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16 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1 / जनवरी-मार्च 2014
मिलता है। नाट्यशास्त्र के छठें अध्याय में ८२ एवं ८३ श्लोकों के मध्य शान्त रस से सम्बन्धित पाठ उपलब्ध है। इसके श्लोकों पर क्रम संख्या भी नहीं दी गई है। इस अंश को विद्वान प्रक्षिप्त मानते हैं। इन्हीं श्लोकों पर अभिनवभारती में विवेचन हुआ है। १२ अभिनवगुप्त शान्तरस के पक्षधर हैं। इनके पूर्व काव्यशास्त्रियों में शान्तरस की मान्यता के सम्बन्ध में मतभेद था और यह अत्यन्त विवादग्रस्तविषय था ।
भरत नाट्यशास्त्र के शान्तरस के अंश को प्रक्षिप्त मानने की स्थिति में संस्कृत काव्यशास्त्र परम्परा में शान्तरस का सर्वप्रथम साहित्यिक उल्लेख उद्भट द्वारा अपनी कृति काव्यालंकारसारसंग्रह में किया गया माना जासकता है। डा० हर्मन याकोबी के अनुसार इनका समय नवम शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है। १३ अभिनवगुप्त का समय भी इनके बाद आता है ।
जैन परम्परा में शान्त रस का निरूपण उद्भट से पूर्व आर्यरक्षित रचित चूलिका आगम अनुयोगद्वारसूत्र और उसकी टीकाओं में उपलब्ध होता है। अनुयोगद्वार पर रचित दो व्याख्या उद्भट से पूर्ववर्ती हैं- जिनदासगणि महत्तर की अनुयोगद्वारचूर्णि और याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र की अनुयोगद्वार शिष्यहितावृत्ति। अनुयोगद्वार के कर्त्ता का काल ईसा की प्रथम शताब्दी है । जिनदासगणि महत्तर प्रमुख चूर्णिकार हैं और इनका समय छठीं -सातवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य हरिभद्र का समय सातवीं-आठवीं शती माना जाता है। ग्यारहवीं-बारहवीं शती में उत्पन्न मलधारि हेमचन्द्र ने भी अनुयोगद्वार पर टीका की रचना की है। ये कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र से भिन्न हैं। इन तीनों टीकाओं में सम्बद्ध अंश की व्याख्या में शान्तरस का विवेचन आया है।
शान्तरस का विवेचन कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र की कृति काव्यानुशासन और उनके शिष्यद्वय रामचन्द्रसूरि और गुणचन्द्रसूरि द्वारा लिखित नाट्यदर्पण में भी मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र का काल १०८८-११७२ है। इस प्रकार उद्भट से पूर्व तीन जैन कृतियों अनुयोगद्वारसूत्र, अनुयोगद्वारचूर्णि और अनुयोगद्वार - शिष्यहितावृत्ति में शान्तरस का विवेचन मिलता है। मलधारि हेमचन्द्र रचित अनुयोगद्वार टीका, काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण उद्भट से परवर्ती काल की रचनायें हैं।