Book Title: Sramana 2014 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 39
________________ जैन कला एवं परम्परा में बाहुबली: आदर्श एवं यथार्थ की पृष्ठभूमि डॉ० शान्ति स्वरूप सिन्हा जैन परम्परा में बाहुबली साधना एवं त्याग के प्रतीक के रूप में पूज्य हैं। तीर्थंकरों के पश्चात् जैन परम्परा एवं कला में बाहुबली को ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। उनका चरित्र इस तथ्य को प्रतिष्ठापित करता है कि त्याग, साधना, अपरिगह ही यश का मूल है, सम्पत्ति कालक्रम में नष्ट हो जाने वाली है जबकि यश सदैव स्थिर रहने वाला है। इस लेख में बाहुबली के साहित्यिक उल्लेख और अंकन में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में साम्य और भेद को भी रेखाङ्कित किया गया है। बाहुबली के साहित्यिक विवरण और कलात्मक अभिव्यक्ति के तुलनात्मक विवेचन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के आदर्श एवं यथार्थ को प्रस्तुत करना इस लेख का अभीष्ट है। ___ -सम्पादक भारतीय संस्कृति का मूल आधार आदर्श एवं नैतिकता रही है। मर्यादा की डोर से बँधा जीवन ही समाज द्वारा मान्य किया जाता है और वही नीति है। वस्तुतः नैतिकता उन सामाजिक नियमों एवं आदर्शों के समुच्चय को कहा जाता है जो मनुष्य के व्यवहार एवं आचरण को नियंत्रित एवं नियमित करे और जिससे समाज में व्यवस्था एवं सन्तुलन बना रहे। प्राचीन भारतीय कला एवं परम्परा में आदर्शों को स्थापित करने के निमित्त अनेक आख्यानों एवं स्वरूपों की कल्पना की गयी, जो वर्तमान में यथार्थ के पथ-प्रदर्शक प्रतिमान के रूप में हमारे समान उपस्थित है। जैन परम्परा भी भारतीय संस्कृति की अभिन्न अंग रही है और इस परम्परा में भी भारतीय परम्परा के आदर्श की स्थापना के अनेक आख्यान उपलब्ध हैं। जैन कला एवं परम्परा में बाहुबली को आदर्श के प्रतिमान के रूप में कला एवं साहित्य दोनों स्तरों पर प्रतिष्ठित किया गया है। प्रस्तुत लेख में बाहुबली के साहित्यिक उल्लेख और कलात्मक अभिव्यक्ति के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से भारतीय संस्कृति के आदर्श एवं यथार्थ को रेखांकित करना हमारा अभीष्ट है। जैन परम्परा में तीर्थंकरों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है और उन्हें देवाधिदेव माना गया है। तीर्थंकरों के पश्चात् जैन परम्परा एवं कला में बाहुबली को ही

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