________________
जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 3 राजा की निजी उद्योगशालाएँ भी हुआ करती थीं। आचारांग से ज्ञात होता है कि राजा श्रेणिक ने यान, वल्कल, कोयले और मुंजदर्भ के शल्याध्यक्षों को बुलाया था।१२ राजाओं द्वारा बड़े-बड़े उद्योग चलाने के उल्लेख भी जैन ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। स्थानांग से ज्ञात होता है कि राजाओं की भौतिक सुख सुविधाओं के लिए नव निधियाँ होती थीं।१३ जैन अंग ग्रन्थों में उपलब्ध प्रमुख उद्योगों के विवरण को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता हैवस्त्र उद्योग- ज्ञाताधर्मकथांग में बहत्तर प्रकार की कलाओं का वर्णन मिलता है, इनमें से एक कला वस्त्र बनाना भी थी।१४ विभिन्न प्रकार के वस्त्रों और इन पर किये गये चित्रांकन से अंग-आगम काल में वस्त्र उद्योग की उन्नत अवस्था का पता चलता है। उस समय सुन्दर, सुकोमल और पारदर्शी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था। वस्त्र इतने हल्के होते थे कि नासिका के उच्छ्वास से भी उड़ जाते थे।५ वस्त्रों पर स्वर्ण द्वारा चित्र तथा किनारियाँ भी बनाई जाती थीं। मेघ कुमार की माता रानी धारणी देवी स्वर्णतारों से हंस बने किनारियों वाले वस्त्र पहनती थीं।१६ वस्त्रों को बनाने हेत कपास, सन, रेशम तथा ऊन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। आचारांगसूत्र में पाँच प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख मिलता है- ऊनी वस्त्र (वस्त्र जंगिय), रेशमी वस्त्र (भंगिय), सन अथवा बल्कल से बने (सणिय), ताड़पत्र के रेशों से बने (पोतग) तथा तुलकण, कपास और ओक के डोडों से बने वस्त्र (खोमिय)।७ सूतीवस्त्रों को कपास, सन तथा बाँस के पौधों के रेशों से निर्मित किया जाता था। कपास से सूत बनाने की एक लम्बी प्रक्रिया थी। बृहत्कल्पभाष्य में लिखा है कि सर्वप्रथम 'सडुग' (कपास) को औटकर बीजरहित किया जाता था। तदुपरान्त धुनकी से धुनकर 'पूनी' (रूई) तैयार की जाती थी। नालब उपकरण की सहायता से सूत को भूमि पर फैलाकर आड़ा-तिरछा करके ताना बुना जाता था। स्त्रियाँ भी सूत कातने का कार्य करती थी। जैन साहित्य में साधुओं को कपास ओटती हुई स्त्री से भिक्षा लेना निषेध किया गया था। आचारांगसूत्र में पशु के बाल के निर्मित ऊनी वस्त्र को 'जंगिय' कहा गया है, ये पाँच प्रकार के होते थे- 'मेसाणि' या 'औणिक' (भेड़, बकरी के ऊन