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28 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 1 / जनवरी - मार्च 2014
साक्ष्य एवं बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्दप्रश्न से गहरी रुचि रखता था । ठीक इसी तरह मथुरा से प्राप्त जैन अभिलेखों एवं शकों एवं यवनों द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने की प्रवृत्ति का पता चलता है। एक आयागपट पर उत्कीर्ण लेख से स्पष्ट है कि इसतिका, ओरवा, ओटवारिका नाम की स्त्रियों ने जैन धर्म के प्रति भक्ति-भाव का प्रदर्शन किया था। ये नाम प्रचलित भारतीय नामों से इतर हैं जिसके आधार पर अधिकांश इतिहासकारों ने इन्हें सीथियन माना है । १९
जैन अभिलेख पारस्परिक सौहार्द एवं सद्भाव का ज्वलन्त उदाहरण पेश करते हैं। मुस्लिम धर्म के प्रभावी होने अर्थात् १३वीं शताब्दी के पहले प्रायः प्रत्येक भारतीय नरेश धार्मिक सहिष्णुता के प्रतिमान पर खरा उतरा है और इसकी पुष्टि जैन अभिलेखों से होती है। भारतीय नरेशों (उनका व्यक्तिगत धर्म या विश्वास कुछ भी रहा हो) का सभी धर्मों के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय योगदान था ओर वे किसी विशिष्ट धर्म की प्रगति में बाधक नहीं बने। उदाहरणार्थ अधिकांश गुप्त सम्राट भागवत धर्मावलम्बी थे लेकिन उनके काल में जैन धर्म सदैव प्रगति के पथ पर अग्रसर रहा। महाराज हर्ष की सत्ता - समाप्ति के पश्चात् राजपूत युग प्रारम्भ होता है। हमें यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि प्रायः प्रत्येक राजपूत राजा ने जैन धर्म के विकास में अपना सक्रिय योगदान दिया। इन राजवंशों में चाहे उत्तर भारत के गुर्जर-प्रतिहार, परमार, चन्देल, गहड़वाल, चाहमान, चापोत्कट, सोलंकी या चौलुक्य रहें हो अथवा दक्षिण भारत के पल्लव, राष्ट्रकूट, चोल, चालुक्य, होयसल - सभी के अधिकांश अभिलेखों में जैन बसदि एवं मंदिरों को दान देने का उल्लेख प्राप्त होता है । चोल राजवंश शैव धर्मावलम्बी थे उनके सैकड़ों अभिलेखों में जैन धर्म के प्रति उदारता दिखायी देती है। जैन आचार्य भी अपने उच्च विचार एवं आदर्श जीवन के कारण नरेशों के कृपा पात्र रहे। वास्तव में, जैन अभिलेखों में भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतिमान दिखायी देता है। इस संदर्भ में नाडोल शाखा के चाहमान राजवंश के राजपुत्र कीर्तिपाल का अभिलेख अत्यन्त प्रासंगिक है। कीर्तिपाल आल्हणदेव का पुत्र था। युवराज ने सूर्य एवं शिव की उपासना के उपरान्त महावीर के जिन मन्दिर को १२ गाँव दान में दिया था। इसी अभिलेख में ब्रह्मा, श्रीधर (विष्णु) तथा शिव के साथ जिन की वन्दना की गई है क्योंकि ये सभी राग से परे हैं