Book Title: Sramana 2009 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 57
________________ ५२ श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९ बौद्धों की तरह जैन धर्मानुयायियों ने भी गणिकाओं आदर की दृष्टि से देखा जाता था। (नगर बधुओं) को सम्मान प्रदान किया तथा उन्हें श्रमणों की अभिलेखों के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि उपासिका के रूप में स्वीकार किया। यहाँ से प्राप्त एक अन्य जैन धर्म में स्त्रियों द्वारा किये जाने वाले धार्मिक क्रियाअभिलेख से विदित होता है कि प्राचीन काल में गणिकाओं कलापों को मान्यता प्राप्त थी तथा इस सम्बन्ध में स्त्री-पुरुषों को भारतीय संस्कृति के एक अंग के रूप में स्वीकार किया में किसी प्रकार का भेद नहीं था। कुछ जैन अभिलेखों से गया था। नर्तक फल्गुयश की पत्नी शिवयशा द्वारा अर्हत् पूजा तत्कालीन शिक्षा पद्धत्ति पर भी प्रकाश पड़ता है। ८७५ ई० के हेतु आयागपट्ट बनवाने का उल्लेख प्राप्त होता है। एक अन्य सौदन्ति अभिलेख से पता चलता है कि राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण अभिलेख में गन्धिक की पत्नी द्वारा जिनप्रतिमा दान देने का की अधीनता में रहने वाला अधिपति पृथ्वीराम, पूर्व में पूज्य उल्लेख करता है।२७ १०६२ ई० के हुमच्च अभिलेख से पता ऋषि मैलापतीर्थ के कारेयगण में एक विद्यार्थी था। इस चलता है कि वीरशान्तर की पत्नी चागल देवी ने वल्लिगावे में विवरण से ज्ञात होता है कि जैन गण न केवल धार्मिक चागेश्वर नामक एक मन्दिर बनवाकर महादान पूर्ण करने के व्यवस्था का संचालन करते थे, अपितु ब्राह्मण तथा बौद्ध निमित्त बहुत से ब्राह्मणों को कुमारियां भेंट की।८ जैन उपासकों संघों की तरह शिक्षा की व्यवस्था भी करते थे। निश्चय ही गणों द्वारा ब्राह्मणों को सम्मानित करने का यह दुर्लभ उदाहरण है। द्वारा दी जाने वाली शिक्षा मूलत: धार्मिक रही होगी। अभिलेख में उल्लेखित ब्राह्मण सम्भवतः पुजारी रहे होंगे तथा उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जैन अभिलेखों कुमारियाँ भेंट करने का उल्लेख देवदासी प्रथा की ओर इंगत में प्राचीन भारतीय समाज का दिग्दर्शन एक अलग रूप में करता है। १११२ ई० का आलहल्लि अभिलेख पाषाण शिल्पी होता है। अधिकांश जैन अभिलेख दानात्मक हैं। दान करने कालोप (शासन के पदाधिकारी) द्वारा नर्तकियों को दान देने वाले व्यक्ति जैन धर्म के सामान्य उपासक थे तथा विभिन्न का उल्लेख करता है.२९ जो आश्चर्यजनक है। सम्भवतः ये सामाजिक-आर्थिक वर्गों के सदस्य थे। इस बात का स्पष्ट नर्तकियां देवालयों में नृत्य करने वाली देवदासियाँ थीं तथा संकेत मिलता है कि पूर्व-मध्यकाल में जैन धर्म की सर्वाधिक शासन के पदाधिकारी द्वारा दिये जाने वाले दान से स्पष्ट होता लोकप्रियता व्यापारी वर्ग में थी, चाहे वे किसी वर्ण से सम्बन्धित है कि उस समय देवालय की नर्तकियों या देवदासियों को रहे हों। सन्दर्भः १. उत्तराध्ययनसूत्र, २५/३३, विपाकसूत्र, १/५/६ १२. जैन शिलालेख संग्रह, भाग -२, अभिलेख -४१, २. आचरांगसूत्र, १/२/१३६ ४२, ६२ तथा ६९ ३. उत्तराध्ययनसूत्र, २५/१९-२९ १३. जैन, जगदीश चन्द्र, जैन आगम साहित्य में भारतीय ४. कल्पसूत्र, सूत्र संख्या -२७ समाज़, पृ० -१५४ ५. जैनशिलालेख संग्रह, भाग -२, अभिलेख -१९८१४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, अभिलेख-१९४, ६. उत्तराध्ययनसूत्र, अ० -१२, श्लोक -१, २ १९७, २१८, भाग-४, अभिलेख-१३३, १४२, १५२, ७. जैन शिलालेख संग्रह, भाग -२, अभिलेख -३१,५४ भाग-३, अभिलेख-३०५, ३१६, ३२७, ३६७ ८. वही, अभिलेख -५५ १५. वही, भाग-२, अभिलेख-९०-१०६, भाग-३ - ९. उत्तराध्ययनसूत्र, अ० -१९, श्लोक -६६ अभिलेख-३३३, ३५६ भाग-४, अभिलेख-१३६, १६५, १०. जैन शिलालेख संग्रह, भाग -२, अभिलेख -६७ भाग-५ -अभिलेख -४१ ।। ११. धम्मपद अट्ठकथा-१, पृष्ठ-३८४ जैन, जगदीश चन्द्र, १६. वही, भाग-२, अभिलेख-१९७, २००, २१८, भाग जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृष्ठ-१४२ ३, अभिलेख-३०५, ३१६, ३६७, साउथ इण्डियन

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