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पूर्व-मध्यकालीन जैन अभिलेखों में वर्णित समाज
मथुरा के जैन अभिलेखों के अध्ययन से विदित होता चलता है कि उस समय सुगन्धित पदार्थों का बाजारों में क्रयहै कि सामाजिक व्यवस्था में निम्न समझे जाने वाले लोगों की विक्रय होता था। सुगन्धित पदार्थों के विक्रयकर्ता को गन्धी तथा आस्था जैन धर्म में अधिक थी, क्योंकि जैन धर्म में ब्राह्मणों उनकी दुकानों को गन्धशाला के नाम से जाना जाता था।१३ की जातिगत श्रेष्ठता तथा शूद्र की निम्नता का विरोध किया उपर्युक्त जैन अभिलेखों से विदित होता है कि मथुरा के आसगया था। उत्तराध्ययनसूत्र से पता चलता है कि चाण्डाल कल पास विकसित विभिन्न शिल्पियों ने जैन धर्म को स्वीकार किया में उत्पन्न हरिकेशबल महान साधक थे। इससे स्पष्ट होता है था। इन शिल्पियों का व्यवसाय इनके सामाजिक स्थिति का कि जैन धर्म में निम्नवर्ग के लोगों को आने के लिए प्रोत्साहित परिचायक है। जैन धर्म में इन शिल्पियों को आदर की दृष्टि से किया जाता था तथा उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता था। देखा जाता था तथा इनके द्वारा जैन धर्म को समर्पित वस्तुओं मथुरा के जैन अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि जिन्होंने को ससम्मान स्वीकार किया जाता था। जिनप्रतिमा आयागपट्ट आदि प्रतिष्ठापित कराये वे विविध शिल्पी वर्ग के लोगों के साथ ही जिनप्रतिमाओं तथा शिल्पों से सम्बद्ध थे, जो उनके सामाजिक-आर्थिक स्तर के आयागपट्टों के समर्पणकर्ता श्रेष्ठिवर्ग के लोग भी थे। कुछ परिचायक थे। यहाँ के दो अभिलेखों में लोहवणिक एवं दानकर्ताओं में शासक वर्ग एवं पदाधिकारी वर्ग के लोग भी लोहकार श्रमण के पुत्र गोट्टिक द्वारा दान देने का उल्लेख थे।५ उपर्युक्त साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि जैन धर्म शिल्पी मिलता है। यहीं के एक अन्य अभिलेख में सीह के पुत्र गोव वर्ग, श्रेष्ठि वर्ग, शासक वर्ग, पदाधिकारी वर्ग आदि के द्वारा (गोप) लोहकार द्वारा एक सरस्वती प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराने पोषित एवं पल्लवित हुआ। इनकी निष्ठा जैन धर्म में होने के का उल्लेख मिलता है। अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि कारण जैन समाज का स्वरूप विस्तृत हआ। लोहकार तथा लोहवणिक अलग-अलग वर्ग के थे। लोहकार जैन धर्म को श्रेष्ठियों का समर्थन पूर्व-मध्यकाल में वर्ग के लोग लोहे की वस्तुयें निर्मित करते थे, जबकि लोहवणिक ही मिलना प्रारम्भ हो गया था। क्योंकि अधिकांश जैन अभिलेख वर्ग के लोग लोहे की वस्तुओं का व्यवसाय करते थे। जैन लगभग १००० ई० के बाद के हैं, जिनमें श्रेष्ठियों का जैन आगमों के अनुसार लोहार वर्ग के लोग कृषि कार्य हेतु हल, उपासकों के रूप में वर्णन हुआ है, जैसे-मणिक्क सेट्ठिा, कुदाल, आदि तथा लकड़ी काटने हेतु कुल्हाड़ी, बसुला आदि वाचरयसेट्ठि के जमाता वीररयसेट्ठि, नरसिंगरय सेट्ठि, बनाकर बेचते थे। इनका व्यापार उन्नतिशील था।' तिप्पियसेट्ठि, जक्किसेट्ठि, कलियरमल्लि सेट्ठि,२२ पट्टण स्वामी
मथुरा के एक जैन अभिलेख में हेरण्यक (सोनार) (नगर सेठ) वोण्डाडिसेट्ठि के पुत्र नाडवल सेट्ठि,२२ नागसेट्ठिरः द्वारा एक अर्हत् प्रतिमा प्रतिष्ठापित किये जाने का वर्णन है।० इत्यादि। इसके अतिरिक्त पूर्व-मध्यकालीन बहुसंख्यक इससे स्पष्ट होता है कि जैन धर्म में लोहार वर्ग के साथ ही साथ अभिलेख ऐसे भी हैं, जिनमें श्रेष्ठियों, सामन्तों सेनानायकों सोनार (स्वर्णकार) वर्ग के लोग भी रुचि रखते थे। इसकी पुष्टि तथा राजाओं की पत्नियों द्वारा समर्पित दान का उल्लेख साहित्यिक साक्ष्यों से भी होती है। जैन आगमी के अनुसार उस । मिलता है। जैन उपासिकाओं द्वारा भी दान दिये जाने का समय की स्त्रियां आभूषण- प्रिय थीं। सोने तथा चाँदी के उल्लेख प्राप्त होता है। इससे स्त्रियों के मन में जैन धर्म के आभूषण उन्हें बेहद प्रिय थे, जिसके कारण सोनारों का व्यापार प्रति उनके दृष्टिकोण तथा सामाजिक स्तर का पता चलता है। भी उन्नतिशील था। बौद्धसूत्रों के अनुसार विशाखा के आभूषण मथुरा से प्राप्त एक जैन अभिलेख में गणिकानादा, जो श्रमणों तैयार करने में ५०० सोनारों ने दिन-रात कार्य करते हुए चार की उपासिका थी, गणिकानादा की बेटी वासा लेणशोभिका महीने का समय लिया था। मथुरा के ही कुछ जैन अभिलेखों द्वारा अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री तथा बहन के साथ अर्हतों में गन्धिकों (इत्र आदि सुगन्धित वस्तुओं के व्यापारी) द्वारा की पूजा के लिये पूजागृह, जलकुण्ड तथा आयागपट्ट बनवाने अर्हत् प्रतिमा के निर्माण का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे पता का उल्लेख मिलता है।५