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उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित पंचमहाव्रत
यह धन-धान्यादि अचेतन द्रव्य और दास, पशु आदि सचेतन द्रव्यों के त्यागरूप रह गया है।
पंचमहाव्रत श्रमण-जीवन की रीढ़ तथा जैनधर्मका प्राण है। इन व्रतों का सम्यक् पालन करनेवाला ही सच्चा श्रमण है। श्रमणाचार मूलत: अहिंसा प्रधान है, इसलिए कहा जाता है कि
पांचों महाव्रत अहिंसास्वरूप हैं। रात्रि-भोजन-विरमण-व्रत भी अहिंसा-महाव्रत के अंतर्गत ही आ जाता है, फिर भी धर्माचार्यों ने इसे छठे व्रत के रूप में प्रतिपादित किया है।५२ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन चार प्रकारों में से किसी को भी रात्रि में ग्रहण करना गर्हित समझा गया है।
सन्दर्भ : १. मेहता, मोहनलाल, जैन-आचार, पृ० १३५.
खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समुदाय पहाय कामे। २. जैन, सुदर्शन लाल, उत्तराध्ययनसूत्रः एक परिशीलन, समिच्च लोयं समया महेसी अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो।। पृ० २६१.
वही, ४/१० ३. वही, पृ० २६१ तथा आगे।
१३. तसपाणे वियाणेत्ता संगदेण य थावरे। ४. न हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं। जो न हिंसइ तिविहेणं तं वयं वूम माहणं।। वही, २५/२३. उत्तराध्ययनसूत्र, ८/८.
१४. उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ० २६४ तथा ५. जइ मज्झ कारणा एए हम्मिहिंति बहू जिया।
आगे। ___न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई।। वही, २२/१९. १५. उत्तराध्ययनसूत्र, २१/२४. ६. उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ० २६१-६२. १६. उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ० २६५. ७. पुस्विच इण्डिं च अणागयंचमणदोसो न मे अत्थि कोइ। सुणिट्ठिए सुलढे त्ति सावज्जं गज्जए मुणी।। उत्तराध्ययनसूत्र, १२/३२.
उत्तराध्ययनसूत्र, १/३६. महप्पसाया इसिणो हवन्ति न हु मुणी कोवपरा हवन्ति। १७. निच्चकालऽप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं। वही, १२/३१:
भासियव्वं हियं सच्चं निच्चा उत्तेण दुक्करं।। वही, १९/ हओन संजले भिक्खू मणं पिन पओएस। वही, २/२६. २७. मेत्तिं भूएसु कप्पए। वही, ६/२.
१८. संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव या उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ० २६२ तथा वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई।। वही, २४/२३. आगे।
१९. उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ० २६५. ८. न सयं गिहाई कुज्जा णेव अन्नेहिं कारए।
२०. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरन्ते। गिहकम्मसमारम्भे भूयाणं दीसई वहो।। उत्तराध्ययनसूत्र, एवं अदत्ताणि समाययन्तो रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। ३५/८.
उत्तराध्ययनसूत्र, ३२/३१. पाणभूयदयट्ठाए न पये न पयावए।। वही, ३५/१०. २१. उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ० २६७. समलोट्टकंचणे भिक्खू विरए कयविक्कए।। वही, ३५/ २२. आयाणं नरयं दिस्स, नायएज्ज तणामवि। १३, ३५/८-१५, २१/१३, १५/१६, ९/१५.
दो गुन्छी अप्पणो पाए दिन्नं भुंजेज्ज भोयणं।। ९. उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज्ज एसणं।
उत्तराध्ययनसूत्र, ६/८. गिणहन्तो निक्खिवन्तो य पउंजेज्ज इमं विहिं।। वही, २३. दिव्व-माणुस-तेरिच्छं जो न सेवई मेहुणं। २४/१२-१३.
मणसा काय-वक्केणंतं वयंबूम माहणं।। वही,२५/२६. १०. उत्तराध्ययनसूत्र : एक परिशीलन, पृ २६३. २४. बम्भम्मि नायज्झयणेसु ठाणेसु य ऽसमाहिए। ११. वही, पृ० २६३.
जे भिक्खु जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले।। वही, १२. समयं गोयम! मा पमायए। उत्तराध्ययनसूत्र, १०/६ ३१/१४.