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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९
मानवीय व्यवहार की प्रेरणा और आचरण के रूप में विभिन्न परन्तु सुकर्मों द्वारा मनुष्य पुण्यात्मा एवं पापकर्मों से पापी होता नियतिवादी तत्त्व और मनुष्य के पुरुषार्थ दोनों ही कार्य करते हैं। है।' उन्नति एवं अवनति उसके प्रयत्न पर निर्भर है, वह अपने इन दोनों के द्वारा ही नैतिक उत्तरदायित्व एवं नैतिक जीवन के भाग्य का निर्माता स्वयं ही है। वह अपने आपही अपने को बन्धन प्रेरक की सफल व्याख्या की जा सकती है।
में डालता है, जैसे एक पक्षी स्वयं ही अपने लिए घोंसला बनाता साहित्यिक दृष्टि से जैसे गीता कर्मप्रधान ग्रन्थ है उसी है। जो कुछ हमें डरावना प्रतीत होता है वह अन्धकारपूर्ण भाग्य प्रकार जैन वाङ्मय में कर्म-साहित्य भरे पड़े हैं। कर्म साहित्य नहीं, वरन् हमारे अपने ही पूर्वकृत कर्म हैं। हम मृत्यु चक्र के की दृष्टि से जैन परम्परा में 'कर्म-प्रकृति' नामक स्वतंत्र ग्रन्थ शिकार नहीं हैं। दुःख हमें पापकर्मों के पारिश्रमिक रूप में मिलता का उल्लेख मिलता है जो कर्मविषय सामग्री की विवेचना करता है। जीव को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। कर्म और है। दर्शन और चिन्तन में पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि फल का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जैन एवं गीता दोनों ही यह 'यद्यपि वैदिक साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी मानकर चलते हैं कि यदि जीव अपने किये हुए कर्मों का भोग विचार हैं, पर वह इतना अल्प है कि उसका कोई खास ग्रन्थ वर्तमान जीवन में नहीं करता है तो उसे अपने कर्मों के भोग के उस साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता। इसके विपरीत जैन दर्शन लिए भावी जन्म लेना पड़ता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है में कर्म-सम्बन्धी विचार सूक्ष्म,व्यवस्थित और अतिविस्तृत हैं। कि कामभोगों में आसक्त व्यक्ति कर्मों का संचय करते रहते हैं
अतएव उन विचारों का प्रतिपादक शास्त्र, जिसे 'कर्मशास्त्र' या और उन कर्मों के फलस्वरूप पुनः-पुनः जन्म धारण करते रहते 'कर्मविषयक साहित्य कहते हैं, उसने जैन साहित्य के बहुत बड़े हैं। सूत्रकृतांगसूत्र में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति जैसा कर्म भाग को रोक रखा है। यदि आगमिक दृष्टि से देखें तो कर्मसिद्धान्त की विवेचना आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कोई भी व्यक्ति बिना कर्म प्रश्नव्याकरणसूत्र तथा विपाकसूत्र आदि में यत्र-तत्र मिलती है किये नहीं रह सकता। मानसिक शारीरिक कर्म तो निरंतर चलते जो अति संक्षिप्त है। लेकिन स्थानांगसूत्र', समवायांगसूत्र', ही रहते हैं। कर्म के बिना जीवन का निर्वाह सम्भव नहीं होता। भगवतीसूत्र', प्रज्ञापनासूत्र', उत्तराध्ययनसूत्र आदि ग्रन्थों में गीता में तीन प्रकार के कर्मों की चर्चा की गई है जो शुभ-अशुभ कर्म-सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना हुई है।
कर्मों के आधार पर विभाजित हैं५-कर्म-फलाकांक्षा से की कर्म विषयक जो स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे गये हैं उनमें गई कोई भी शुभ क्रिया कर्म है। विकर्म-वासनापूर्ति हेतु किये श्वेताम्बर ग्रन्थों के नाम हैं-शिवशर्मसरि विरचित कम्मपयडि, गयेअशभकर्म विकर्मकहलाते हैं। अकर्म-फलासक्ति से रहित कर्मस्तव (कर्ता अज्ञात), बन्धस्वामित्व (कर्ता अज्ञात), कर्तव्य भाव से किया गया कर्म अकर्म है। जैन परम्परा में भी जिनवल्लभगणि विरचित षड्शीति', देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ तीन प्रकार के कर्मों की व्याख्या की गई है- पुण्य कर्म, पाप आदितथा दिगम्बर ग्रन्थों में 'षट्खण्डागम', 'कसायपाहुडसुत्त', कर्म तथा ईर्यापथिक कर्म। शुभास्रव को पुण्य कर्म कहते हैं। 'जयधवला', 'गोम्मटसार',कर्मप्रकृति आदिकर्म-साहित्य के आचार्य अभयदेव ने कहा है कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र रूप में मान्य हैं।
करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है। अशुभास्रव को कर्म-सिद्धान्त के अनुसार नैतिक जगत् में अनिश्चित एवं पाप कहते हैं। जैन नैतिक विचारणा में पाप और पुण्य दोनों को मनमाना कुछ नहीं है। हम वही काटते हैं, जो बोते हैं, पुण्य के साधक के लिए हेय माना गया है, क्योंकि दोनों ही बन्धन के बीज से पण्य की खेती फलेगी। पाप का फल पाप ही होता है। कारण हैं। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जैन विचारणा एक छोटा से छोटा कर्म मनुष्य के चरित्र पर प्रभाव डालता है। कर्म ओर यह कहती है कि पुण्य कर्म आत्मा को पवित्र करते हैं और के उलंघन का प्रयत्न करना ठीक उसी प्रकार निष्फल होता है दूसरी ओरवेत्याज्य भी हैं। इसके पीछे जैन चिन्तकों का मानना जिस प्रकार मनुष्य द्वारा अपनी छायाको लाँघना। जैसेमनुष्य है कि पुण्य और पाप दोनों ही बन्धन के कारण हैं। व्यक्ति में की छाया हमेशा उसके साथ रहती है, उसी तरह कर्म भी हर नैतिक पूर्णता तब आती है जब वह शुभ-अशुभ के भेद से ऊपर जीवधारी के साथ जुड़े रहते हैं, चाहे वे कर्म भले हों या बुरे। उठ जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा