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18 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1/जनवरी-मार्च 2014
श्रृंगार को रसों का राजा या रसराज कहा गया है। भरत इसे उज्ज्वल, पवित्र तथा उत्तम मानकर इसका रसराजत्व सिद्ध करते हैं। इसकी व्यापकता, महत्ता तथा प्रभावान्विता ही इसकी रसराजता का कारण है। शृगांर रस का प्रभाव जड़-चेतन, चर-अचर सभी पर देखा जाता है। अन्य रसों का क्षेत्र उतना व्यापक नहीं है जितना शृगांर का। इसी लिये रस-निर्देश के क्रम में इसे प्रथम स्थान दिया गया है। रसों के क्रम-निर्धारण में विद्वानों ने जैन आचार्यों रामचन्द्र-गुणचन्द्र की कृति नाट्यदर्पण का महत्त्वपूर्ण अवदान माना है। इनके अनुसार सर्वप्रथम श्रृंगार की गणना इसलिए की जाती है कि कामप्रधान है और सर्वसुलभ होने से सभी प्राणियों में पाया जाता है। शृंगार का अनुगामी हास्य है अत: इसके बाद उसे स्थान मिलता है। करुण हास्य का विरोधी है इसलिए उसे तृतीय स्थान प्राप्त है। रौद्र रस, आदि को भी क्रम प्रदान करने का कारण बताया गया है। श्रृंगार के स्थान पर वीर रस को प्रथम स्थान दिये जाने का आधार जैन परम्परा की अपनी पृष्ठभूमि है। निवृत्तिमार्गी जैन परम्परा का प्रमुख लक्ष्य मोक्ष है। तप और साधना इसका आधार है। परित्याग करने में गर्व या पश्चात्ताप न होने, तपश्चरण में धैर्य और शत्रुओं (अन्तः शत्रुओं) का विनाश करने में पराक्रम रूप लक्षण वाले वीर रस को जैन परम्परा में श्रृंगार पर वरीयता दिया जाना स्वाभाविक है।१८ नाट्यदर्पण के अनुसार भी वीर रस को धर्मप्रधान माना गया है।१९ रतिसंयोग अर्थात् सुरत क्रीड़ा के कारणभूत रमणी आदि के साथ संगम की इच्छा को उत्पन्न करने वाला, मण्डनअलंकार, आभूषणों आदि से शरीर को अलंकृत करना, सजाना, विलासकामोत्तेजक नेत्रादि की चेष्टाएं, विब्बोय-विकारोत्तेजक शारीरिक प्रवृत्ति, लीलागमनादिरूप रमणीय चेष्टा और रमण-क्रीड़ा करना रूप लक्षण वाले शृंगार रस को जैन परम्परा में कदापि प्रथम स्थान नहीं दिया जा सकता था। वीर रस की अपेक्षा शृंगार रस को गौण स्थान दिया जाना अपरिहार्य था। दोनों परम्पराओं ने शृंगार रस के स्वरूप का वर्णन करने में पृथक् दृष्टिकोण अपनाया हैं। वैदिक परम्परा में यह कोरी विलासिता या कामुकता का प्रदर्शन न कर यथार्थ के आधार फलक पर अधिष्ठित है और उसका सम्बन्ध उत्तम प्रकृति के स्त्री-पुरुषों से है। आचार्यों ने इसका देवता विष्णु को मानकर