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दलितोद्धारक आचार्य तुलसी-एक अन्तरावलोकन (प्रो० समणी कुसुम प्रज्ञा, जैन विश्वभारती, लाडनूं 2014, पृ. 172, आई0एस0बी0एन0 81-7195-245-3, मूल्य सत्तर रुपये मात्र।)
ओम प्रकाश सिंह तेरापन्थ धर्मसंघ के नवम आचार्य, अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी का व्यक्तित्त्व बहुआयामी था। वे एक प्रगतिशील और क्रान्तिकारी सन्त थे। उनका विचार था कि अस्पृश्यता जैसे कीटाणु का समाज से समूल नाश किये बिना मानव जाति का उत्थान सम्भव नहीं है। जातिवाद और अस्पृश्यता का विष जितना अधिक प्रभावी होगा मानव जाति की एकता को उतना ही बड़ा खतरा होगा। उनके विचार में धर्म और अध्यात्म का लक्ष्य तब तक नहीं पूरा होगा जब तक कि दलितों को राष्ट्र की मुख्यधारा में समाहित नहीं किया जायगा। इतना ही नहीं जब तक वे स्वयं आगे बढ़कर अपने चरित्र-निर्माण का प्रयास नहीं करेंगे, उनकी भौतिक उन्नति सार्थक और उपयोगी नहीं होगी। आचार्य के शब्दों में, ‘जीवन का सर्वतोन्मुखी विकास केवल सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की उपलब्धियों तक ही सीमित नहीं हो सकता। आज हरिजन अनेक सामाजिक और राजनीतिक उच्चपदों पर आसीन हैं, सरकार की ओर से उन्हें अनेक प्रकार की सुविधायें मिलती है, किन्तु जीवन-निर्माण के क्षेत्र में उन्होंने कितनी प्रगति की है, यह उनके लिए सोचने की बात है। केवल पद-प्राप्ति उत्थान नहीं है। स्पष्ट कहूँ तो चरित्र-सम्पन्नता के बिना उच्चपद जीवन के लिए भारभूत है।' इस पुस्तक की लेखिका आगम साहित्य विशेषतः आगमिक व्याख्या साहित्य के सम्पादन एवं अनुवाद के क्षेत्र में महान योगदान करने वाली विदुषी समणी डॉ० कुसुम प्रज्ञा जी ने आचार्य श्री तुलसी द्वारा दलितों के उत्थान की दिशा में किये गये प्रयासों एवं तद्विषयक विचारों को कृति में व्यवस्थित रूप से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। चालीस शीर्षकों के अन्तर्गत वर्णव्यवस्था, जाति