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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९
और शारीरिक रोग उपशमित हो जाते हैं। जैसे कि मन्त्रों के पाठ किसी को उत्पन्न करते हैं, और न किसी का विनाश, पर वे से सर्प का दुर्जय विष शान्त हो जाता है।'
जिस वीतराग स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं, वे जो अभी तक इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म में किसी न वीतराग नहीं बन पाये हैं, उनके लिए आदर्श रूप हैं। उनसे किसी रूप में भक्ति को स्वीकार किया गया है। यद्यपि वीतराग निरन्तर प्रेरणा प्राप्त करना भक्ति के लिए बहुत ही आवश्यक प्रभु न किसी का अच्छा करते हैं और न किसी का बुरा, न है। उनके आलम्बन से परमात्म-पद की प्राप्ति होती है।
सन्दर्भः १. जैन विद्या के विविध आयाम, भाग-६, पृ०
४३८। २. सिद्धभक्ति, पूज्यपाद, पद्य १, पृ. १११ । ३. वही, पृ. ११२। 4. Handiqui, K.K, Yasastilaka and Indian
Culture, Sholapur, 1949, p. 311. ५. दशभक्ति, कुन्दकुन्द, शोलापुर, १९२१, पृ.
१२६.१२७। ६. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी,
वि०सं० २०१२, पृ. १२७। ७. दशभक्ति, कुन्दकुन्द, शोलापुर, १९२१, पृ. १५१।
वही, पृ. १५२। पं० आशाधर, जिनसहस्त्रनाम, पं० हीरालाल सम्पादित वहिन्दीअनूदित,६/७२ कीस्वोपज्ञवृत्ति, पृ.१०॥
१०. योगिभक्ति, पूज्यपाद, पद्य ८, पृ. १५६। ११. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, पृ. ३३१। १२. तत्त्वार्थवृत्ति, श्रुतसागरसूरि, पं० महेन्द्रकुमार
सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ६/२४ की
व्याख्या, पृ. २२७.२२९। १३. पं० आशाधर, जिनसहस्रानाम, ४/४७ की
स्वोपज्ञवृत्ति, पृ.७८। १४. दशभक्ति, प्राकृत पंचगुरुभक्ति, गाथा ६, पृ.
३५७। १५. पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम, पृ. ७८। १६. तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, ६/२४। १७. वही, ३/७८। १८. पूज्यपाद, संस्कृत-नन्दीश्वरभक्ति, दशभक्त्यादि
संग्रह, श्लोक १३.१४, पृ. २०१॥