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पार्श्वचन्द्रगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
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पार्श्वचन्द्रसूरि
देवचन्द्र समरचन्द्रसूरि
वीरचन्द्र (वि०सं० १७२८/ई०स० १६७२ में जम्बूराजचन्द्रसूरि वाचक रत्नचारित्र
पृच्छारास के रचनाकार) विमलचारित्र (वि०सं०१६६३/ई०स० जयचन्द्रसूरि के एक शिष्य वाचक प्रमोदचंद्र हुए, १६०७ में अंजनासुन्दरीरास के रचनाकार) जिनके द्वारा भी रचित कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके वि०सं० १६६४/ई०स० १६०८ में रची गयी शिष्य कर्मचन्द्र द्वारा वि०सं० १७३०(७) में रचित रोहिणी नलदमयन्तीरास के रचनाकार मेघराज ने भी स्वयं को (अशोकचंद्र) चौपाई नामक कृति प्राप्त होती है, जिसकी पार्श्वचन्द्रगच्छ के मुनि के रूप में उल्लिखित किया है। इसकी प्रशस्ति ४ में इन्होंने अपने प्रगुरु, गुरु, गुरुभ्राता आदि का प्रशस्ति में इन्होंने अपनी गुरु-परम्परा,रचनाकाल आदि का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है: उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है:
जयचन्द्रसूरि पार्श्वचन्द्रसूरि
प्रमोदचन्द्र
पद्मचन्द्रसूरि समरचन्द्रसूरि
कर्मचन्द्र
मुनिचन्द्रसूरि राजचन्द्रसूरि
(वि०सं० १७३०(७) में रोहिणी
अशोकचन्द्र चौपाई के रचनाकार) श्रवणऋषि
इस गच्छ की पट्टावलियों में भी जयचन्द्रसूरि के पट्टधर वाचक मेघराज (वि०सं० १६६४/ई०स० १६०८ में के रूप में पद्मचन्द्रसूरि का नाम मिलता है। नलदमयन्तीरास के रचनाकार)
जयचन्द्रसूरि के एक अन्य शिष्य हीरचंद्र हुए जिनके वाचक मेघराज द्वारा रची गयी सोलहसतीरास,
द्वारा रचित यद्यपि कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके प्रशिष्य
लक्ष्मीचंद्र द्वारा रचित गणसारिणी (रचनाकाल वि०सं० पार्श्वचन्द्रस्तुति, सद्गुरुस्तुति, राजप्रश्नीयउपांग
१७६०) नामक कृति मिलती है, जिसकी प्रशस्ति५ में रचनाकार बालावाबोध (वि०सं० १६७०), समवायांसूत्रबालावबोध,
ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है: उत्तराध्ययनसूत्रबालावबोध, औपपातिकसूत्रबालावबोध, साधुसामाचारी (वि०सं० १६६९),क्षेत्रसमासबालावबोध जयचन्द्रसूरि (वि०सं० १९७०) आदि विभिन्न कृतियां मिलती हैं१२
हीरचन्द्रसूरि जम्बूपृच्छारास (रचनाकाल वि०सं० १७२८/ई०स० १६७२) की प्रशस्ति'३ से ज्ञात होता है कि इसके रचनाकार जगच्चन्द्रसूरि वीरचन्द्र भी पार्श्वचन्द्रगच्छ से सम्बद्ध थे। इन्होंने अपनी गुरु
लक्ष्मीचन्द्रसूरि (वि०सं० १७६० में गणसारिणी के परम्परा निम्नलिखित रूप में बतलायी है :
कर्ता) पार्श्वचन्द्रसूरि
उक्त साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के समरचन्द्रसूरि
मुनिजनों के गुरु-शिष्य परम्परा की एक तालिका संगठित की
जा सकती है, जा इस प्रकार है: राजचन्द्रसूरि
द्रष्टव्य - तालिका क्रमांक-१