Book Title: Sramana 2009 01 Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 6
________________ पतञ्जलि का अष्टांग योग तथा जैन योग-साधना 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः " चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णत: निरोध योग है। वस्तुतः चित्त वृत्तियाँ ही संसार हैं, बन्धन हैं। जब तक वृत्तियाँ सर्वथा निरुद्ध नहीं हो जातीं, आत्मा को अपना शुद्ध स्वरूप विस्मृत रहता है। उसे मिथ्या सत्य जैसा प्रतीत होता है। योग-साधना में इस मिथ्या प्रती का ध्वस्त हो जाना, आत्मा का शुद्ध स्वरूप अधिगत कर लेना अथवा अविद्या का आवरण क्षीण हो जाना, आत्मा का परमात्म-स्वरूप बन जाना ही साधक का चरम ध्येय होता है । उस चरम ध्येय की प्राप्ति ही बन्धन से छुटकारा है। वही सत्-चित्-आनन्द की प्राप्ति है। इस स्थिति को पाने के लिए चैतसिक वृत्तियों को सर्वथा रोक देना, मिटा देना आवश्यक है। इस आवश्यकता की पूर्ति का मार्ग योग है। महर्षि पतंजलि ने योग के अंगों का निम्नांकित रूप में उल्लेख किया है। 'यम नियमासन प्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि । ' अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि - पतञ्जलि ने योग के ये आठ अंग बताये हैं। इनका अनुष्ठान करने से चैतसिक मल अल्पगत हो जाते हैं। फलतः साधक या योगी के ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति तक पहुँच जाता है। दूसरे शब्दों में उसे बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियों से सर्वथा भिन्न आत्मस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है । यही 'तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् की स्थिति द्रष्टा केवल अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। तब श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ जनवरी-मार्च २००९ डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय' आचार्य हरिभद्र की योग-साधना आचार्य हरिभद्रसूरि अपने युग के परम प्रतिभाशाली विद्वान् थे। वे बहुश्रुत थे, समन्वयवादी थे, माध्यस्थवृत्ति के थे। उनकी प्रतिभा उनके द्वारा रचित अनुयोग-चतुष्टयविषयक धर्मसंग्रहणी (द्रव्यानुयोग), क्षेत्रसमास- टीका (गणितानुयोग), पञ्चवस्तुक, धर्मबिन्दु (चरणकरणानुयोग), समराइच्चकहा (धर्मकथानुयोग ) तथा अनेकान्त जयपताका (न्याय) व भारत के तत्कालीन दर्शन आम्नायों से सम्बद्ध षड्दर्शन समुच्चय आदि ग्रन्थों से प्रकट है। योग के सम्बन्ध में जो कुछ उन्होंने लिखा, वह केवल जैन- योग साहित्य में ही नहीं, बल्कि आर्यों की समग्र योग-विषयक चिन्तनधारा में एक मौलिक वस्तु है। जैन शास्त्रों में आध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन चतुर्दश गुणस्थान तथा बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा इन आत्म- अवस्थाओं आदि को लेकर किया गया है। आचार्य हरिभद्र ने उसी अध्यात्म-विकास-क्रम को योगरूप में निरूपित किया है। उन्होंने ऐसा करने में जिस शैली का उपयोग किया है, वह संभवतः अब तक उपलब्ध योग विषयक ग्रन्थों में प्राप्त नहीं है। उन्होंने इस क्रम को आठ योग दृष्टियों के रूप में विभक्त किया है। योगदृष्टिसमुच्चय में उन्होंने निम्नांकित प्रकार की आठ दृष्टियाँ बताई हैं - जैन दर्शन के अनुसार केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक सुख, क्षायिक सम्यक्त्व आदि आत्मा के मूल गुण हैं, जिन्हें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय आदि कर्मों ने अवरुद्ध या आवृत कर रखा है। आत्मा पर आच्छन्न कर्मावरणों सर्वथा अनावरण से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है । उसी परम शुद्ध निरावरण आत्म-दशा का नाम मोक्ष है। * सह-निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी०आई० रोड, क्रौंदी, वाराणसी 'मित्रा तारा बला, स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत । । ' इन आठ दृष्टियों को आचार्य हरिभद्र ने ओघदृष्टि और योगदृष्टि के रूप में दो भागों में बाँटा है। ओघ का अर्थ हैप्रवाह । प्रवाहपतित दृष्टि ओघदृष्टि है। दूसरे शब्दों में अनादि संसार-प्रवाह में ग्रस्त और उसी में रस लेने वाले भावाभिनन्दी प्रकृत् जनों की या लौकिक पदार्थ विषयक सामान्य दर्शन ओघदृष्टि है।Page Navigation
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