Book Title: Sramana 2009 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 38
________________ श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ जनवरी-मार्च २००९ जैन चिन्तन में प्राणायाम : एक अनुशीलन मुनि मणिभद्र* प्राणायाम प्राणों को साधने की एक विधि है। प्राण का खींचकर उसे उपान द्वारा कोष्ठ में भर लेना पूरक है और अर्थ है- वायु। श्वास को अन्दर लेना, बाहर निकालना और नाभिकमल में स्थिर करके उसे रोक लेना कुम्भक है। कुछ श्वास को शरीर के अन्दर रोकना इन तीनों क्रियाओं का सामूहिक आचार्य रेचक, पूरक और कुम्भक के साथ प्रत्याहार, शान्त, नाम प्राणायाम है। जो वायु जीवन धारण करती है वह प्राणवायु उत्तर और अधर को मिलाकर प्राणायाम के सात प्रकार बताते कहलाती है। महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग माने हैं हैं। नाभि में से खींचकर हृदय में और हृदय में से खींचकर जिनमें प्राणायाम का चतुर्थ स्थान है। उन्होंने प्राणायाम को नाभि में एक स्थान से दूसरे स्थान पर वायु को ले जाना मुक्तिसाधना में उपयोगी माना है। जैन साधना-पद्धत्ति में प्रत्याहार है। तालु, नासिका और मुख से वायु का निरोध प्राणायाम का उल्लेख तो है किन्तु उसे मुक्ति की साधना में करना शान्त है। कुम्भक में वायु को नाभिकमल में रोकते हैं आवश्यक नहीं माना गया है। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य तथा शान्त प्राणायाम में वायु को नासिका, मुँह आदि जिनके भद्रबाहु ने प्राणायाम का निषेध किया है, क्योंकि प्राणायाम से द्वारा वायु को बाहर किया जाता है, पर रोका जाता है। बाहर वायुकाय जीवों की हिंसा की संभावना रहती है। इसी तरह से वायु को ग्रहण कर उसे हृदय आदि में स्थापित करना आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में तथा उपाध्याय यशोविजय उत्तर प्राणायाम है और उसी वायु को नीचे की ओर ले जी ने भी जैनदृष्ट्या परीक्षितं पातंजलि योगदर्शनं नामक ग्रन्थ जाकर धारण करना अधर प्राणायाम है।" में प्राणायाम को मुक्ति की साधना के रूप में अस्वीकार किया प्राणवायु के प्राण, अपान, समान, उदान और व्यानहै। उनके अनुसार प्राणायाम से मन शान्त नहीं होता, अपितु ये पाँच प्रकार हैं। प्राणवायु नासिका के अग्रभाग, हृदय, नाभि, विलुप्त हो जाता है। प्राणायाम की शारीरिक दृष्टि से उपयोगिता पैर के अंगुष्ठ पर्यन्त फैलने वाला है। उसका वर्ण हरा बताया है मानसिक दृष्टि से नहीं। यशोविजय जी का मन्तव्य है कि गया है। उसे रेचक क्रिया, पूरक क्रिया और कुंभक क्रिया के प्राणायाम, हठयोग आदि का अभ्यास चित्तनिरोध और परम प्रयोग एवं धारणा से नियंत्रित करना चाहिए। अपान वायु का इन्द्रियगेय का निश्चित उपाय नहीं है। नियुक्तिकार ने एतदर्थ ही रंग श्याम है। गर्दन के पीछे की नाड़ी, पीठ, गुदा और एडी में इसका निषेध किया है। स्थानांगसत्र में अकालमृत्यु प्राप्त उसका स्थान है। इन स्थानों में गमागम रेचक की प्रयोगकरने के सात कारण प्रतिपादित किए गए हैं जिनमें आनप्राण विधि से उसे नियंत्रित कर सकते हैं। समान वायु का स्रोत श्वेत निरोध भी एक कारण है। आवश्यकनियुक्ति का गहराई से है। हृदय, नाभि और सभी संधियों में उसका निवास है। सभी अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें उच्छ्वास के स्थानों में पुन:-पुनः गमागम करने से उस पर नियंत्रण किया पूर्ण निरोध का तो निषेध है, किन्तु सम्पूर्ण प्राणायाम का जा सकता है। उदान वायु का वर्ण लाल है। हृदय, कण्ठ, निषेध नहीं है, क्योंकि उसमें उच्छ्वास को सूक्ष्म करने पर तालु, भृकुटि एवं मस्तक में इसका स्थान है। इन्हीं स्थानों में बल दिया गया है। पुनः-पुनः गमागम करने से इस पर भी नियंत्रण किया जा रेचक, पूरक, कुम्भक- ये तीन प्राणायाम के अंग सकता है। व्यान वायु का रंग इन्द्रधनुष के समान है। त्वचा के हैं। प्रयत्न द्वारा नासिका-ब्रह्मरन्ध्र और मुखकोष्ठ द्वारा उदर सभी भागों में इसका निवास है। प्राणायाम से इस पर नियंत्रण में से वायु को बाहर निकालना रेचक है। बाहर की वायु को किया जा सकता है। *स्थानकवासी जैन सन्त एवं मानव मिलन प्रेरक

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