Book Title: Sramana 2014 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 34
________________ जैन अभिलेखों का वैशिष्ट्य : 27 कला एवं वास्तुकला के सम्बन्ध में भी प्राथमिक सूचना देने का श्रेय जैन अभिलेखों को ही है। कलिंग जिन अर्थात् कलिंग देश में पूजित जैन तीर्थंकर की प्रतिमा का ज्ञान हमें हाथी गुम्फा अभिलेख से होता है। अतः चतुर्थ शताब्दी ईसापूर्व में जिन मूर्ति की ऐतिहासिकता की सम्भावना पर विचार कर सकते हैं। इसी प्रकार जैन स्तूपों के अस्तित्व के प्राचीनतम सन्दर्भ हमें जैन अभिलेख से प्राप्त होते हैं। मथुरा से एक अभिलेख में वादेव स्तूप का उल्लेख है और इसे देवनिर्मित कहा गया है ।१५ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में निर्मित यह स्तूप इतना प्राचीन था कि इसके निर्माता को लोग भूल चुके थे और इसे देवनिर्मित मानने लगे थे। मूर्ति एवं स्तूप के समान मंदिर के अस्तित्व की सूचना हमें जैन अभिलेखों से ही प्राप्त होती है। मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में श्रावक उत्तरदास द्वारा एक ज़िन मन्दिर के तोरण (पासादोतोरण) दान देने का उल्लेख है । १७ अहिंसा को सर्वोपरि मानने वाले जैन धर्मावलम्बी राष्ट्ररक्षा में कितने तत्पर थे इसका संकेत हमें जैन अभिलेखों से ही प्राप्त होता है। हमने पूर्वपृष्ठों में गंग राजवंश के संदर्भ में देखा था कि स्वयं जैन आचार्य ने युद्ध में पीठ न दिखाने का निर्देश दिया है अर्थात् युद्ध भूमि में मान-सम्मान की रक्षा में प्राणोत्सर्ग करना इस अहिंसावादी धर्म में भी पुण्य का कार्य था। जैन धर्मावलम्बी नरेशों एवं व्यक्तियों ने उत्साहपूर्वक इस कार्य को सम्पन्न किया। महाराज खारवेल ने दमित या दिमित को अपनी राज्य सीमा से मार भगाया था। इसे हिन्द-यवन नरेश डिमेट्रियस से समीकृत किया गया है। यदि यह समीकरण नहीं है तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि खारवेल ने गार्गी संहिता में वर्णित यवनों के भयावह आक्रमण से मुक्ति दिलायी थी। यही नहीं, मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में गौप्तीपुत्र इन्द्रपाल को प्रोस्थ के सम्भवतः पहलवी एवं शकों के लिए काला नाग (पोङ्गयशयक कालवालस) बताया गया है। सम्भवतः इस वीर सैनिक ने प्रोस्थकों एवं शकों से कड़ा संघर्ष किया था । १८ इसी प्रकार जैन अभिलेख विदेशियों के भारतीयकरण की प्रक्रिया के जीवन्त साक्ष्य हैं। यहाँ पर शासन करने वालो विदेशियों में भारतीय धर्मों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व से ही प्रारम्भ हो चुकी थी जिसके स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त होते हैं। गरुड़ध्वज अभिलेख से स्पष्ट है कि यवन हेलियोडोरस ने भागवत धर्म के प्रति अपनी अभिरुचि प्रदर्शित की थी। इसी प्रकार हिन्द- भवन नरेशों के मुद्रा

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