Book Title: Sramana 2014 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 26
________________ जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श : 19 शृंगार के विश्वकल्याणपरक स्वरूप को उजागर किया है। वस्तुतः साहित्य का श्रृंगार तभी उपयोगी एवं ग्राह्य हो सकता है, जब वह सामाजिक दृष्टि से मान्य हो। धर्म अविरुद्ध काम ही शृंगार रस का सहायक हो सकता है। जब कामोद्रेक उत्तमता के शृंग पर जाय अर्थात् काम का समाजोपयोगी एवं उत्तम रूप प्रस्तुत किया जाय तभी वह शृंगार की भावनाओं को पूर्णकर सकेगा। शृंगार में प्रेम का सहज, स्वस्थ एवं उदात्त रूप चित्रित होना चाहिए। शृंगार रस में उदात्तता का भाव है अत: शृंगार यहाँ रस राज कहा गया है। इस पृष्ठभूमि में जब हम जैन परम्परा में श्रृंगार के लक्षण पर विचार करते हैं तो उसमें शृंगार रस रति अर्थात् सुरत क्रीडा के कारण भूत साधनों के संयोग की अभिलाषा का जनक कहा गया है तथा मण्डन, विलास, हास्य, लीला और रमण ये शृंगार रस के लक्षण बताये गये हैं। भयानक रस के स्थान पर वीडनक रस२१ का प्ररूपण भी जैन परम्परा की अपनी विशेषता है। विनय करने योग्य माता-पिता आदि गुरुजनों का विनय न करने से, गुप्त रहस्यों को प्रकट करने से तथा गुरुपत्नी आदि के साथ मर्यादा का उल्लंघन करने से व्रीडनक रस उत्पन्न होता है। लज्जा और शंका उत्पन्न होना इस रस के लक्षण हैं। इसका उदाहरण नवोढ़ा वधू के कथन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। वधू कहती है- इस लौकिक व्यवहार से अधिक लज्जास्पद बात क्या हो सकती है- मैं तो इससे बहुत अधिक लजाती हूँ। मुझे तो इससे बहुत अधिक शर्म आती है कि वर-वधू के प्रथम समागम होने पर गुरुजन-सास आदि वधू द्वारा पहने वस्त्र की प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार लोकमर्यादा और आचार मर्यादा के उल्लंघन से वीडनक रस की उत्पत्ति होती है। लज्जा आना और आशंकित होना इसके ज्ञापक चिह्न हैं। लज्जा अर्थात कार्य करने के बाद मस्तक का नमित होजाना, शरीर का संकुचित होजाना और दोष प्रकट न होजाय इस विचार से मन का दोलायमान बना रहना। वीडनक का उदाहरण भी स्पष्ट है। किसी क्षेत्र या किसी काल में ऐसी लोक परम्परा रही होगी कि नवोढ़ा को अक्षत योनि प्रदर्शित करने के लिये सुहागरात के बाद उसके रक्तरंजित वस्त्रों का प्रदर्शन किया जाता था परन्तु है यह अतिशय लज्जाजनक।

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