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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९
काठ
इन वायुओं को नियंत्रित करने के लिए प्राणायाम के ले जाएं। मन का भी पैर के अंगूठे में निरोध करें। फिर समय तत्सम्बन्धी बीजाक्षरों का ध्यान करना चाहिए, ऐसा अनक्रम से वाय के साथ पैर के तल भाग एडी, जाँघ. जान. आचार्यों ने बताया है। ये बीजाक्षर इस प्रकार हैं
उरु, अपान, उपस्थ, नाभि, पेट, हृदय, कंठ में धारण करें प्राणवायु
और उसे ब्रह्मरन्ध्र तक ले जाएं। पुनः उसी क्रम से उसे वायु | निवास व र्ण बीजाक्षर लौटायें तथा उसे पैर के अंगुठे तक ले आएं। इसके बाद वहाँ प्राण | नासिका का अग्रभाग, हृदय, हरा । मैं से उसे नाभिकमल में ले जाकर वाय का रेचन करें।१० नाभि, पैर के अंगुष्ठ पर्यन्त
यह सत्य भी है कि जहाँ पर मन है वहाँ पर वायु है और अपान | गर्दन के पीछे की नाडी, काला
जहाँ पर वायु है वहाँ पर मन है। अतः समान क्रिया वाले मन पीठ, गुदा, एडी
और वायु क्षीर-नीर की भाँति परस्पर मिले हुए हैं। मन और वायु समान | हृदय, नाभि, सभी संधियाँ | श्वेत
दोनों में से कोई एक के नष्ट होने पर दसरा भी नष्ट हो जाता है। उदान | हृदय, कण्ठ, तालु, लाल
आत्मा में उपयोग को अवस्थित करने से श्वास शनैः-शनैः भृकुटि, मस्तक
चलने लगता है। श्वास के शनैः-शनै: चलने से मन की प्रवृत्ति व्यान | त्वचा का सर्वभाग इन्द्रधनुषी लौं भी मन्द पड़ जाती है। कुछ व्यक्ति ध्यान की अवस्था में मन
नासिका प्रभृति स्थानों से पुन:-पुन: वायु का पूरण व को स्थिर करने का प्रयास करते हैं, पर प्राणों पर विजय न होने रेचन करने से गमागम प्रयोग होता है और उसका अवरोध सेवे इतस्तत: परिभ्रमण करते हैं। जब वायु पर विजय होती है अर्थात् कुम्भक करने से धारण प्रयोग होता है। नासिका से तो मन पर स्वतः विजय की प्राप्ति हो जाती है। बाहर के वायु को अन्दर खींचकर उसे हृदय में स्थापित करना प्राणवायु को जीतने से जठराग्नि प्रबल होती है। यह चाहिए। वह यदि पुनः-पुनः दूसरे स्थान पर जाता है तो उसे सभी जानते हैं कि वायु ही जीवन है। भोजन और पानी के पुनः-पुन: निरोध करके वश में करना चाहिए। वायु को बिना प्राणी महीनों तक जीवित रह सकता है, किन्तु श्वास के नियंत्रित करने का यह उपाय प्रत्येक वायु के लिए उपयोगी है। बिना नहीं। हम श्वास लेते हैं जिससे वायु अन्दर जाती है। वायु वायु के निवास के जो-जो स्थान आचार्यों ने बतलाये हैं वहाँ में ऑक्सीजन है जिसकी शरीर को अत्यधिक आवश्यकता पर प्रथम पूरक प्राणायाम करना चाहिए अर्थात् नासिका द्वारा रहती है। वायु में स्थित ऑक्सीजन ही जीवन का आधार है। बाहर से वायु को अन्दर खींचकर उस स्थान पर रोकना यदि वायु में जीवन न हो तो जीवन निःशेष हो जायेगा। चाहिए। ऐसा करने से खींचने व रोकने की प्रक्रियाएँ स्वतः प्राणवाय पर ही सभी वाय ठहरी हई हैं। इससे शरीर में लघता बन्द हो जायेंगी और वह वायु उस स्थान पर नियत समय तक आती है। यदि शरीर के किसी भी अवयव में कहीं भी घाव हो स्थिर रहेगी। यदि कभी वह वायु बलात् दूसरे स्थान पर चली जाए तो समान वायु और अपान वायु पर नियन्त्रण करने से भी जाए तो उसे पुनः-पुनः रोककर और कुछ समय तक जख्म शीघ्र भर जाते हैं। टूटी हुई हड्डियां भी जुड़ जाती हैं। रेचक प्राणायाम द्वारा अर्थात् नासिका के एक छिद्र से शनैः- जठराग्नि प्रदिप्त हो जाती है। मल-मूत्र कम हो जाते हैं तथा शनैः उसे बाहर निकालना चाहिए और पुनः उसी नासिका व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। उदानवायु पर विजय प्राप्त करने से छिद्र से कुम्भक प्राणायाम करना चाहिए। इससे वायु अपने मानव में ऐसी शक्ति समुत्पन्न होती है कि वह चाहे तो मृत्यु के अधिकार में रहती है।
समय अर्चि मार्ग अथवा दशम द्वार से प्राण त्याग सकता है। न वीरासन, वज्रासन, पद्मासन आदि किसी भी आसन उसे पानी से किसी प्रकार की बाधा ही उपस्थित हो सकती है में अवस्थित होकर शनैः-शनैः वायु का रेचन करें। उसे पुनः और न कंटकादि कष्ट ही। व्यानवायु की विजय से शरीर पर नासिका के बायें छिद्र से अन्दर खीचें और पैर के अंगुठे तक सर्दी-गर्मी का असर नहीं होता है शरीर में अपूर्व तेज की वृद्धि