवं स्तूप के समान मंदिर के अस्तित्व की सूचना हमें जैन अभिलेखों से ही प्राप्त होती है। मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में श्रावक उत्तरदास द्वारा एक ज़िन मन्दिर के तोरण (पासादोतोरण) दान देने का उल्लेख है । १७
अहिंसा को सर्वोपरि मानने वाले जैन धर्मावलम्बी राष्ट्ररक्षा में कितने तत्पर थे इसका संकेत हमें जैन अभिलेखों से ही प्राप्त होता है। हमने पूर्वपृष्ठों में गंग राजवंश के संदर्भ में देखा था कि स्वयं जैन आचार्य ने युद्ध में पीठ न दिखाने का निर्देश दिया है अर्थात् युद्ध भूमि में मान-सम्मान की रक्षा में प्राणोत्सर्ग करना इस अहिंसावादी धर्म में भी पुण्य का कार्य था। जैन धर्मावलम्बी नरेशों एवं व्यक्तियों ने उत्साहपूर्वक इस कार्य को सम्पन्न किया। महाराज खारवेल ने दमित या दिमित को अपनी राज्य सीमा से मार भगाया था। इसे हिन्द-यवन नरेश डिमेट्रियस से समीकृत किया गया है। यदि यह समीकरण नहीं है तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि खारवेल ने गार्गी संहिता में वर्णित यवनों के भयावह आक्रमण से मुक्ति दिलायी थी। यही नहीं, मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में गौप्तीपुत्र इन्द्रपाल को प्रोस्थ के सम्भवतः पहलवी एवं शकों के लिए काला नाग (पोङ्गयशयक कालवालस) बताया गया है। सम्भवतः इस वीर सैनिक ने प्रोस्थकों एवं शकों से कड़ा संघर्ष किया था । १८
इसी प्रकार जैन अभिलेख विदेशियों के भारतीयकरण की प्रक्रिया के जीवन्त साक्ष्य हैं। यहाँ पर शासन करने वालो विदेशियों में भारतीय धर्मों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व से ही प्रारम्भ हो चुकी थी जिसके स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त होते हैं। गरुड़ध्वज अभिलेख से स्पष्ट है कि यवन हेलियोडोरस ने भागवत धर्म के प्रति अपनी अभिरुचि प्रदर्शित की थी। इसी प्रकार हिन्द- भवन नरेशों के मुद्रा
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साक्ष्य एवं बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्दप्रश्न से गहरी रुचि रखता था । ठीक इसी तरह मथुरा से प्राप्त जैन अभिलेखों एवं शकों एवं यवनों द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने की प्रवृत्ति का पता चलता है। एक आयागपट पर उत्कीर्ण लेख से स्पष्ट है कि इसतिका, ओरवा, ओटवारिका नाम की स्त्रियों ने जैन धर्म के प्रति भक्ति-भाव का प्रदर्शन किया था। ये नाम प्रचलित भारतीय नामों से इतर हैं जिसके आधार पर अधिकांश इतिहासकारों ने इन्हें सीथियन माना है । १९
जैन अभिलेख पारस्परिक सौहार्द एवं सद्भाव का ज्वलन्त उदाहरण पेश करते हैं। मुस्लिम धर्म के प्रभावी होने अर्थात् १३वीं शताब्दी के पहले प्रायः प्रत्येक भारतीय नरेश धार्मिक सहिष्णुता के प्रतिमान पर खरा उतरा है और इसकी पुष्टि जैन अभिलेखों से होती है। भारतीय नरेशों (उनका व्यक्तिगत धर्म या विश्वास कुछ भी रहा हो) का सभी धर्मों के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय योगदान था ओर वे किसी विशिष्ट धर्म की प्रगति में बाधक नहीं बने। उदाहरणार्थ अधिकांश गुप्त सम्राट भागवत धर्मावलम्बी थे लेकिन उनके काल में जैन धर्म सदैव प्रगति के पथ पर अग्रसर रहा। महाराज हर्ष की सत्ता - समाप्ति के पश्चात् राजपूत युग प्रारम्भ होता है। हमें यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि प्रायः प्रत्येक राजपूत राजा ने जैन धर्म के विकास में अपना सक्रिय योगदान दिया। इन राजवंशों में चाहे उत्तर भारत के गुर्जर-प्रतिहार, परमार, चन्देल, गहड़वाल, चाहमान, चापोत्कट, सोलंकी या चौलुक्य रहें हो अथवा दक्षिण भारत के पल्लव, राष्ट्रकूट, चोल, चालुक्य, होयसल - सभी के अधिकांश अभिलेखों में जैन बसदि एवं मंदिरों को दान देने का उल्लेख प्राप्त होता है । चोल राजवंश शैव धर्मावलम्बी थे उनके सैकड़ों अभिलेखों में जैन धर्म के प्रति उदारता दिखायी देती है। जैन आचार्य भी अपने उच्च विचार एवं आदर्श जीवन के कारण नरेशों के कृपा पात्र रहे। वास्तव में, जैन अभिलेखों में भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतिमान दिखायी देता है। इस संदर्भ में नाडोल शाखा के चाहमान राजवंश के राजपुत्र कीर्तिपाल का अभिलेख अत्यन्त प्रासंगिक है। कीर्तिपाल आल्हणदेव का पुत्र था। युवराज ने सूर्य एवं शिव की उपासना के उपरान्त महावीर के जिन मन्दिर को १२ गाँव दान में दिया था। इसी अभिलेख में ब्रह्मा, श्रीधर (विष्णु) तथा शिव के साथ जिन की वन्दना की गई है क्योंकि ये सभी राग से परे हैं
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जैन अभिलेखों का वैशिष्ट्य : 29
श्रियै
भवन्तु वो देवा, ब्रह्म श्रीधरशंकरः ।
सदा वीरागवन्तो ये जिना जगति विश्रुताः । । २०
महाराज आल्हणदेव भी धर्मसहिष्णु नरेश थे। नाडोल से प्राप्त एक अभिलेख में महाराज द्वारा सूर्य एवं ईषाण (शिव) की पूजा के उपरान्त ब्राह्मणों एवं गुरुओं के एक जिन मन्दिर को प्रतिमाह पाँच द्रम्म देने का आदेश है । २१ स्पष्टतः जैन अभिलेख भारतीय धर्म के मूलगुण साहिष्णुता को पूरी निष्ठा के साथ व्यक्त करते हैं तथा सामाजिक कल्याण की भावना से ओत-प्रोत हैं। सरस्वती की मूर्ति प्रतिष्ठापना के समय किसी सम्प्रदाय विशेष का नाम लिए बिना सब लोगों के कल्याण की कामना की गई है। सबको कल्याण की कामना से बढ़कर सामाजिक आदर्श की स्थिति और क्या हो सकती है। २२
प्राचीनतम अभिलेख के प्रतिनिधि : जैन अभिलेख सम्भवतः प्राचीनतम भारतीय अभिलेख का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजस्थान के अजमेर जिले के बालग्राम के भिलोट माता मंदिर से प्राप्त अभिलेख विचारणीय हैं २३
वीर (१) य भगव (ते)
.चतुरासिति व (से)
ये सा (लि) मालिनि......
.. रं नि (वि), माझिमिके.......
इस अभिलेख के प्रथम पंक्ति में 'वीराय भगवते' है जिसका समीकरण वीर भगवान अर्थात् महावीर से किया गया है। इसके व्यंजनों पर लगी हुई मात्राओं के आधार पर पुराविदों ने इसे काफी प्राचीन माना है। प्रसिद्ध पुराविद आर०आर० हैल्दर का मानना है कि बड़ी ई की मात्रा न तो अशोक के अभिलेखों में है और न कालान्तर के अभिलेखों में प्राप्त होती है। महावीर की परम्परागत तिथि ५२७ ईसा पूर्व है, जबकि कुछ आधुनिक विद्वान विभिन्न स्रोतों के आधार पर उनकी निर्वाण तिथि ४८६ ई० पू० सिद्ध करते हैं। संदर्भों के आधार पर यदि इस अभिलेख को हम महावीर निर्वाण के ८४ वर्ष अनन्तर उत्कीर्ण मानें तो इसका समय पाँचवी शताब्दी ई०पू० का अन्तिम काल अथवा चतुर्थ शताब्दी ई० पू० का प्रारम्भिक काल निर्मित होता है। इससे यह प्राचीनतर सिद्ध होगा । २४
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30 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2014
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन अभिलेख भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के जीवन्त स्रोत हैं। ये न केवल मूलस्रोत के रूप में ऐतिहासिक सत्यों को उद्घाटित करने में समर्थ हैं, अपितु साहित्यिक स्रोतों के पूरक साक्ष्य के रूप में इतिहास-लेखन में अत्यन्त सहायक हैं।
संदर्भ :
१.
Po
४.
५.
६.
७.
८.
نه
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
एपिग्राफिया इण्डिका, भाग २०, पृ० ६६ एवं आगे “नुडिदुदनारोलं नुडिदु तप्पिदोडं जिनशासनक्कोडम् । बडदडमन्य नारिगेरेदट्टिदंडं मधुमांस सेवे गेय ।। दडमकुलीनरप्पवर कोलकोडेयादोडमर्थिगर्थमम् । कुडदोडमोहवाङ्गणदोलोडिदंड किडुगुं कुर्लाक्रमम् ।।"
जैन शिलालेख संग्रह, सम्पा० विजयमूर्ति, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बाम्बे, १९५२, भाग द्वितीय, पृ० ४१३
वही भाग प्रथम, सम्पा० हीरालाल जैन, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, मुम्बई १९२८, पृ० १२३ एवं आगे
-
वही भाग प्रथम, पृ० १२३
"
वही भाग पंचम, पृ० ४
•
विस्तार के लिए देंखे :- स्किज्म इन जैन संघ, अरुण प्रताप सिंह, भारती, प्रा० भा० इति० एवं पुरा० विभाग, बी०एच०यू० वाराणसी, भाग ३५, पृ० ४३-४९ इण्डियन एण्टिक्वेरी, भाग ७, पृ० ३७-३८
कल्पसूत्र, ६ प्राकृत भारती अकादमी, राजस्थान, द्वितीय संस्करण, १९८४ पृ० २८७ - ३०४; विस्तार के लिए देखें- जैन रिलिजन एण्ड रायल डायनस्टीज आफ नार्थ इण्डिया, भाग प्रथम, अरुण प्रताप सिंह, बी० एल० मीडिया सोल्यूसंस, नई दिल्ली, २०१० पृ० ७०-७३
ए लिस्ट आफ ब्राह्मी इन्सिक्रिप्शंस, बर्लिन, एच० ल्यूडर्स, इण्डोलोजिकल बुक हाउस, वाराणसी, १९७३, संख्या ४२, ५८, ११६ आदि ।
वही, सं० १७, २०, २२ आदि
वही, सं० २१, ७६ आदि
वही, सं० २४
वही, सं० १०१
एपिग्राफिया इण्डिका, भाग- द्वितीय, पृ० २०४, ल्यूडर्स, सं० ४७
"This shows that by the middle of the second centruy A.D., this stupa has become so ancient that the facts about its origin were
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जैन अभिलेखों का वैशिष्टय : 31 completely forgotten by the people and its construction came to be ascribed to the gods”. - जैन आर्ट एण्ड आर्किटेक्चर (सम्पा० अमलानन्द घोष, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, १९७४) एपिग्राफिया इण्डिका, भाग द्वितीय, पृ० १९५ "It is highly significant that, unlike most of the early Jaina devotees mentioned in the Mathura insciptions, this person was a kshatriya nobleman. Like Kharvela of Kaliga, he was a voliant soldier, but his martial zeal did not prevent him from falling in love with a religious system in which Non-violence is not cowardice and the example of gotiputra shows that a person believing in non violence could, for the sake of his mother land, convrnt himself into a much sterner stuff". - काम्प्रेहेसिव हिस्ट्री आफ जैनिज्म (ए०के० चटर्जी, फर्मा के एल०एम० लिमिटेड, कलकत्ता, १९८४) भाग प्रथम, पृ०५० उद्धृत संदर्भ सं० २३८, हिस्ट्री ऑफ जैनिज्म विथ स्पेशल रिफरेंस, टू मथुरा (वी०के० शर्मा, डी०के० प्रिंट वर्ल्ड, नई दिल्ली, २००१) पृ० १४९ एपिग्रेफिया इण्डिका, भाग-नवम्, पृ०६६-७०
जैन रिलिजन एण्ड रायल डायनिस्टीज ऑफ नार्थ इण्डिया, भाग-प्रथम, पृ० ६९-७० इण्डियन एण्टिक्वेरी, भाग ५८, पृ० २२९; जैन शिलालेख संग्रह, भाग-चतुर्थ,
२०.
पृ० १
From the paleographic point of view, the sign of e.g. in viraya is worthy of note. Its form is unique and it seems to belong to a period anterior to that of the inscriptions of Ashok. Infact such a form is neither found in the inscriptions of Ashok nor in the inscriptiions of later period." वही पृ० २२९
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जैन कला एवं परम्परा में बाहुबली: आदर्श एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि
डॉ० शान्ति स्वरूप सिन्हा
जैन परम्परा में बाहुबली साधना एवं त्याग के प्रतीक के रूप में पूज्य हैं। तीर्थंकरों के पश्चात् जैन परम्परा एवं कला में बाहुबली को ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। उनका चरित्र इस तथ्य को प्रतिष्ठापित करता है कि त्याग, साधना, अपरिगह ही यश का मूल है, सम्पत्ति कालक्रम में नष्ट हो जाने वाली है जबकि यश सदैव स्थिर रहने वाला है। इस लेख में बाहुबली के साहित्यिक उल्लेख और अंकन में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में साम्य और भेद को भी रेखाङ्कित किया गया है। बाहुबली के साहित्यिक विवरण और कलात्मक अभिव्यक्ति के तुलनात्मक विवेचन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के आदर्श एवं यथार्थ को प्रस्तुत करना इस लेख का अभीष्ट है।
___ -सम्पादक भारतीय संस्कृति का मूल आधार आदर्श एवं नैतिकता रही है। मर्यादा की डोर से बँधा जीवन ही समाज द्वारा मान्य किया जाता है और वही नीति है। वस्तुतः नैतिकता उन सामाजिक नियमों एवं आदर्शों के समुच्चय को कहा जाता है जो मनुष्य के व्यवहार एवं आचरण को नियंत्रित एवं नियमित करे और जिससे समाज में व्यवस्था एवं सन्तुलन बना रहे। प्राचीन भारतीय कला एवं परम्परा में आदर्शों को स्थापित करने के निमित्त अनेक आख्यानों एवं स्वरूपों की कल्पना की गयी, जो वर्तमान में यथार्थ के पथ-प्रदर्शक प्रतिमान के रूप में हमारे समान उपस्थित है। जैन परम्परा भी भारतीय संस्कृति की अभिन्न अंग रही है और इस परम्परा में भी भारतीय परम्परा के आदर्श की स्थापना के अनेक आख्यान उपलब्ध हैं। जैन कला एवं परम्परा में बाहुबली को आदर्श के प्रतिमान के रूप में कला एवं साहित्य दोनों स्तरों पर प्रतिष्ठित किया गया है। प्रस्तुत लेख में बाहुबली के साहित्यिक उल्लेख और कलात्मक अभिव्यक्ति के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के आदर्श एवं यथार्थ को रेखांकित करना हमारा अभीष्ट है। जैन परम्परा में तीर्थंकरों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है और उन्हें देवाधिदेव माना गया है। तीर्थंकरों के पश्चात् जैन परम्परा एवं कला में बाहुबली को ही
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जैन कला एवं परम्परा मे बाहुबली: आदर्श एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि : 33 सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। साधना, अपरिग्रह और अहिंसा का श्रेयस मार्ग जैन परम्परा एवं कला में सर्वदा दृढ़ता से व्यक्त हुआ है। इसी कारण तीर्थंकर न होते हुए भी गहनतम साधना और त्याग के प्रतीक के रूप में बाहुबली पूजित हुए तथा उन्हें तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गयी। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि विशालतम प्राचीन जैन मूर्ति भी किसी तीर्थंकर के स्थान पर गोम्मटेश्वर बाहुबली (५७ फीट) की बनी, जो श्रवणबेलगोल (कर्नाटक, ९८३ ई०) में है
और गोम्मटेश्वर बाहुबली के नाम से विख्यात है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ एवं सुनन्दा के पुत्र बाहुबली को दक्षिण भारतीय परम्परा में 'गोम्मट या गोम्मटेश्वर' नाम से जाना जाता है। कारकल (कर्नाटक) की बाहबली के मर्ति-लेख में इन्हें गोम्मट जिनपति तक कहा गया है। अग्रज भरत चक्रवर्ती पर विजय के अन्तिम क्षणों में सर्वस्व त्यागने का निर्णय लेकर साधना के मार्ग पर चलने वाले बाहुबली ने जो आदर्श स्थापित किया उसी कारण जैन कला परम्परा में श्रद्धा को शीर्षस्थ स्थान प्रदान किया गया। श्वेताम्बर तथा दिगम्बर परम्परा के विभिन्न ग्रन्थों में बाहुबली के जीवन एवं तपश्चर्या के विस्तृत उल्लेख उपलब्ध हैं। यद्यपि प्रारम्भिक उल्लेख तीसरी शती ई० के विमलसूरि कृत पउमचरियं में है तथापि बाहुबली की मूर्तियों का उत्कीर्णन छठी-सातवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ, जिसके उदाहरण कर्नाटक में बादामी और अयहोल से मिल हैं। पउमचरियं के बाद वसुदेवहिण्डी (छठी शती ई०), पद्मपुराण (सातवीं शती ई०), हरिवंशपुराण (आठवीं शती ई०), चउपन्नमहापुरुषचरिय (८६८ ई०), आदिपुराण (नवीं शती ई०) एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (१२वीं शती ई०) जैसे ग्रन्थों में बाहुबली से सम्बन्धित विस्तृत उल्लेख प्राप्त होते हैं। ऋषभनाथ के सौ पुत्रों और दो पुत्रियों में भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े थे। ऋषभनाथ के दीक्षा ग्रहण करने के बाद राज्य पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए भरत और बाहुबली के मध्य युद्ध हुआ। युद्ध की विभीषिका और उसमें होने वाले नरसंहार की पूर्वकल्पना करते हुए बाहुबली ने सेनाओं के युद्ध के स्थान पर भरत से शस्त्रविहीन द्वन्द्व युद्ध का प्रस्ताव किया, इसे भरत ने भी स्वीकार कर लिया। इस द्वन्द्व युद्ध में भरत हर सम्भव यत्न के बाद भी बाहुबली पर नियन्त्रण नहीं कर सके। तब निराशा में उन्होंने अपने वचन से विमुख होकर देवताओं से प्राप्त काल-चक्र से बाहुबली पर प्रहार किया। भारत की
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34 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 राज्य लिप्सा और उसके कारण वचन से विमुख होने की इस घटना से बाहुबली अत्यन्त दुःखी हुए। उन्होंने तत्क्षण राज्य त्यागकर दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय किया। अपने इस निर्णय के बाद बाहुबली ने वस्त्राभूषणों का त्यागकर केशों का लुंचन किया और जैन धर्म में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करने के बाद बाहुबली ने कठिन तपस्या की और पूरे एक वर्ष तक कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहे। ज्ञातव्य है कि कायोत्सर्ग-मुद्रा साधना की कठिन मुद्रा है और सभी जैन तीर्थंकरों ने इसी मुद्रा में तपस्या की थी। यहां यह उल्लेख भी प्रासंगिक होगा कि बाहुबली की मूर्तियां केवल कायोत्सर्गमुद्रा में ही निरूपित हुई हैं। एक वर्ष की तपस्या के बाद बाहुबली को कैवल्य प्राप्त हुआ। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दर्प के कारण बाहुबली कुछ समय तक कैवल्यप्राप्ति से वंचित रहे। ऋषभनाथ बाहुबली के दर्प की बात को जानते थे, इसी कारण उन्होंने बाहुबली का दर्द दूर करने के लिए उनकी दोनों बहनों ब्राह्मी और सुन्दरी को उनके पास भेजा। दर्प से मुक्त होने के बाद ही बाहुबली केवल ज्ञान प्राप्त कर सके। श्वेताम्बर स्थलों की मूर्तियों में परम्परा के अनुरूप बाहुबली के पार्श्व में साध्वी वेश में ब्राह्मी और सुन्दरी की आकृतियों का अंकन और दर्प के प्रतीक के रूप में गज का अंकन देखा जा सकता है। जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार ध्यानस्थ बाहुबली के शरीर से लिपटी माधवी की लताओं को विद्यापरियों ने हटाया था। दिगम्बर ग्रन्थों में बाहुबली की बहनों ब्राह्मी और सुन्दरी की उपस्थिति का सन्दर्भ नहीं मिलता है। ग्रन्थों के आधार पर दिगम्बर स्थलों की मूर्तियों में बाहुबली के दोनो पार्थों की सर्वागंसुन्दरी स्त्री आकृतियों की पहचान ब्राह्मी और सुन्दरी के स्थान पर विद्याधरियों से की गयी है। एक वर्ष की कठिन तपस्या की अवधि में बाहुबली शीत सूर्य, ताप, वर्षा, वायु
और बिजली की कड़क को शांतभाव से सहते रहे। आदिपुराण के अनुसार नग्नवेश में बाहुबली एक वर्ष की कठिन तपस्या में परिग्रह रहित होकर अत्यन्त शान्त थे। दिगम्बर व्रत को धारण करते हुए बाहुबली कषाय से भेदन नहीं किये जा सकते थे। आगे उल्लेख है कि बाहुबली के इस प्रकार तप कर्म से पूरे वन में शान्ति व्याप्त हो गयी और हिंसक पशु हिंसा का त्याग कर शांत हो गये अर्थात् महापुरुष के समागम से क्रूर से क्रूर जीव में अहिंसा का भाव व्याप्त हो जाता है। इस प्रसंग में उल्लेख है कि बाहुबली का सम्पूर्ण शरीर लता
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जैन कला एवं परम्परा मे बाहुबली: आदर्श एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि : 35 वल्लरियों से घिर गया, जिसमें विभिन्न पक्षियों ने अपने घोसले बना दिए थे। उनके चरण वर्षा के कीचड़ में फंस गये थे। सर्प उनके शरीर से लटक रहे थे, ये सर्प उनके हजार भुजाओं वाले होने का आभास देते थे। वाल्मीक से ऊपर उठते सर्प चरण के समीप नूपुर की तरह बँधे थे। शरीर पर वृश्चिक एवं छिपकली जैसे जन्तु निश्चिन्त भाव से विचरण कर रहे थे। इस प्रकार बाहुबली के शरीर पर लता-वल्लरियों का लिपट जाना और शरीर के विभिन्न भागों पर सर्प, वृश्चिक, छिपकली आदि का प्रदर्शन तथा ध्यान-निमग्न बाहुबली का इन सबसे अप्रभावित रहना, उनकी तपस्या की गहनता को व्यक्त करता है। आदिपुराण में इस दृढ़ तपस्या के मूल में आदर्श की स्थापना के रूप में ज्ञान की प्राप्ति का उल्लेख इसे और सारगर्भित बनाता है। साथ ही यह सन्दर्भ मनुष्य और पर्यावरण के पारस्परिक अस्तिव का भी प्रतीक है। बाहुबली की कठिन तपश्चर्या के कारण ही कला में उन्हे तीर्थकारों के समान प्रतिष्ठ प्रदान की गयी। इस सन्दर्भ को और व्याख्यायित करते हुए आदिपुराण में अहिंसा भाव की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि अहिंसा की शुद्धि उनसे ही होती है जो परिग्रहरहित
और दयालु होते है। त्याग, साधना, अपरिग्रह ही यश का मूल है, सम्पत्ति कालक्रम में नष्ट हो जाने वाली है जबकि यश सदैव स्थिर रहने वाला है। उपर्युक्त पारम्परिक पृष्ठभूमि के आधार पर ही विभिनन क्षेत्रों में छठी-सातवीं शती ई० से १९ वीं शती ई० के मध्य बाहुबली की अनेक मूर्तियां बनीं, दोनों ही परम्पराओं की मूर्तियों में बाहुबली को कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है। श्वेताम्बर स्थलों पर बाहुबली अधोवस्त्र युक्त है जबकि दिगम्बर स्थलों पर निर्वस्त्र हैं। श्वेताम्बर परम्परा की बाहुबली मूर्तियाँ दिगम्बर परम्परा की तुलना में अत्यल्प हैं। १४ वीं शती ई० की एक श्वेताम्बर मूर्ति गुजरात की पहाड़ी पर है। १५वीं शती ई० की एक श्वेताम्बर मूर्ति गुजरात की जय पहाड़ी पर है। १५वीं शती ई० की एक मूर्ति जैसलमेर से भी मिली है। ऋषभनाथ के जीवन दृश्यों के अंकन के प्रसंग में भी कुछ श्वेताम्बर स्थलों पर भरत-बाहुबली युद्ध और बाहुबली की कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़ी मूर्तियां बनी। इनमें गुजरात में कुम्भारिया स्थित शान्तिनाथ एवं महावीर मन्दिरों (११वीं शती ई०) तथा राजस्थान स्थित विमलवसही (लगभग ११५० ई०) के वितानों की आकृतियां मुख्य हैं। इन उदाहरणों में श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही बाहुबली के दोनों ओर नमस्कार मुद्रा में ब्राह्मी एवं सुन्दरी की आकृतियां भी निरूपित हैं।
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36 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 दिगम्बर स्थलों पर छठी-सातवीं शती ई० में ही बाहुबली का निरूपण प्रारंभ हो गया जिसके उदाहरण बादामी और अयहोल में है। बादामी की मूर्ति में बाहुबली निर्वस्त्र और कार्योत्सर्ग-मुद्रा में पद्म पर खड़े हैं। केश पीछे की ओर संवारे गये हैं। हाथों और पैरों में माधवी लिपटी है। तपस्यारत बाहुबली के समीप ही वाल्मीक निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग-मद्रा में पद्म पर खड़े हैं। केश पीछे की ओर संवारे गये हैं। हाथों और पैरों में माधवी लिपटी है। तपस्यारत बाहुबली के समीप ही वाल्मीक से निकलते दो सर्पो को दिखलाया गया है। समीप ही दो पुरुषों और दो उपासकों की आकृतियाँ भी बनी हैं। अयहोल के उदाहरण में भी लगभग यही लक्षण द्रष्टव्य हैं। इसमें बाहुबली के दोनों पार्थों में सर्वाभूषित दो स्त्री आकृतियाँ बनीं हैं, जो विद्यारियों की आकृतियां हैं। दिगम्बर स्थलों पर इनका नियमित अंकन हुआ है। अयहोल की मूर्ति में ऊपर की ओर वृक्ष और उड्डीयमान गन्धर्व आदि का अंकन हुआ है। बाहुबली की केश रचना जटा के रूप में प्रदर्शित है और कुछ लटें कन्धों पर भी फैली हैं। बाहुबली की मुखाकृति
और अर्ध-निमीलित नेत्र उनकी चिन्तनशील मुद्रा को अभिव्यक्त करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि दिगम्बर शिल्प परम्परा में सातवीं शती ई० तक बाहुबली की लाक्षणिक विशेषताएं नियत हो गयी थीं। परवर्ती काल की मूर्तियों में इन्हीं में कुछ विकास दृष्टिगत होता है। इनमें लता वल्लरियों के साथ बाहुबली के शरीर पर सर्प, वृश्चिक, छिपकली आदि का अंकन हुआ है। बाहुबली की दिगम्बर परम्परा की अन्य मूर्तियाँ एलोरा (लगभग २० की संख्या में), कर्नाटक (प्रिसं ऑफ वेल्स संग्रहालय, मुम्बई, कास्य, नवीं शती ई०), श्रवणबेलगोल (९८३ ई०), कारकल-वेणूर (१४वीं-१६वीं शती ई०), प्रभास (जूनागढ़ संग्राहलय), देवगढ़ खजुराहो (पार्श्वनाथ मन्दिर, १९५०-७० ई०), विल्लहरी (जबलपुर, म० प्र० ११वीं शती ई०), मथुरा (शासकीय संग्रहालय, लखनऊ, क्रमांक सं० ९४०, १०वीं शती ई०) सिरोनखुर्द (ललितपुर, उ० प्र०, ११वीं शती ई०), चन्देरी (ललितपुर, १६वीं शती ई०) एवं १४वीं-१५वीं शती ई० की ग्वालियर (उ०प्र०) स्थित जैन गुफा की मूर्तियां इसकी उदाहरण हैं। एलोरा, श्रवणबेलगोल, कारकल, वेणूर की मूर्तियों में समीप ही वाल्मीक से निकलते सर्पो का उकेरन हुआ है। ये विशेषताएं बाहुबली की गहन साधना के भाव को मूर्तमान करती हैं। श्रवणबेलगोल की ५७ फीट ऊंची गोम्मटेश्वर बाहुबली की महाप्रमाण शैलोत्कीर्ण मूर्ति गहन साधना और त्याग की जीवन्त प्रतीक है। यह मूर्ति जैनकला के साथ ही भारतीय कला का अप्रतिम उदाहरण भी है।
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जैन कला एवं परम्परा मे बाहुबली: आदर्श एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि : 37 खजुराहो एवं देवगढ़ की नवीं से तेरहवीं शती ई० के मध्य की मूर्तियों में बाहुबली के साथ कई नवीन और परम्परा में सर्वथा अवर्णित विशेषताएं देखने को मिलती हैं। इनमें बाहुबली को तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान करने का भाव स्पष्ट देखा जा सकता है। ज्ञातव्य है कि तीर्थंकरों को जैन देवकुल में सर्वाधिक महत्ता प्राप्त है जिन्हें देवाधिदेव भी कहा गया है। अतः जब भी जैन देवपरिवार के किसी देवता की प्रतिष्ठा में वृद्धि की गयी तो उन्हें तीर्थंकरों के निकट लाने का प्रयास किया गया। देवगढ़ में लगभग नवीं शती ई० से तेरहवीं शती ई० के मध्य की लगभग छः बाहुबली मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। देवगढ़ की बाहुबली मूर्तियां उत्तर भारत की बाहुबली मूर्तियों में संख्या और लक्षण दोनों ही दृष्टियों से विशिष्ट हैं। इनमें बाहुबली कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं और उनके शरीर से लता-वल्लरियां लिपटी हुई हैं। देवगढ़ से प्राप्त मूर्तियों में बाहुबली के साथ चामरधारी सेवकों, सिंहासन, त्रिछत्र, प्रभामण्डल, देवदुन्दुभि जैसे प्रातिहार्यों का अंकन इस बात का संकेत देता है कि तीर्थकर न होते हुए भी गहन साधना और त्याग की प्रतिमूर्ति बाहुबली को तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठा मिली, जिसकी पराकाष्ठा १२वीं-१३वीं शती ई० की मन्दिर संख्या ११ में सुरक्षित बाहबली मूर्ति में देखने को मिलती है। इसमें सामान्य प्रातिहार्यों के साथ ही बाहुबली के साथ तीर्थंकर मूर्तियों के समान पीठिका पर यक्ष-यक्षी का भी निरूपण हुआ है। यक्ष-यक्षी से युक्त बाहुबली मूर्ति का एक अन्य उदाहरण (१२वीं-१३वीं शती ई०) खजुराहो के साहू शान्ति प्रसाद जैन संग्रहालय में सुरक्षित है। इस प्रकार बाहुबली की मूर्तियों के सन्दर्भ में देवगढ़ में कई अभिनव प्रयोग हुए जो शास्त्र समर्थित न होते हुए भी शास्त्र विरुद्ध नहीं थे और जिनका उद्देश्य बाहुबली के माध्यम से मनुष्य मात्र के समक्ष सम्भवतः एक आदर्श प्रस्तुत करना था। यह सर्वथा सत्य है कि हर कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता क्योंकि वह पूर्व नियत है, पर बाहुबली जैसा साधक होकर कैवल्य और निर्वाण अवश्य प्राप्त कर सकता है। ज्ञातव्य है कि बाहुबली जैन परम्परा में इस पृथ्वी के पहले साधारण मनुष्य हैं, जिन्हें कैवल्य प्राप्त हुआ था। त्याग, साधना और अहिंसा जैसे आदर्श युक्त कठिन मार्ग पर चलकर केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले बाहुबली को जनमानस में तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठित किया गया। देवगढ़ के मन्दिर संख्या २ की एक मूर्ति में बाहुबली की दो तीर्थंकरों (शीतलनाथ एवं
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38 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 अभिनन्दन) के साथ त्रितीर्थी मूर्ति में अंकन किया गया है, जो पुनः बाहुबली की तीर्थंकर के समकक्ष प्रतिष्ठा का प्रतीक है। साथ ही एलोरा और देवगढ़ (मन्दिर संख्या २) की मूर्तियों में बाहुबली के चरणों के पास हाथ जोड़े भरत चक्रवर्ती का अंकन आध्यात्मिक सत्ता के चरणों में राजसत्ता के नमन का मार्मिक निरूपण है। आज के जीवन और व्यवहार में भी राजसत्ता के सामने आध्यात्मिक सत्ता की श्रेष्ठता को देखा जा सकता है। सन्दर्भ :
एम० एन० पी० तिवारी एवं एस०एस०सिन्हा, धार्मिक सामंजस्य का दर्पण खजुराहो का पार्श्वनाथ मन्दिर, जिन-ज्ञान, (सम्पा०) द्विवेदी एवं जैन, मुजफ्फरपुर २००७, पृ० २१४-२०" पउमचरियं, ४/५४-५५, हरिवंशपुराण, ११.९८-१०२, आदिपुराण, ३६.१०६१८५ एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, ५.७४०-७९८. आदिपुराण, ३६.१०६ लतां व्यवपनयन्तीभ्यां खेचरीभ्यां नमौ मुनि। हरिवंशपुराण, ११.१०१ विद्याधर्यः कदाचिच्च क्रीडाहेतोरूपागताः। वल्लीरूध्देष्टामासुः मुनेः सर्वांगसंगिनीः।। आदिपुराण, ३६.१८३ एम० एन० पी० तिवारी, खजुराहो का जैन पुरातत्त्व, खजुराहो, पृ० ६७-६९. नाग्न्यं नाम परं तपः ॥ आदिपुराण, ३६.११७ महिन्मा शमिनः शान्तमित्यभत्तश्च काननम्। धत्ते हि महतां योगः शममप्यशमात्मसु।। आदिपुराण, ३६.१७७ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, ५.७४०-९८, आदिपुराण ३६.१७१-७६ ज्ञानं हि तपसो मूलं यद्वन्मूलं महातरोः, आदिपुराण, ३६.१४८ एम०एन०पी० तिवारी एवं एस०एस० सिन्हा, जैन कला तीर्थः देवगढ़ वाराणसी, २००२, पृ० १०५-१०९ अहिंसाशुद्धिरेषां स्याद् ये निःसड्गा दयालवः। आदिपुराण, ३९.३० स्थायुक हि यशो लोके गत्वों ननु सम्पदः। आदिपुराण, ३६.११७
जैन कला तीर्थ देवगढ़, पृ० १०९ चित्र-सूची १. बाहुबली, गुफा सं० ४, बादामी ६०० ई० २. बाहुबली, जैन गुफा, अयहोल, सातवीं शती ई० का प्रारंभ ३. बाहुबली, मन्दिर सं० ११, देवगढ़ १२ वी शती ई०
१२.
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ملا
जैन कला एवं परम्परा मे बाहुबली: आदर्श एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि : 39 बाहुबली, त्रितीर्थी मूर्ति में सं०२, देवगढ़ ११ वीं शती ई० बाहुबली, (भरत अंजली बद्ध-मुद्रा में), जैन गुफा सं० ३२, एलोरा, नवी शती
کہ
ई०।
56. Tritirthi Jina image with Bahubali, Temple no.2,Deogarh,10th-11th cent. A.D
55. Bahubali Temple no.11. Deogarh (U.P],10th 11th cent. A.D.
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दलितोद्धारक आचार्य तुलसी-एक अन्तरावलोकन (प्रो० समणी कुसुम प्रज्ञा, जैन विश्वभारती, लाडनूं 2014, पृ. 172, आई0एस0बी0एन0 81-7195-245-3, मूल्य सत्तर रुपये मात्र।)
ओम प्रकाश सिंह तेरापन्थ धर्मसंघ के नवम आचार्य, अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी का व्यक्तित्त्व बहुआयामी था। वे एक प्रगतिशील और क्रान्तिकारी सन्त थे। उनका विचार था कि अस्पृश्यता जैसे कीटाणु का समाज से समूल नाश किये बिना मानव जाति का उत्थान सम्भव नहीं है। जातिवाद और अस्पृश्यता का विष जितना अधिक प्रभावी होगा मानव जाति की एकता को उतना ही बड़ा खतरा होगा। उनके विचार में धर्म और अध्यात्म का लक्ष्य तब तक नहीं पूरा होगा जब तक कि दलितों को राष्ट्र की मुख्यधारा में समाहित नहीं किया जायगा। इतना ही नहीं जब तक वे स्वयं आगे बढ़कर अपने चरित्र-निर्माण का प्रयास नहीं करेंगे, उनकी भौतिक उन्नति सार्थक और उपयोगी नहीं होगी। आचार्य के शब्दों में, ‘जीवन का सर्वतोन्मुखी विकास केवल सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की उपलब्धियों तक ही सीमित नहीं हो सकता। आज हरिजन अनेक सामाजिक और राजनीतिक उच्चपदों पर आसीन हैं, सरकार की ओर से उन्हें अनेक प्रकार की सुविधायें मिलती है, किन्तु जीवन-निर्माण के क्षेत्र में उन्होंने कितनी प्रगति की है, यह उनके लिए सोचने की बात है। केवल पद-प्राप्ति उत्थान नहीं है। स्पष्ट कहूँ तो चरित्र-सम्पन्नता के बिना उच्चपद जीवन के लिए भारभूत है।' इस पुस्तक की लेखिका आगम साहित्य विशेषतः आगमिक व्याख्या साहित्य के सम्पादन एवं अनुवाद के क्षेत्र में महान योगदान करने वाली विदुषी समणी डॉ० कुसुम प्रज्ञा जी ने आचार्य श्री तुलसी द्वारा दलितों के उत्थान की दिशा में किये गये प्रयासों एवं तद्विषयक विचारों को कृति में व्यवस्थित रूप से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। चालीस शीर्षकों के अन्तर्गत वर्णव्यवस्था, जाति
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दलितोद्धारक आचार्य तुलसी एक अन्तरावलोकन : 41 व्यवस्था, अस्पृश्यता और दलित वर्ग की सामान्य पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए जातिवाद के कारण, जातिवाद की अततात्त्विकता, दलितों की सामाजिक स्थिति, अस्पृश्यता निवारण के विविध आन्दोलन, संविधान में अस्पृश्यता निषेध का प्रावधान जैसे विषयों का विवेचन किया है। सामाजिक सुधार पर अणुव्रत आन्दोलन का प्रभाव, अणुव्रत आन्दोलन के कार्यकर्ताओं का जातिवाद और अस्पृश्यता निवारण हेतु प्रयास पर प्रकाश डाला गया है। साथ ही आचार्य श्री के उपदेश और प्रेरणा से तथा स्वयं उनके द्वारा इस दिशा में किये गये कार्यों का व्यवस्थित विवरण इस पुस्तक में उपलब्ध है। आचार्य श्री तुलसी द्वारा हरिजन मोहल्लों में उपदेश, हरिजन सभा में प्रवचन, सार्वजनिक प्रवचन, जातिवाद के विरोध में पुस्तिका लेखन, दलित वर्ग के मकानों में प्रवास, हरिजन स्कूल में प्रवचन आदि कार्य किये गये। साथ ही उनके उत्थान के लिए व्यसन-मुक्ति, जूठन न खाने की प्रेरणा, भारतीय संस्कार-निर्माण समिति का गठन, हरिजन महिला का वर्षी तप पारणा, मन्दिर में हरिजनों का प्रवेश जैसे व्यावहारिक प्रयास आचार्य श्री द्वारा किये गये। आचार्य श्री के मत में अस्पृश्यता और जातिवाद से होने वाली हानियों को संक्षेप में निम्न बिन्दुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है1. जाति व्यवस्था के कारण शूद्र और दलित वर्ग में होने वाली प्रतिभाओं का तिरस्कार और उपेक्षा हो जाती थी। उच्च कुल वाले प्रतिभाहीन व्यक्ति भी पैसे के बल पर सम्मान प्राप्त कर लेते थे।
2. प्रजातंत्र समानता, स्वतंत्रता, न्याय आदि गुणों पर आधारित है लेकिन जातिवाद में शोषण, असमानता आदि बुराइयाँ चलती हैं अतः जातिवाद प्रजातंत्र के लिए भी खतरा है। 3. हिन्दू समाज का संगठन जातिप्रथा के कारण कमजोर और जर्जरित हुआ है। अनेक हरिजन धर्मान्तरण करके मुस्लिम या ईसाई समाज के अंग बन गए।
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42 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2014
4. जातिवाद से समाज में सौहार्द और सद्भावना समाप्त हो जाती है। विभिन्न जातियों के बीच द्वेष, कटुता, संघर्ष और वैमनस्य के भाव पनपने से राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है।
वर्तमान में जाति के आधार पर आरक्षण के माध्यम से नौकरियों में नियुक्ति होने के कारण अयोग्य व्यक्ति प्रशासनिक सेवा और राज्यसत्ता में आ जाते हैं। इससे योग्य और कुशल प्रतिभाओं को काम करने का मौका नहीं मिलता।
अस्पृश्यता और जातिवाद के कारण खोखली होती जा रही समाज की नींव को पुनः सुदृढ़ बनाने के लिए सबमें जागरूकता का संचार तथा सामूहिक प्रयास की सघन अपेक्षा है। यद्यपि प्राचीन काल से चली आ रही जाति-व्यवस्था को मिटाना इतना सरल कार्य नहीं है लेकिन फिर भी इसको जड़मूल से उखाड़ने के लिए निम्न प्रयत्न किए जा सकते हैं -
* नाम के आगे किसी भी जाति विशेष का प्रयोग न किया जाए।
* कुछ ऐसे राष्ट्रीय उत्सव आयोजित हों, जिसे सब जाति के लोग मिलकर मनाएँ और आनन्द का अनुभव करें।
* कुछ ऐसे सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन सामने आएँ, जिसमें सभी जाति के लोग सदस्य बन सकें । जाति के आधार पर होने वाले संगठनों को प्रश्रय न दिया जाए।
* जाति के आधार पर वोट न देने का जनमत तैयार किया जाए ।
आचार्य तुलसी की दृष्टि में जातिवाद को समूल नष्ट करने के निम्न उपाय थे* शिक्षा का व्यापक प्रचार ।
* घृणा के संस्कारों को निरस्त कर मानव-मानव में एकत्व की अनुभूति कराना । * मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा करना ।
* मानव मात्र के प्रति भातृभाव और सौहार्द का वातावरण निर्मित करना।
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दलितोद्धारक आचार्य तुलसी एक अन्तरावलोकन : 43 आचार्य तुलसी दलितवर्ग को दया का पात्र नहीं मानते थे, वे उन्हें शक्तिसम्पन्न बनाना चाहते थे। आचार्य तुलसी का दृढ़ विश्वास था कि जब व्यक्ति के भीतर आध्यात्मिक दृष्टि और भाईचारे का भाव उत्पन्न होगा तो स्वतः यह अंध परम्परा समाप्त हो जाएगी। तुलसी शताब्दी के अवसर पर अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से समाज में समानता और समता का वातावरण बनाया जा सकेगा। अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए आचार्य तुलसी द्वारा किए गए प्रयासों से हम प्रेरणा पाकर उसके प्रकाश में एक स्वस्थ समाज की परिकल्पना कर सकते हैं। पुस्तक इस समाज एवं राष्ट्र के निर्माण के लिए आवश्यक दलित उद्धार के लिए किये गये कार्यों एवं आचार्य के सुझावों को सुन्दर रूप से प्रस्तुत करती है।
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Panegyric (Prasasti) literature
Dr. Ashok Kumar Singh
Praśasti or Panegyric, written in poetic style, deals with the historical personages and is very useful for the reconstruction of history. In Brahmaņa texts and Upanişadas, songs in praise of men (gāthā Nārasimhi) are frequently mentioned, pertaining to the dānastutis of Ķgveda and kuntapa hymns of Atharvaveda. These are precursors of heroic episodes in the epics as they depict glorious deeds of the warriors and princes. M. Winternitz mentioned that these gāthās developed into epic poems at considerable length, centering on any hero or great event. (History of Indian Literature, Vol. I. p. 314). Then, comes the praśastis inscribed in Gupta Age Inscriptions, belonging to Samudragupta, Skandagupta etc. The Samudragupta praśasti of Harişeņa on Allahabad Pillar (375-390 AD) and Girnar Inscriptions of Skandagupta (AD 456) etc. may be treated as the specimens of this stage. The specimens of the court poetry, cultivated under the patronage of kings or ministers are also available. This practice of composing praśastis continued up to the most recent times, to commemorate the buildings of monuments etc. Besides, these panegyrics, colophons of works- classified by Muni Jinavijaya into two sections: (1) colophons of texts (grantha prasasti), and (2) colophons of manuscripts (hastaprata prasasti) - are also available. The author of the text mentions in the concluding verses the tradition of their Guru, i.e. the mention of their sect, gaccha, lineage (kula), gana, śākhā etc. These colophons also mention the year, date and place of composition. In some cases, it also incorporates the name of ruling king or some officer or some other historical fact.
As regards the size of colophons of texts, it ranges from 2-3 to 100-125 verses. These colophons are of great historical importance and furnish details about the tradition of gurus, Ācāryas and Jaina
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Panegyric (Prasasti) literature : 45 monks; about their period, work done by their inspiration for social upliftment as well as their literary works etc. In Gujarat and Rajasthan, especially in Jaina tradition, there existed a unique form of colophons of texts or the Panegyric at the end of Jaina works. Sometimes, also at the beginning or in the form of puspikās at the end of some or of all chapters of a work. Dr. Jyoti Prasad Jain observed that pre AD 600 works positively lacked colophons but from then onward Jaina scholars usually composed long colophons at the end of their compositions, supplying detailed account of themselves, their Gurus and their lineage. These colophons contain important genealogical lists of Jaina teachers, references to contemporary rulers, their ministers, generals, important officials, pious men and women. These colophons also contained the account of house-holders, managing the copying of books, purchasing religious books and donating these to deserving monks and nuns for attaining merits at the end of manuscripts. The extensive literary activities during the reigns of the kings of Paramāra, Cāhmāna, Caulukya and Guhilota dynasties created a large mass of colophons. Their importance has inspired modern scholars to bring out certain separate collections of these in published form. The manuscript reports of Peterson and Bhandarkar contain large number of such Jaina colophons. The published manuscript catalogues of Jaina Bhandaras of Patan and Jesalmer and collections like Jaina Pustaka Prasasti -Sangraha ed. by Jinavijayamuni, Prasasti-Sangraha, (two parts), by A. M. Shah, Ahmedabad, Praśastisangraha by Bhujabala Sastri and Jaina Grantha Praśastisañgraha by Kastoorcanda Kasaliwal contain large number of such colophons. These colophons are the treasure of yielding information on the history of a large number of aristocratic and middle class Jaina families of medieval period.
As regards the genesis of colophons of texts (grantha) as well as manuscripts, Muni Puṇyavijayaji held that authors and manuscript writers took this idea from the inscriptions etc. on temples,
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46 : Śramaņa, Vol 65, No. 1, January-March 2014 monasteries. Jaina Ācāryas equated this writing and copying of works as pious and sacred a work as the act of constructing temples etc. They treated it proper to praise the great deed of such persons, instrumental in implementation through monetary grant. These colophons generally begin with the name of dynasty or caste of donor; genealogy of dynasty begins with the prominent ancestor of dynasty, followed by the name of grandfather, parents, brother, sister, wife, son, daughter etc. In case, the work is done at the inspiration of some Ācārya, his name along with that of his Guru also is given. At the end, the year month and date is incorporated and sometimes also date and place. Finally, the name of the writer. These types of colophons of texts are very common in the manuscripts written during the dawn of 124 century in Gujarat. These contain the information regarding Siddharāja, Kumārapāla etc. Caulukya kings, their officers and various Jaina laities along with other historical and cultural material. The colophons, of Kuvalayamālā of Udyotanaşūri, Harivarśapurāņa of Jinasena, Uttarapurāņa of Gunasena, Munisvāmīcariya (AD1136 AD) of Candrasūri, of Suparsvanātha cariya (AD 1142) of Laksamaņagani, of Nemicariu (AD1159) of Haribhadra in 23 Apabhrarśa verses and colophon of Amamasvāmicãrita in 34 verses in Sanskrit, are a few specimens of this genre. The structure of colophons is very simple. After a benediction, it proceeds to describe the donor or builder of the monument. After furnishing genealogical information, it describes the donation and enumerates the privileges or conditions accompanying it or describes in poetic style the structure built by the patron. The name of the constructing architect, consecrating priest is also given. It also contained the name of the poet composing praśasti, the scriber and the artisan. There are slight variations in the form accordingly as the it is inscribed on a temple, an image, a public building and a
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Panegyric (Praśasti) literature : 47 copper plate or is appended to a manuscript. The portion important from the historical point of view is genealogy and the heroic or pious deeds mentioned therein. In size, some are very short only of a few lines while others contain more than a hundred lines or verses. Some are written in prose, some in verse while others in a mixture of prose and verse. A brief description of Jaina panegyric (praśastis) is as follows: 1. The Abū Prasasti (AD 1231) of Someśvara, a contemporary and close friend of Vastupāla, who was the son of Kumar and Lakşmī, to commemorate the building of Neminātha Temple on Ābu, in 74 verses in different meters. After benediction to Sarasvati and chief deity that is Neminātha, it describes, in brief, Aņhilavāda. It contained genealogy of the builders and admiring references to their parents, brothers and sisters. After mentioning Arņorāja, his son Lavaņaprasad and grandson Viradhavala, it narrates the genealogy of the Paramāra kings, ruling there. The poet again praises Vastupāla and his family members- wife Līlāvati and son Jayantasimha, brother Tejapāla and his wife Anupamā. It narrated good deeds of Vastupāla and Ācāryas of Nāgendragaccha. It concludes with the benediction of Neminātha and Goddess Ambikā. 2. Prose portion in Giranar Inscriptions, six long Girnar Inscriptions of Vastupāla may be treated as independent praśastis. The prose portion in all these inscriptions occurred at the beginning and are almost identical hence presumably composition of information and important dates regarding the history of Vastu pal's family. 3. Sukrtakirtikallolini (AD 1221) a long panegyric, containing 179 Sanskrit verses by Udayaprabhasūri, composed on the occasion of journey of Jaina pilgrimages (sañghayātrā), is inscribed on a slab in the Indramaņdapa, built by Vastupāla on Satruñjaya. Its title suggests depicting the good deeds of Vastupāla but in fact major portion of it, about 100 verses, is devoted to the kings of Cāvadā
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48 : Sramaņa, Vol 65, No. 1, January-March 2014 and Caulukya dynasty. Afterwards, follows the praise of Viradhavala and his ancestors, genealogy of Vastupāla and the praise of the minister and his family members. It narrates his acts of bravery and refers to his pilgrimages, religious buildings built by him with the inspiration of Jaina saint Vijayasenasūri of Nagendra Gaccha. Historically, this furnishes no new information. However, it refers to many facts that might prove very useful corroborative evidence. 4. Vastupāla- Prasasti, composed by Udayaprabhasūri, pupil of Vajrasenasūri of Nagendragaccha, is a praśasti of a monastery built by Vastupāla at Stambhatīrtha in 19 Sanskrit verses and a few lines in prose. It praises Vastupāla and his religious teachers. 5. Vastupāla. Praśasti, (AD 1221) composed by Udayaprabhasūri, pupil of Vajrasenasūri of Nagendragaccha, highlighting devotion of Vastupāla, towards Ķşabhadeva, Neminātha and Giranar, is in 5 Sanskrit verses. It also praises his act of charity, religiousness. Pub. In: Mahavira Jaina Vidyalaya Suvarna Mahotsava Grantha, Part 1, Mahavira Jaina Vidyalaya, Mumbai. p.326. 6. Vastupāla Praśasti (Sanskrit) (AD 1221) by Narendraprabhasūri, in 104 verses, in praise of Vastupāla. After saluting the first Jina and Mahadeva in a punning verse, the poet extols the king of Caulukya dynasty and then those of the Vaghela dynasty. It also narrates the ancestors of Vastupāla and his personal merits. The major portion of this is devoted to the description of Vastupāla's pilgrimages, after which follows a long list of temples, public places, etc. built and renovated by him at different places. The concluding verses refer to the Acāryas of Nagendragaccha of which Vastupāla was a follower and to the author and his Guru.
7. Vastupāla-Prasasti (AD 1221) by Narendraprabhasūri, in 37 Sanskrit verses in praise of Vastupāla, is entirely devoted to two brothers and king Vīradhavala. It does not refer to any historical event in particular.
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Panegyric (Praśasti) literature : 49 8. Vastupāla -Tejapāla Prasasti by Jaisiṁhasūri, pupil of Vīrasūri, the author of Hammiramadamardana, dramatizing Vastupāla strategy in repulsing a Muslim attack on Gujarat. This prasasti, in 77 verses, contained genealogy, of the Caulukya and Vaghela dynasty, of the donor Vastupāla and a list of his virtuous deeds. Once Tejapala, while on way to pilgrimage to the Muni Suvrat temple, Bhțgukaccha, was requested by the composer, the head of the Caitya to provide 25 small shrines (devakulikās) in the temple Śakunavihāra, built by minister Ambada, with golden flag - staffs. Tejapāla agreed to it with the consent of Vastupāla and erected the staffs. The remaining verses of poem bestow conventional blessings, on the temple and the two ministers. Pub. Appendix to the Gaekwad Oriental Series, In: Hammiramadamardananāțaka. 9. Darbhāvati Prasasti, it is virtually lost but its content is available in Vastupālacarita (III, 363-369) after return to Darbhāvatī from his successful operation over Ghughula of Godhra, Tejapāla built the fort of Darbhāvats and constructed some temples in that city. According to Vastupālacarita, Tejapāla had installed two slabs of a praśasti or an inscription in the walls of a Jaina temple, built by him there. 10. Vastupāla - Prasasti by Bālacandrakavi, pupil of Haribhadrasūri of Candragaccha.Mss. Vimalagaccha Upaśraya Collection, Flausha's Pole Ahmedabad No. 15 (50). 11. Vastupāla - Praśasti (Sanskrit) in 4 verses in praise of Vastupāla by Yaśovīra, a friend of the former. Yaśovīra was the minister of Udayasimha of Cauhana dynasty, a king of Jābālipur (modern Jalore). As mentioned in Hammīramadamardana, Vastupāla honoured him as his elder brother. His father's name was also Udayasimha. 12. Vastupāla Prasasti (Sanskrit) in 12 verses by Arisimha Thakkur, the son of Thakkur Lūņasimha, the author of Sukrtasarnkirtana, praises the noble character, various deeds and
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50 Śramana, Vol 65, No. 1, January-March 2014
charity of Vastupala. Pub. The text In: Mahavira Jaina Vidyalaya Suvarna Mahotsava Grantha, Part 1, pp. 320-321.
13. Vastupala Prasasti (Sanskrit) by Harihara, a contemporary of Vastupala in 16 verses, describes the charity of Vastupāla, his victory over Sangramsimha and Śañkha. Pub. The text In: Mahavira Jaina Vidyalaya Suvarna Mahotsava Grantha, Part 1, and pp. 320321.
14. Vastupala Prasasti (Sanskrit) by Dodara, brother of Ama, in 13 verses, describes the charity of Vastupala, depicts him as endowed with all round genius, bravery, generosity and scholarship. Pub. The text In: Mahavira Jaina Vidyalaya Suvarna Mahotsava Grantha, Part 1, pp. 324-325.
15. Vastupala Prasasti by Jagasimha in single Sanskrit verse describes the greatness of Vastupala, his victory over Sangramsimha and Śañkha. Pub. The text In: Mahavira Jaina Vidyalaya Suvarna Mahotsava Grantha, Part 1, pp. 325.
16. Vastupala Prasasti (Sanskrit) by Thakkura Vairisimha, son of Dhruva of Bhṛgukaccha in 3 Sanskrit verses, describes the greatness of Vastupala. Pub. The text In: Mahavira Jaina Vidyalaya Suvarna Mahotsava Grantha, Part 1, pp. 325.
17. Vastupala Prasasti by anonymous. Mss. Catalogue of manuscripts in Jesalmer Bhandar. Pub. In: Gaekwad Oriental Series, Baroda, 1923, p. 23, Jaina Granthavali, p.218.
18. Prasasti by Caritrasundaragaņi, on Mahavira temple at Citrakūta. Mss. List of Manuscripts contained in the report of Kathavate (Collection of 1895-1902), No. 1332 (1451 AD).
19. Prasasti by Vijayanandasūri (Granthagra 2000), Mss. VB 23 (28).
20. Prasasti by Vijayadāna (Granthagra 1700). Mss. Vimalagaccha Upaśraya Collection, Hajipet, Ahmedabad No. 10 (1).
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Panegyric (Praśasti) literature : 51 21. Sambhavajinālaya Prasasti (1440 AD) by Somakuñjar, pupil of Jaisāgarsūri of the Kharataragaccha. Pub. In: Gaekwad Oriental Series, Baroda, 1923, pp.68-69, Mss. Catalogue of Manuscripts in the Jaisalmer Bhandar, 22. Vijayaprašastikävya by Jinadevasūri, Mss. Vimalagaccha Upaśraya Collection, Hajipet, Ahmedabad No. 31 (30). 23. Vijayaprašastikāvya by Cāritravijaya, Mss. Vimalagaccha Upaśraya Collection, Hajipet, Ahmedabad No. 32 (13). 24. Vijayapraśastikāvya (1624 AD) by Hemavijaya, pupil of Kantivijayagaṇi of Tapāgaccha. It is in 21 cantos, the last 5 of it were added by commentator Guņavijaya. It contains information about Hīravijaya, Vijayasena and Vijayadevasūri of Tapāgaccha. Pub. The text and comm. Yaśovijaya Jaina Granthamālā No. 23, Bhavnagar 1910. Mss. The Text with the comm. by Guņavijaya, pupil of Kanakavijaya. Baroda No. 2924, Buhler. VI No. 767. Jainagranthāvali, p. 333. 25. Lakşmaņavihāraprasasti (AD1416) by Kirtirājasādhu of the Kharatargaccha, to commemorate a Vihāra, the construction started in 1402 at the advice of Jinarajasūri. Pub. In: Gaekwad Oriental Series, Baroda 1923, pp. 63-64. Mss. Catalogue of Manuscripts in Jaisalmer Bhandar. 26. Mandapiyasanghaprasasti, vide. Jaina Granthāvali, p.217. 27. Kirtikallolini by Hemavijayagani is a praśasti of Vijayaenasūri of Tapāgaccha. Mss. Buhler IV No. 240, VB. (36). The Colophon of works. The titles, pertaining to Colophon of works, are available, mainly, in form of collections. The details regarding these are as follows: 28. Śriprasasti Sangraha, ed. Amrtlal Maganlal Shah, contains the colophon of about 1300 manuscripts: palm-leaf as well as paper. It has index of names of Ācāryas, nuns, kings, laities, villages,
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52 : Šramaņa, Vol 65, No. 1, January-March 2014 countries etc. contained in those colophons. Pub. Jaina Vidyashala Doshivada Pole, Ahmedabad 1993. P.28, 119,326,56, 29. Jaina Pustakaprasastisangraha Part 1 ed. Jinavijayamuni, contains colophons of 111 manuscripts and puspikas of 423 palmleaf manuscripts available in the manuscript collection of Patan,
Cambay (Stambhatīrtha), Jaisalmer etc. various places. It has nine · appendices with the index of proper names, of authors, scribers,
kings, sects, sub-sects, Ācāryas, yatis, munis, nuns, countries, cities, prominent laymen and laywomen. Pub. Singhi Jaina Text Series No.18, Bharatiya Vidya Bhavana, Bombay 1942. Part One 20,180.
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Jain Studies through Indian Antiquary
Dr. Navin Kumar Srivastav
[The Indian Antiquary, a Journal of Oriental Research was started in 1872 by Burgess, about 140 years ago. It was started to fulfill the need, strongly felt for bringing out a journal devoted exclusively to the study and advancement of Indian Culture in all its aspects. In fact the Indian Antiquity formed a culture bridge as it were between the East and the West.
At a time when each society had its own medium of propagation of its researches, deliberation etc., in the form of Transactions, Proceedings, Journals etc., Indology lacked it. The scope was enunciated by its founder editor was, in his own words ‘as wide as possible' incorporating Manners and Customs, Arts, Mythology, Feasts, Festivals and Rites, Antiquities and History of India. The Journal carried also a correspondence column to elicit the information and initiate discussion on matters of interest. Another laudable aim was to present the readers abstract of the most recent researchers of scholars in India and the West by translating them from German, French and another foreign tongues, besides drawing the attention of researchers by publication of articles, notes etc. of interest from the other Asiatic Society which would not have been otherwise published in this journal. Indian Antiquity also dealt with local legends, folklore, proverb etc. In short Indian Antiquity, as envisaged by the visionary Burgess was journal to the study of MANthe Indian - in all the spheres of activities of his day to day life, past and present. In fact it covered the broad spectrum of subjects what we today study in archeology, anthropology, ethnology, epigraphy numismatics, linguistic etc. The articles on Jainism, mostly by foreign scholars, presented the early phase of progress of Jain studies.]
This is an attempt to present the articles appeared in different volumes of THE INDIAN ANTIQUARY from 1872-1933. The artcles are presented in alphabetical order
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A Passage in the Jain Harivamsa Relatiing to the Guptas, K.V. Pathak, Vol. XV, p. 141
A Medieval Jaina Image of Ajitnatha, NC, Mehta, ICS, Vol. LVII, p. 56, p.72 -74
A Note on the Svetambar and Digambar Sects, Puran Chand Nahar, IA, Vol. LVIII, 58, 1929, p. 167-168
A Note on Ajivikas, Alkondavilli Govindacharya Swamin, Vol. XLI, p. 296
A Jain Account of the End of the Vaghelas of Gujarat, G. J. Buhler, Vol. XXVI, p. 194
A Jain Vaishanao Compact, B. Lewis Rice, Vol. XIV, p. 233, 292
A legend of the Jain Stupas at Mathura, G. J. Buhler, Vol. XXVII, p. 49
Account of the Jainas, C. Lassen, Vol. II, p. 193, 258
An Old Collections of Disciplinary Rules for Jain Monks, Walther Schubring, Vol. XXXIX, p. 257
A Further Notice of the Ancient Buddhist Structure at Nagapatam, Walter Elliot, Vol. VII, p. 224; Vol. XV, p. 234
Ajivikas, D. R. Bhandarkar, Vol. XLI, p.286, 296 Archeological Notes During Explorations in Central Asia in 1906-8 M. Aurel Stein, Vol. XXXIV, p. 11, 60, 35, 196, 37, 338
Author of Paiaacchi, J.G. Buhler, Vol. IV, p. 59
Avanti Prakrit of the Karpurmanjari, Surendra Nath Majumdar Shastri, Vol. L, p. 80
Bhadrabahu and Chandragupta in connection with Sravanabelagola, Vol. XXI, p. 156
Bhadrabahu and Shravanabelagola, B. Lewis Rice, Vol. III, p. 153
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Jain Studies through Indian Antiquary : 55 Barnetts Supplementary Catalogue of Sanskrit, Pali and Prakrit Books in the Library of the British Museum, Acquired During the years 1892-1903, Sten Konow, Vol. XXXVII, p. 276 Connection of Bhadrabahu and Chandragupta with Shravanabelgola, Vol. XXXI, p. 343 Chaityas, Narayana Aiyengar, Vol. XI. p. 20 Champat Rai Jains, The Practical Path, H. C. Chaklader, Vol. XLVII, p. 139 Date of Mahavir, J. Charpentier, Vol. XLIII, p. 118, 125, 167 Date of Mahavir Nirvan as Determined in Saka 1175, K. V. Pathak, Vol. XII, p. 21 Date of Mahavira Discussed, Jarl. Charpentier, Vol. XII, p. 21 Vol. XLIII, p. 119, 125, 167 Digambara Jaina Iconography, James Burgess, Vol. XXXII, 459; Vol. XXXIII, p. 330 Digambar Jainas, J. G. Buhler, Vol. VII, p. 28 Digambara Jainas, Pattavalis of the Digambara Jainas, A. F. Rudolf Hoernle, Vol. XIX, p. 233, Vol. XX, p. 341, Vol. XXI, p. 57 Doctrines of Nataputta, Walter Elliot, Vol. IX, p.188 Dravidian Element in Prakrit, K. Amrit Row, Vol. XLVI, p. 33. Extracts from the Historical Records of the Jains, Johannes Klatt, Vol. XI, p. 245 Gadya Chintamani of Vadibh Singh, E. Hultzsch, Vol. XXXII, p. 240 Gommateśvara Statue of Śravanabelagola, Vol. II, p. 129 Goldschmidt's Prakritika, R. Rost, Vol. VII, p. 299 (r)
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56 : Śramaņa, Vol 65, No. 1, January-March 2014 33. Giranar Mahatma, Ramchandra Angal, Vol. IV, p. 238 34. Hammiramaha Kavya of Nayachandra Suri, Nilkantha
Kirtan Janaradan, Vol. VIII, p. 55 Hathigumpha Cave Inscription of Kharvel, K. G. Sankara Aiyar, Vol. XLIX, p.43 Hathiguṁpha Inscription, Ramesh Chand Majumdar, Vol. XLVII, p. 223 Hindu and Jain Remains Bijapur and the Neighborhood, W. F. Sinclair, Vol. VII, p. 121 Jain Ascetics, Munderbands, XXV, p.147 Jain Temples at Palitana, IA, Vol. I, p. 96 Jaina Legend of Stupas at Mathura, G. Buhler, Vol. XXVII, p. 49, Jaina Statues, Vol. V, p. 30, At Karakala, Vol. II, p. 353 Jain Sakatayana Contemporary with Amoghvarsha I, K. V. Pathak, Vol. XLIII, p. 205 Jaina Vaishnava Compact, B. Lewis Rice, Vol. XIV, p. 233, 292 Jainas Bhandars of the Osaval Jainas, Vol. III, p. 59 Jainendra Vyakaraṇa, the remarks on, X,75, Authorship of Jainendra Vyākaraņa, Vol. XII, p. 19 Origin and Decline of Jainism in South India, Vol. XL, p. 209, 307 Jainism, Edward Thomas, Vol. VIII, p. 30 Kalpasutra: An Old Collection of Disciplinary Rules for Jain Monks, translated from the German of Dr. Walther Shubring, May S. Burges, Vol. XXXIX, p. 257 Kuppuswami Shastris Champu Jivandhar of Harichandra, E. Hultzsch, Vol. XXXV, p. 268 (r)
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Jain Studies through Indian Antiquary : 57 Kuppuswami Shastris Kshatrachudamani of Vadibh Singh, E. Hultzsch, Vol. XXXV, p. 96 (r) Lacote's Assaisur Gunadhya et la, Brihad Katha, Sten Konow, Vol. XXXIX, p. 159 (r) Lord Mahavira, Harisatya Bhattacharya, Vol. LVII, p. 56, 176 -74 (b) Maharashtri and Marathi, Sten Konow, Vol. XXXIII, p. 180 Modern Jainantipathy to the Brahamanas, A.P.W., Vol. XXV, p. 316 Nayacandrasuri, Hammira Mahakavya, Vol. XVII, p. 55 Notes on Paishachi Prakrit, Vol. XLVIII , p. 114 Notes on Jain Mythology, James Burgess, Vol. XXX, P. 27 Notes on the Grammar of the Old Western Rajasthani with Special Reference to Apabhramsa and to Gujarati and Maravadi, L. P. Tessitori, Vol. XLIII, p. 21; Vol. XLIV, P.3; Vol. XLV, p. 6,93 On the Indian Sect of the Jainas, Buhler, G, Vol. XXXIII,
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On a Prakrit Glossary entitled Paiyalacchi, J.G. Buhler, Vol. II, p. 166 On the Bhandar of Oswal Jains at Jesalmer, J.G. Buhler, Vol. II, p. 89 On the Colossal Jain Statue at Karkala, A. C. Burnell, Vol. II, p. 353 On Mahavira and his Predecessors, Hermann Jacobi, Vol. IX, p. 158 On the Jainendra Vyakarana, F. Kaielhorn, Vol. X, p. 75 On Mahavira and his predecessors, Herman Jacobi, Vol. IX, p. 158
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58 : Sramaņa, Vol 65, No. 1, January-March 2014 66. Origin and Decline of Buddhism and Jainism in South India,
K.V. Subrahamanya Aiyar, Vol. XL, p 209 Paisachi in the Prakrita- Kalpataru, Sir George Grierson, Vol. XLIX, p. 114 Papers on Shatrunjaya and the Jinas, J. Burgess (e), Vol. II, p.14,134,191,354; Vol. VII, p. 28; Vol. XI, p. 245, Vol. XIII, p.276; Vol. XXX, p.239
Pattavali, Jaina Pontiffs of other Gacchas, Vol. XXII, p.179 70. Pandit Bechardas Jivaraj's Prakrit Margopadeshika , L. P.
Tesssitori, Vol. XLII, p. 287 Pattavali, Jaina Pontiffs of the Anchal Gaccha, Vol. XXIII, p. 174 Pattavali, Jaina Pontiffs of the Upakesha Gaccha, A. F. Rudolf Hoernle, Vol. XIX, 233 References to Buddhist Authors in Jaina Literature, G.K. Nariman, Vol. IV, p. 15, , Vol. XLII, p. 241, 44. Pischell's Prakrit Grammar, Sir George Girerson, Vol. XXX, p. 553 (r) Prakrit Dhatvadesha, Sir George Grierson, p.198, Pub. Memoirs of Asiatic Society of Bengal, Calcutta, 1920, IA, Vol. LIV, p. 54, 1925, p. 1980 Prakrit Grammar of Hemacandra, Vol. VI, p. 278 Pujyapada and the Authorship of Jainendra Vyakarana, K. V. Pathak, Vol. XII, p. 19 Purnachand Nahar and K. Ghosh's, An Epitome of Jainism,
Vol. XLVII, p. 140 (r) 79. Rangacharyas's Ganit- Sara-Sangraha of Mahaviracharya,
A. F. Rudolf Hoernle, Vol. XLII, p. 84 (r) 80. Relation of Maharastri Language to Marathi, Vol. XXXII,
p. 180
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81.
