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जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श : 17 जैन परम्परा की इन कृतियों में निरूपित रस-प्रकरण पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण में यह विवेचन संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा के अनुरूप है। काव्यानुशासन में नौ रसों का क्रम नाट्यशास्त्र के ही अनुरूप है- शृंगारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकबीभत्साद्भुतशान्ता नवरसाः।१४ इसी प्रकार नाट्यदर्पण१५ में भी रस-परिगणना में संस्कृत काव्य-शास्त्र की परम्परा के अनुरूप प्रतिपादन किया गया है
___ शृंगार-हास्य-करुणाः, रौद्रवीरभयानकाः। बीभात्साद्भुतशान्ताश्च, रसा: सद्भिःर्नवस्मृताः। श्लोक ९ विवेक ३। जैन परम्परा के इन महान आचार्यों द्वारा अनुयोगद्वार१६ और उसके व्याख्या साहित्य में वर्णित रस-प्रकरण का संज्ञान न लेना विचारणीय है।
जैन कृतियों में प्रशान्त रस के स्वरूप पर विचार का आरम्भ अनुयोगद्वार से किया जाना स्वाभाविक है। अनुयोगद्वार में रस-प्रकरण १८ गाथाओं में निरूपित है। दो-दो गाथाओं में प्रत्येक रस का लक्षण और उदाहरण बताया गया है। इसमें नौ रसों की गणना इस प्रकार की गई है१ वीरो, २ सिंगारो, ३ अब्भुओ य, ४ रुद्दो होइ बोधव्वो। ५ वीलणओ ६ बीभच्छो ७ हासो, ८ कलुणो, ९ पसन्तो। अर्थात् वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, वीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण तथा प्रशान्त रस। अनुयोगद्वारसूत्र में वर्णित रसों के क्रम और नाम से संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा से अन्तर को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है- १. शृंगार के स्थान पर वीर रस को प्रथम स्थान, २. भयानक रस के स्थान पर वीडनक रस, ३. हास्य (२) और करुण (३) को क्रमशः सातवां और आठवां स्थान, ४. शान्त का प्रशान्त नामकरण, ५. रसों के लक्षण में अन्तर।