Book Title: Sramana 2014 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 21
________________ जैन रस बोध में धर्मीय भावादर्श डा० अशोक कुमार सिंह आचार्य भरत द्वारा नाट्यशास्त्र में निरूपित आठ रसों के विवेचन को ही प्रामाणिक माना जाता है। इन आठ रसों में शान्त रस उल्लिखित नहीं है। यद्यपि नाट्यशास्त्र के एक संस्करण के आधार पर उसकी टीका में अभिनवगुप्त ने नवम रस शान्त का विस्तृत विवेचन किया है। परन्तु नाट्यशास्त्र के अन्तः साक्ष्यों से भी स्पष्ट है कि भरत ने आठ रसों का ही निरूपण किया है। अत: विद्वानों के अनुसार नाट्यशास्त्र में शान्त रस वाला वह विवरण प्रक्षिप्त है। भरत का अनुसरण करते हुए महाकवि कालिदास और दण्डी ने भी रसों की सख्या आठ मानी है। संस्कृत साहित्य में नवें रस के रूप में शान्तरस का सर्वप्रथम प्रतिपादन उद्भट द्वारा माना जाता है। इनका समय नवीं शती के पूर्वार्द्ध के लगभग स्वीकृत है। इसके विपरीत जैन परम्परा में शान्त रस का विवेचन इससे शताब्दियों पूर्व में रचित ग्रन्थ और उसकी टीकाओं में मिलना आरम्भ हो जाता है। आर्यरक्षित रचित चूलिका आगम अनुयोगद्वारसूत्र और उसके कुछ व्याख्याकारों का समय निश्चित रूप से उद्भट के पूर्व है। साथ ही यह भी आश्चर्यजनक है कि जैन परम्परा के महान आचार्य कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र और उनके महान शिष्यों रामचन्द्र-गुणचन्द्र सूरि ने तद्विषयक अपने विवेचन में अनुयोगद्वारसूत्र प्रतिपादित तथ्यों का अनुसरण न करते हुए संस्कृतकाव्य शास्त्र परम्परा का अनुसरण किया है। रस-स्वरूप निरूपण और रसों के क्रम-निर्धारण में भी परम्परा का प्रभाव दिखाई पड़ता है। प्रस्तुत लेख में इन्हीं तथ्यों पर विचार किया गया है। -सम्पादक आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र के षष्ठ 'रसाध्याय' में रस-निष्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है- विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:१ अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारि भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। आचार्य भरत के रस-निष्पत्ति सम्बन्धी सूत्र की व्याख्या करते हुए भट्टलोल्लट, शंकुक, भट्टनायक तथा अभिनवगुप्त ने क्रमश: उत्पत्तिवाद (आरोपवाद), अनुमितिवाद, भुक्तिवाद (भोगवाद) और अभिव्यक्तिवाद- इन चार सिद्धान्तों

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