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__ जैन अंग साहित्य में वर्णित उद्योग-धन्धे : 9 धारिणी देवी के शयनागार की छत लताओं, पुष्पावलियों तथा उत्तम चित्रों से अलंकृत थी। इसी प्रकार मल्लीकुमार ने अपने चित्रकार श्रेणी को बुलाकर चित्रसभा बनाने का आदेश दिया। चित्रकार रंग और तूलिकायें लाकर चित्र-रचना में प्रवृत्त हो गये।७६ बृहकल्पभाष्य से विदित होता है कि एक विदुषी गणिका ने अपनी चित्रसभा में विभिन्न उद्योगों से संबंधित चित्र बनवा रखे थे। जब कोई आगन्तुक चित्र विशेष की ओर आकर्षित होता था तो वह उसकी रुचि का अनुमान लगा लेती थी।७७ रंग उद्योग : जैनग्रंथों में कषाय, हरिद्र, रक्त, नील, पीत आदि रंगों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में भी चित्रों तथा वस्त्रों को रंग से निखारा जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग से यह ज्ञात होता है कि राजा श्रेणिक ने कषाय (केसर) रंग से रंग हुए वस्त्र से शरीर को पोछा।८ कृमिराग से रंगे कम्बल, वीणा, लालरंग के हल्दी एवं चिकुर से रंगे वस्त्र पीत वर्ण के, नीले से तथा काली स्याही से रंगे पदार्थ काले रंग के होते थे।७९ मद्य उद्योग : आचारांगसूत्र में मदिरालय को पानस्थल कहा गया है। भिक्षुओं को मद्य सेवन का निषेध था। स्थानांगसूत्र में भी मद्य को बार-बार विकृति की संज्ञा दी गई है।८१ मद्यपान विलासिता की वस्तु थी। इसके दुष्परिणामों के कारण ही इसे घृणा की दृष्टि से देखा गया है। परन्तु फिर भी पर्व और उत्सवों में जनता भी मद्यपान करती थी। औषधि के रूप में भी मद्य का प्रयोग किया जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग से विदित होता है कि शौनक राजर्षि को एक चिकित्सक ने भोजन, औषध के साथ-साथ मद्यपान की भी सलाह दी थी।८२ बृहत्कल्पभाष्य में विभिन्न वस्तुओं से मंदिर निर्माण किए जाने का उल्लेख मिलता है। गुड़ से बनाई जाने वाली मदिरा को गौड़ो, चावल से बनाई गई मंदिरा को पेष्टी, बांस के अंकुरों से बनी मदिरा को वंशीण तथा फलों से निर्मित मदिरा को ‘फलसुराण' कहा जाता था।३ सिलाई उद्योग : वस्त्रों को बनाने के बाद उनकी सिलाई भी की जाती थी। सिलाई की कला भी ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित बहत्तर कलाओं में से एक कला थी। सिलाई करने में दक्ष पुरुष, स्त्रियाँ, जनसाधारण से लेकर समृद्ध तथा सम्पन्न व्यक्तियों के वस्त्र सिला करते थे। आचारांगसूत्र में सिलाई में उपयोग में आने वाले उपकरणों का उल्लेख आया है जैसे