Book Title: Sramana 2012 01
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ आठ योगदृष्टियाँ (आचार्य हरिभद्रकृत योगदृष्टिसमुच्चय के आलोक में) प्रो0 सुदर्शन लाल जैन आचार्य हरिभद्रसूरि (ई0 सन् 757-827) जैन श्वेताम्बर परम्परा के एक महनीय विद्वान् हैं जिन्होंने जैन परम्परा में प्रचलित 'योग' शब्द का अर्थ मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों के अतिरिक्त आध्यात्मिक अर्थ में भी किया है। संवर, ध्यान, तप आदि शब्द जो जैन आगमों में मिलते हैं वे इसी आध्यात्मिक योग के बोध क हैं। आज दोनों अर्थ (1. मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तथा 2. मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को रोककर किसी एक विषय पर केन्द्रित करना अथवा अन्तर्मुखी होकर आत्मलीन होना) जैन परम्परा में प्रचलित हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने यहाँ द्वितीय अर्थ को दृष्टि में रखकर 'योग' शब्द का प्रयोग किया है और योग-विषयक छः ग्रन्थों की रचना की है- 1. योगशतक, 2. योगविशिका, 3. ब्रह्मसिद्धान्तसार, 4. योगदृष्टिसमुच्चय, 5. योगबिन्दु और 6. षोडशक। इनमें से प्रथम दो प्राकृत भाषा में हैं और शेष चार संस्कृत में। अन्य आचार्यों की रचनाओं में भी अध्यात्म-ध्यान योग विषयक सामग्री का अवलोकन किया जा सकता है। अध्यात्म योग के लिए आवश्यक है मन को संयमित करना क्योंकि इन्द्रियों की चंचलता में कारण है 'मन'। मन की चंचलता ही आत्मध्यान में बाधक है तथा एकाग्रता में भटकाव की जननी है। मन की अस्थिरता के कारण ही राग-द्वेष आदि कषायभाव पैदा होते हैं जो कर्मबन्ध में कारण बनते हैं। योग-साधना में मन पर नियंत्रण आवश्यक है। अतः योगदर्शन में पतंजलि ने चित्तवृत्तिनिरोध को योग कहा है। आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में पातंजल अष्टांगयोग को माध्यम बनाकर आठ प्रकार की योगदृष्टियों (आत्म-विकास की भूमिकाएँ) का वर्णन करते हुए उनकी गुणस्थानों में योजना की है। आत्मशक्ति का विकास या स्वरूपोपलब्धि ही जैन साधना-पद्धति का लक्ष्य है। आत्मशक्ति की अविकसित और विकसित अवस्थाओं की क्रमिक योजना इन्हीं चौदह गुणस्थानों में की गई संसार-परिभ्रमण का मुख्य कारण है 'कर्मबन्ध' और कर्मबन्ध का मुख्य कारण है 'राग-द्वेष रूप कषायें"। कर्मबन्ध के कारण ही शरीर-इन्द्रियों आदि की प्राप्ति होती है और पश्चात् राग-द्वेषवश विषय-भोगों का ग्रहण और पुनः कर्मबन्धा'

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