Book Title: Sramana 2014 01
Author(s): Ashokkumar Singh, Omprakash Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 14
________________ जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 7 भाण्ड उद्योग : प्राचीन युग में मिट्टी के बर्तन का सर्वाधिक उपयोग होता था। जम्बूद्वीप प्रज्ञाप्ति तथा प्रज्ञापनासूत्र से ज्ञात होता है कि 'मृण्भाण्ड' बनाने वाले को कुम्हार तथा धातु के बर्तन बनाने वाले को कोलालिक कहते थे।५३ ज्ञाताधर्मकयांग में कुम्हारों की दुकान (कमोरशाला) का उल्लेख आया है जहाँ से नूतन घड़े खरीदे जाते थे । १४ उपासकदशांग में भी कुम्हार के कर्मस्थान को 'कुमारशाला' कहा गया है, यहाँ पर भगवान महाबीर ने आश्रय लिया था । कुम्हार जल द्वारा मिट्टी को गीला करता था तथा उसमें सार और करीष मिलाकर मिश्रण तैयार करता था तथा उस मिश्रण को चाक पर रखकर बर्तन का आकार देता था तथा सूत और दण्ड की सहायता से उसे बाहर निकालता था। ५६ काष्ठ उद्योग : पुरातन युग में लकड़ी के उपकरणों का अत्यधिक महत्त्व था। लकड़ी काटने वाले को 'वणकम्म' कहते थे और लकड़ी काटने के लिए कुल्हाड़ी और फरसे का प्रयोग होता था।" लकड़ी से ओखल, मूसल, पीढ़े, रथ, पालकी, यान, हल, जुआ, पाटा आदि उपकरणों का निर्माण होता था । ५८ प्राचीन युग में भवनों के द्वार, गवाक्ष, सोपान, कंगूरे आदि काष्ठ से निर्मित किये जाते थे । १९ ज्ञाताधर्मकथांग से यह स्पष्ट होता है कि काष्ठ के द्वारा ही नाव की मेढ़ी (मोटा लट्ठा) जो सब पट्टियों का आधार होता था, माल (व्यक्ति के बैठने का ऊपरी भाग) आदि निर्मित किया जाता था।° गोशीर्ष चन्दन की लकड़ी तथा तिनिश की लकड़ी को बहुमूल्य माना जाता था । तिनिश की लकड़ी का प्रयोग यान तथा रथ आदि वाहनों में किया जाता था । ६१ तेल उद्योग : प्राचीन काल में तिल, अरसी, सरसों, एरण्ड आदि से तेल निकाला जाता था।६२ बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार तेल निकालने की क्रिया को 'जंतपीलणकम्म' (यंत्र पीड़न कर्म ) कहा जाता था । ६३ मुख्य रूप से खाने के अतिरिक्त तेलों का उपयोग औषधियों के रूप में होता था। विभिन्न प्रकार की औषधियों को मिश्रित कर तेल बनाये जाते थे। सौ औषधियों के साथ पकाए गये तेल को 'शतापक' तथा सहस्त्र औषधियों में पकाए जाने वाले तेल को 'सहस्त्रपाक' कहा जाता था। शतपाक और सहस्त्रपाक तेल होते थे, इनसे उस युग में आयुर्वेद की उन्नत मूल्यवान

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