Jain Studies through Indian Antiquary : 59 Śvetāmbara Jaina Iconography by Johnson, Miss Helen, M. IA, Vol. LVII, p. 56, 1927, p.23-26, Vol. LVII, p. 57,1928, p.167-168, Śabda- Cintāmaņi, Prakrit Grammar of Subhacandra, A. F. Rudolf Hoernle, Vol. II, p.29 Šatruñjaya Mahātmyam (A contribution to the History of Jaina by Prof. A. Weber), JamesBurgess, Vol. XXX, p. 239 Sacred Literature of the Jainas, A. Weber, Vol. XVII, p. 279 etc.; Vol. XVIII, p. 181 etc.; Vol. XIX 62 etc.; Vol. XX 16 etc.; Vol. XXI, p. 14 etc. Second Note on Hathigumpha Inscription of Kharvel, Ramesh Chand Majumdar, Vol. XLVIII, p. 187 Siddhant Chakravartis Davvasangaha, H.C. Chakaldar, Vol. XLVII, p. 139 Simharaja's Prakrit Rupavatar, Sten Konow, Vol. XXXIX, p. 256 Some Modern Jain Sects, M. Millett, Vol. XXV, p. 147 Śramaņas, Narayana Aiyengar, Vol. X. p.143, Sri Lakshaman Suri's Commentaries, E. Hultzsch, Vol. XXXIV, p. 176 (1) Sukritasamkirtan of Ari Singh (translated from German Y.E.K. Burgess), G. J. Buhler , Vol. XXXI, p. 477 Subha Chandra, author of the Shabda Chintamani, A. F. Rudolf Hoernle, Vol. II, p. 29 The Religion of the Aboriginal Tribes of India, J. Avery, Vol. XIV, p. 125 The Edifice Formally known as the Chinese or Jain Pagoda at Negapatam, Sir Walter, Elliot, Vol. VII, p. 224 Three Further Pattavalis of the Digambaras, A. F. Rudolf Hoernle, Vol. XXI, p. 57
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60 : Śramaņa, Vol 65, No. 1, January-March 2014 96. Jainism, Thomas Edward, Vol. VIII, p.30 97. The Age of the Tamil Jivak Chintamani, T.S. Kuppuswami
Shastri, Vol. XXXVI, p. 285 The Kalpasutra and Old Collection of Disciplinary Rules for Jain Monks translated by May S. Burgess, Walther Schubring, Vol. XXXIX, p. 257 Two Jaina versions of the Story of Solomon's Judgment, L. P. Tesseitori , Vol. XLII, p.148, Two Pattavalis of the Saraswati Gaccha of the Digambar Jaina, A.F. Rudolf Hoernle, Vol. XX, p. 341, Vol. XXI,
p. 57 101. The Samachari- Satakam of Samayasundar and Pattavalis
of the Anchal Gaccha and Other Gacchas, Johannes Klatt,
Vol. XXIII, p. 169 102. Translation of Lassen's Account of the Jainas, Edward
Rehatsek, Vol. II, p. 193, 258 103. Two Pattawalis of the Sarswati Gaccha of the Digambar
Jainas, A. F. Rudolf Hoernle, Vol. XX, p. 341 104. Three Further Pattawalis of the Digambaras, A. F. Rudolf
Hoernle, Vol. XXI, p. 57 105. Use of Censers by Jainas, Murray Ainsile, Vol. XXIX, p.
172 106. Vijayadharmasuri's Aitihāsika Rāsa Sangrah, L. P.
Tessitori, Vol. XLVI, p.133, 107. Vijñapati Triveņi, A Jain Epistle, K. P. Jayaswal, Vol.
XLVI, p. 276 (r)
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा 'प्राकृत भाषा एवं साहित्य' विषयक १५ दिवसीय (०४-०८ जनवरी, २०१४) कार्यशाला आयोजित की गई। 'प्राकृत भाषा एवं साहित्य' पर यह तीसरी कार्यशाला थी। इस कार्यशाला के प्रायोजक श्री लेखराज मेहता, सीनियर एडवोकेट, जोधपुर थे। इसका उद्घाटन ०४ जनवरी २०१४ को हुआ। उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो० बिमलेन्द्र कुमार थे। इस समारोह की अध्यक्षता संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के अध्यक्ष प्रो० गोपबन्धु मिश्र ने किया। मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रो० बिमलेन्द्र कुमार ने कहा कि प्राकृत भाषा एक शास्त्रीय भाषा है और यह ऋग्वेद काल से भी प्राचीन है। प्राकृत जैन आगमों की भाषा है। यह प्राचीनकाल में जनभाषा रही है। प्राचीन भारतीय संस्कृति के ज्ञान, संवर्द्धन एवं संरक्षण के लिए प्राकृत भाषा का ज्ञान आवश्यक है। परन्तु दुर्भाग्यवश आज तक भारत सरकार द्वारा इसे शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता नहीं दी गयी है और न ही विद्वत् वर्ग द्वारा इस सम्बन्ध में कोई सार्थक प्रयास किया जा रहा है। इस सम्बन्ध में प्रो० बिमलेन्द्र कुमार ने प्राकृत भाषा के ऐतिहासिक महत्त्व एवं संवैधानिक स्थिति को रेखांकित करने का प्रयास किया। प्रो० कुमार ने मानव संसाधान विकास मंत्रालय द्वारा प्राकृत एवं पालि के उत्थान के लिए किये जा रहे प्रयास एवं देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में पालि एवं प्राकृत के अध्ययन-अध्यापन की स्थिाति को स्पष्ट करने का प्रयास किया। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो० गोपबन्धु मिश्र ने कहा कि प्राकृत और संस्कृत मूलत: विशेषण हैं। हमारा जीवन संस्कृत है और हम मूलतः प्राकृत है। प्राकृत और संस्कृत का अन्वय अनादि है और यह स्वाभाविक है। वेदों में प्राकृत भाषा के शब्दों का विद्यमान होना इसकी महत्ता को दर्शाता है।
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62 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 प्रो० मिश्र ने कहा कि प्रत्येक भाषा में प्राकृत शब्द विद्यमान है। प्रत्येक भाषा संस्कृत एवं प्राकृत द्विविध रूप से ही प्रचलित हो पाती है। अपने उद्बोधन में प्रो० मिश्र ने कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् में उपलब्ध प्राकृत के विभन्न शब्दों को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि महाकवि कालिदास जैसे सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान ने भी संस्कृत के साथ प्राकृत शब्दों का प्रयोग किया है। इस प्रकार संस्कृत के महाकवियों द्वारा निर्द्वन्द्व रूप से किया गया प्राकृत शब्दों का प्रयोग प्राकृत भाषा की महत्ता को दर्शाता है। प्रो० मिश्र ने कहा कि अनुवाद की प्रचुर उपलब्धता के नाते हमारी प्राच्य भाषाएँ विलुप्त होती जा रही हैं। प्राकृत भाषा में अध्येता की गति के लिए इसके इतिहास को जानना अत्यन्त आवश्यक है।
कार्यशाला में प्रतिभागियों की संख्या ५० थी। इसमें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ एवं सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के दर्शन, संस्कृत, हिन्दी, पालि एवं इतिहास विषयों के पीएच०डी० उपाधि प्राप्त एवं शोध छात्र-छात्राएँ भाग लिये। इस १५ दिवसीय कार्यशाला में लगभग ४५ व्याख्यान एवं १४ विशिष्ट व्याख्यान हुए। ।।
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__ पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार : 63 इस कार्यशाला का समापन समारोह १८ जनवरी २०१४ को हुआ। इसकी अध्यक्षता प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के अध्यक्ष प्रो० मो० नसीम अहमद ने की। प्रो० मो० नसीम अहमद ने कहा कि प्राकृत जैन आगमों की भाषा है। यह प्राचीनकाल में जनभाषा रही है। शोध की गुणवत्ता हेतु मूल ग्रन्थों पर शोध आवश्यक है। इधर के दिनों में महामहिम राष्ट्रपति, महामहिम राज्यपाल भी शोध की गुणवत्ता सुधारने पर बल दे रहे हैं। प्राकृत, संस्कृत, पालि में प्रचुर सामग्री उपलब्ध है, जिसका उपयोग आवश्यक है। आज जो मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है प्राचीन साहित्य में निहित मूल्यों के उद्घाटन से मानवता का लाभ हो सता है। इस कार्यशाला में विषय का प्रस्तुतीकरण पावर प्वाइण्ट द्वारा किया गया जो प्रातिभागियों द्वारा बहुत सराहा गया। परीक्षा के बाद प्रथम तीन विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र एवं नगद पुरस्कार दिया गया। संदीप कुमार द्विवेदी, आशीष कुमार जैन एंव बबुआ नारायण मिश्र को क्रमश: प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरस्कार प्रदान किया गया। कार्यशाला में प्रस्तुत व्याख्यानों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी कार्यशाला के संयोजक डॉ० नवीन कुमार श्रीवास्तव ने दी। कार्यशाला निदेशक डॉ० अशोक कुमार सिंह ने कार्यशाला की शिक्षण पद्धति एवं लक्ष्य के विषय में जानकारी प्रदान की। कार्यक्रम का संचालन डॉ० नवीन कुमार श्रीवास्तव, अतिथियों का स्वागत डॉ० अशोक कुमार सिंह एवं धन्यवाद ज्ञापन राजेश चौबे ने किया।
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प्राकृत भाषा के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पूर्व निदेशक प्रो० सुदर्शन लाल जैन को वर्ष २०१२ का राष्ट्रपति सम्मान
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से जारी विज्ञप्ति के अनुसार दिनांक १७ जनवरी २०१४ को दोपहर १२ बजे राष्ट्रपति भवन के सुप्रतिष्ठित ऐतिहासिक दरबार हाल में संस्कृत/पालि-प्राकृत/अरबी एवं फारसी भाषा के वरिष्ठ विद्वानों को राष्ट्रपति सम्मान एवं युवा विद्वानों को महर्षि बादरायण व्यास सम्मान के रूप में प्रशस्ति पत्र, अंगवस्त्र एवं रूपये ५ लाख वरिष्ठ विद्वानों के एवं युवा विद्वानों को रूपये १ लाख देकर सम्मानित किया गया। प्राकृत भाषा के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए प्रो० सुदर्शन लाल जैन, पूर्व निदेशक, प्रर्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी को राष्ट्रपति सम्मान प्रदान किया गया।
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पुस्तक समीक्षा
साभार- प्राप्ति
सौजन्य - प्रो० कमल चन्द सोगाणी, निदेशक, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर
१. द्रव्य संग्रह : मुनि नेमिचन्द सिद्धान्तिदेव, सम्पा० डा० कमलचन्द सोगाणी, अनु० शकुन्तला जैन, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी, ३२२२२० (राजस्थान) आई०एस० वी० एन० ९७८७- ९२६४६८-१-७ २०१३ ८१ पृ०११०, (मूल, अन्वय, हिन्दी अनु०, व्याकरणिक विश्लेषण एवं परिशिष्ट सहित, परिशिष्ट - १ संज्ञाकोश, क्रियाकोश, कृदन्त, विशेषण, संख्या, सर्वनाम, अव्यय, परिशिष्ट - २, छंद।)
२. प्रवचनसार : आचार्य कुन्दकुन्द, सम्पा० डा० कमल चन्द सोगाणी, अनु० शकुन्तला जैन, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैन विद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी ३२२२२० (राज०) २०१३, पृ० १६०, (खण्ड-१), (आई०एस० वी० एन० ९७८ - ८१-९२६४६८२-४)
(मूल, अन्वय, व्याकरणिक विश्लेषण, हिन्दी अनुवाद, विशेषण, सर्वनाम एवं अव्यय सूची, परिशिष्ट - १ - संख्या, क्रिया, कृदन्त
३. जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (तीन खण्ड) लेखन व सम्पा० डा० कमलचन्द सोगाणी, अनु० शकुन्तला जैन, जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी, ३२२२२०, ( राज०) २०१०, (खण्ड१) पृ० ३४, १६५ (आई०एस० बी० एन० ८१-८८६७-०६-* (लेखक की Ethical Doctrines in Jainism का हिन्दी अनुवाद)
खण्ड - २ प्र० सं० २०११, पृ० ३४, ११५, (आई०एस० बी० एन० ८१-८८६७७-०७)
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66 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014 खण्ड-३ प्र० सं० २०११, पृ० ३४, ९८ (आई०एस०बी०एन० ८१८८६७७-०८-६) ४. प्राकृत-हिन्दी-व्याकरण (दो भाग) लेखिका शकुन्तला जैन, सम्पा० डा० कमलचन्द सोगाणी, भाग-१, प्र० सं० २०१२, पृ०-१२,१८३, (हेमचन्द्र व्याकरण पर आधारित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची प्राकृत के संज्ञा एवं सर्वनाम शब्दों की विभक्तियों का प्ररूपण, तथा पाँच परिशिष्टों के रूप में संज्ञा, सर्वनाम शब्दों के रूप, विवेचन में प्रयुक्त हेमचन्द्र के सूत्रों के सन्दर्भ तथा पुस्तक में उपलब्ध संज्ञा-क्रमशः पुंलिंग, नपुंसकलिंग एवं स्त्रीलिंग तथा विशेषण शब्दों की अनुक्रमणिका भाग-२ प्र० सं० २०१३, (आई०एस०बी०एन०-७ ९७८-८१९२६४६८-०-० पृ०-१०, १३८) (हेमचन्द्र व्याकरण पर आधारित क्रियाओं के कालबोधक प्रत्ययों, कृदन्त, भाववाच्य, कर्मवाच्य, स्वार्थिक, प्रेरणार्थक, विविध प्राकृत क्रियायें, अनियमित कर्मवाच्य के क्रिया रूप एवं अनियमित कृदन्त, परिशिष्ट-१ क्रिया रूप व कालबोधक प्रत्यय, एवं विवेचन में प्रयुक्त हेमचन्द्र रचित सूत्रों के सन्दर्भ) ५. प्राकृत-व्याकरण, डा० कमलचन्द सोगाणी, प्र०सं० २००५, पृ० ८५ (सन्धि-समास-कारक-तद्धित-स्त्रीप्रत्यय-अव्यय) ६. प्रौढ़ प्राकृत रचना सौरभ (दो भाग), डा० कमलचन्द सोगाणी प्रथम सं० १९९९, पृ० १७३, ६१ (पाङ्ग, संज्ञा, सर्वनाम, संख्यावाची, शब्दों से सम्बन्धित सूत्र, शौरसेनी प्राकृत से सम्बन्धित सूत्र, संज्ञा, सर्वनाम, एवं संख्यावाचक शब्द रूप, परिशिष्ट-१. मूल में प्रयुक्त सन्धि नियम, भाग-२ डा० कमलचन्द सोगाणी, प्र० सं० २००२, पृ० ७०, १७ (महाराष्ट्री, शौरसेनी प्राकृत एवं अपभ्रंश के क्रिया एवं कृदन्त सूत्र, प्राकृत एवं अपभ्रंश के क्रिया रूप, परिशिष्ट सं०- १. सूत्रों में प्रयुक्त सन्धिनियम, २. सूत्रों का व्याकरणिक विश्लेषण)। प्राकृत अभ्यास सौरभ, डा० कमलचन्द सोगाणी, द्वि०सं० २००४, पृ० २२०
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पुस्तक समीक्षा : 67 (सम्पूर्ण ५० पाठ, ४० पाठ- क्रिया एवं संज्ञा पर आधारित अभ्यास, १० पाठ- (४१-५०) हिन्दी अनुवाद सहित मूल प्राकृत कथायें।) प्राकृत रचना सौरभ- डा० कमलचन्द सोगाणी, तृतीय सं०- २०१३, पृ० २६२, आई०एस०बी०एन० ९७८-८१-९२५४६८-३-१ (सम्पूर्ण पाठ ८५, सर्वनाम, क्रिया, संज्ञा, अव्यय, परिशिष्ट के रूप में संज्ञा शब्दों एवं क्रियाओं की अनुक्रमणिका) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (दो भाग) डा० कमलचन्द सोगाणी भाग-१ द्वि० सं० २००९, पृ० ३७४ (समणसुत्तं, उत्तराध्ययन, वज्जालग्ग, अष्टपाहुड कार्तिकेयानुप्रेक्षा, दसरह पव्वज्जा आदि तेरह प्राकृत ग्रन्थों से चयनित अंश, हिन्दी अनुवाद, शब्दार्थ एवं व्याकरणिक विश्लेषण) भाग-२ प्र०सं० २००५, पृ० १८९ (गउडवहो, दशवैकालिक, आचारांग, प्रवचनसार, भगवती आराधना आदि बारह प्राकृत ग्रन्थों के चयनित अंश, हिन्दी अनुवाद, शब्दार्थ एवं व्याकरणिक विश्लेषण) Prakrit- Grammar, Dr. Kamal Chand Sogani, Smt. Shakuntala Jain, Apabhramsa Sahitya Academy, Jaina Vidya Samsthan, Digambara Jaina Atisaya Ksetra Sri Mahaviraji 322220 (Raj.) First ed. 2011, p. 12, 120 (IS B.N. 978-81-921276-1-3) (Six Chapters dealing with combination (sandi), compound (samasa), cases, Word-formation (Taddhita) feminine suffixess (Strilenga pratyaya), Indclinables, with 5 appendices.) Advanced Prakrit Grammar (2 parts ) Dr. Kamal Chand Sogani, Shakuntala Jain. Apabhranisa Sahitya Academy, Jain Vidya Samsthana, Diganbara Jain Atisaya Ksetra Sri Mahaviraji (Raj) 2009, p. 8, 280 Part-1 (Ten sections, Declensions of nouns, pronouns and numerals, cases and their Interchangeability, Negation of certain
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suffixes, Miscellaneous - Sauraseni Prakrit sutras, with four appendices)
Prakrit Grammar and composition (English translation of the Author's Book in Hindi, Prakrit Racana Saurabha) Dr. Kamal Chand Sogani, 2006, p. XII, 284.
(Containing 85 lessions based on pronouns - singular, plural, rootspresent, imparative, past, future tense, transitive, intransitive, use in the active voice, passive voice, causative suffixes, Indeclinables etc. contains indices of nouns and verbs- English Prakrit PrakritEnglish)
Prakrit. Exercise Book, Dr. Kamal Chand Sogani, First ed. 2006, p. 22, 188. [English of the author's book in Hindi Prakrit Abhyasa Saurabh],
Prakrit Prose and Verse, Dr. Kamal Chand Sogani, First ed. 2008, p. 18, 222. [Eng. trans. of the book Prakrit Gadya Padya Saurabha text in Roman script.]
अपभ्रंश: एक परिचय :
डा० कमलचन्द सोगाणी, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैन विद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी (राज०) २०००, पृ० ५६
(तीन अध्याय- अपभ्रंश, उसके कवि और काव्य, परवर्ती अपभ्रंश, अपभ्रंश और हिन्दी )
अपभ्रंश - हिन्दी- व्याकरण, लेखिका श्रीमती शकुन्लता जैन, सम्पा० डा० कमलचन्द सोगाणी, अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैन विद्या संस्थान, प्रथम सं० २०१२, पृ० १२२,
(संज्ञा, सर्वनाम, शब्दों के विभक्ति प्रत्यय, क्रियाओं के कालबोधक प्रत्यय, कृदन्त, भाव एवं कर्मवाच्य स्वार्थिक, प्रेरणार्थक, संख्यावाचक एवं अव्यय, परिशिष्ट के रूप में संज्ञा, सर्वनाम, धातु, संख्यावाची शब्द रूपावली )
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पुस्तक समीक्षा : 69 अपभ्रंश-व्याकरण- डा० कमलचन्द सोगाणी, प्र०सं० २००७, पृ० ५४ (सन्धि, समास और कारक तथा उनके अपभ्रंश उदाहरण) प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ (भाग-१) डा० कमलचन्द सोगाणी, प्र०सं० १९९७, पृ० ४, १३४, ५६, अव्यय, विशेषण, वर्तमान कृदन्त, भूतकालिक कृदन्त, पर आधारित अभ्यास और परिशिष्ट के रूप में अनुवाद आदि।) अपभ्रंश अभ्यास सौरभ, डा० कमलचन्द सोगाणी, द्वि० सं० २०१२, पृ० १२, १८४ (आई०एस०बी०एन० ९७८-८१-९२१२७६-७-५) (अपभ्रंश रचना सौरभ में बताये गये नियमों के आधार पर ८० पाठों में अपभ्रंश भाषा का अभ्यास) अपभ्रंश काव्य सौरभ- डा० कमलचन्द सोगाणी, द्वि०सं० २००७, पृ० १० ४१६, (प्रमुख अपभ्रंश कृतियों पउमचरिउ, महापुराण, जम्बूसामिचरिउ, सुदंसण चरिउ, करकण्डु चरिउ, धण्णकुमार चरिउ, हेमचन्द्र के दोहे, परमात्म प्रकाश, पाहुड दोहा, सावयधम्म दोहा, से संकलित अंशों का हिन्दी अनुवाद व्याकरणिक, विश्लेषण एवं शब्दार्थ तथा परिशिष्ट के रूप में कवियों का परिचय)
Advanced Apabhramsa-Grammar (Two Parts) Dr. Kamal Chand Sogani, Smt. Shakuntala Jain Part-1 First Edition 2010, p. 13, 108. Part-1 [Method of analysis of sutras, Declension of nouns, pronouns, Declensional forms of nouns and pronouns, rules of combination utilized in the sutras, summary of the grammatical analysis of sutras,] Part-II, First ed. 2010, P. 8,118.
[Introduction of Verb-sutras, Prakrit verbs and participles, Sauraseni verbs and participles, Apabhramsa verbs and participles]
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Appendix- conjugation of verbs in Prakrit, conjugation of words utilized in the sutras, summary of the grammatical analysis of
sutras.
Right and the Good in Jaina Ethics by Prof. Kamal Chand Sogani, Jaina Vidya Samsthana, Digambar Jaina Atisaya Ksetra, Sri Mahaviraji, 322220 (Raj.), p-16
फ
Indian Culture and Jainism by Dr. Kamal Chand Sogani, p-36. अपभ्रंश- पाण्डुलिपि चयनिका : सम्पा० डा० कमलचन्द सोगाणी- प्रथम सं० २००७, पृ० ११०,
( प्रमुख अपभ्रंश कृतियों महापुराण, सुदंसण चरिउ, पउमचरिउ, जंबूसामि चरिउ, करकण्डचरिउ), की पाण्डुलिपियों से चयनित अंश और उनका आधुनिक देवनागरी लिपि में रूपान्तरण)
प्राकृत- पाण्डुलिपि चयनिका, सम्पा० डा० कमलचन्द सोगाणी, प्र०सं०
२००६ पृ० ८२
"
( प्रमुख प्राकृत कृतियों भगवती आराधना, अष्ट पाहुड, दशवैकालिक, कुम्मापुत्तचरित्र और उत्तराध्ययन की पाण्डुलिपियों से चयनित अंश और उनका आधुनिक देवनागरी में रूपान्तरण) ।
भारतनी योगविद्या अने जीवन मां धर्म
(पण्डित सुखलाल जीना नव हिन्दी लेखों नो सौ प्रथम गुजराती अनुवाद), अनु० डा० नगीन जे० शाह, सम्पा० जीतेन्द्र बी० शाह, लाल भाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद 2014, पृ0 40, 120
योग और धर्म भारतीय संस्कृति के प्राण सदृश हैं। योग और धर्म का मानव जीवन के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल संघवी जैन विद्या के महान मनीषी रहे हैं। उन्होंने जैन विद्या से सम्बन्धित अनेक पक्षों पर चिन्तन किया और लेखनी चलाई। धर्म और योग से सम्बन्धित उनके लेखों का गुजराती अनुवाद इस पुस्तक में सगृहीत हैं- धर्म बीज और उनका विकास, धर्म
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पुस्तक समीक्षा : 71 और संस्कृति, धर्म और बुद्धि, विकास, मुख्य साधन, योगविद्या, जीवन दृष्टि मां मौलिक परिवर्तन, विश्वशान्ति अने जैनधर्म, गांधी जीनू जैनधर्मने प्रदान,
और धर्म अने विद्यानु तीर्थ-वैशाली। अनुवादक स्व० डॉ० नगीन जे0 शाह जैन दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान् रहे हैं। उनकी विद्वत्तापूर्ण भूमिका भी साथ में है। उनके जीवन की अन्तिम कृति के रूप में विद्वज्जगत् के समक्ष इस पुस्तक को प्रस्तुत करने के लिए एल0डी0 इंस्टीच्यूट आव अण्डोलॉजी के निदेशक डॉ० जीतेन्द्र बी0 शाह बधाई के पात्र हैं।
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