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जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श : 15 की स्थापना की है। ये आठ रस महामना द्रुहिण द्वारा कहे गये हैं। इस प्रकार आठ रस की परिकल्पना सर्वप्रथम द्रुहिण द्वारा की गयी है पर उनकी और उनकी रचना की पहचान नहीं हो सकी है। अतः सामान्यतया नाट्यशास्त्र ही रस-विवेचन का आदिशास्त्र माना जाता है। आचार्य के अभिमत में इन रसों के हेतुभूत रस चार हैं - शृंगार, रौद्र, वीर तथा बीभत्स।४ शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत तथा बीभत्स से भयानक रस की उत्पत्ति होती है।' साथ ही उन्होंने यह भी निरूपित किया है कि शृंगार का अनुकरण करने वाली प्रवृत्ति हास्य, रौद्र का कर्म करुण, वीर का कार्य अद्भुत तथा बीभत्स वस्तु या उसे देखने का कार्य भयानक रस है । ६
भरत के उक्त विवेचन को यहां प्रस्तुत करने का अभिप्राय यह बताना है कि आचार्य भरत द्वारा आठ रसों का ही निरूपण किया गया है- एवमेते रसा सेयात्वष्टौ लक्षणलक्षितः ।
नवें रस के रूप में शान्त रस को कालान्तर में सम्मिलित किये जाने की सम्भावना प्रतीत होती है। महाकवि कालिदास और दण्डी (सप्तम शती का पूर्वार्द्ध) भी भरत द्वारा आठ रसों का ही निरूपण किये जाने की पुष्टि करते हैं। कालिदास ने विक्रमोर्वशीयम्' में उल्लेख किया है- भरत मुनि ने तुम्हारे द्वारा अभिनय करने के लिये आठ रसों से युक्त जो नाटक बनाया है, उस सुन्दर भावपूर्ण नाटक को कुबेरादि लोकपालों के साथ इन्द्र महाराज देखना चाहते हैं। दण्डी ने भी काव्यादर्श' में आठ रसों का ही उल्लेख किया हैग्राम्यता दोष के अभाव तथा माधुर्य से कथन में रसोत्पत्ति हुई। इस प्रकार आठ रसों से युक्त होना रसवत् अलंकार का कारण है। दशरूपककार धनंजय (९७४-९९६ई०) ने भी यह कथन कर कि कुछ विद्वान 'शम' को भी स्थायी भाव बताते हैं परन्तु नाटक में इसकी पुष्टि नहीं होती, आठ रस की ही मान्यता को स्वीकार किया है । १०
परन्तु आचार्य अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र पर अपनी प्रसिद्ध टीका अभिनवभारती (१०१४ - १०१५ ई०) में नाट्यशास्त्र के किसी पाठ के आधार पर जो टीका प्रस्तुत की है उसके अनुसार भरत ने शान्त रस का भी निरूपण किया है। उल्लेखनीय है कि अभिनवभारती में शान्तरस का विस्तृत विवेचन