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श्रमण, वर्ष ६०, अंक १/जनवरी-मार्च २००९
सामाजिक नैतिकता के अन्तर्गत स्वहित और लोकहित केवली के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता। फिर भी का द्वन्द्व हमेशा से प्रश्नचिह्न बना रहा है कि कर्म-व्यवस्था के वह करता है क्योंकि आत्मकल्याण के साथ-साथ लोककल्याण अनुसार कर्म करते हुए व्यक्ति को स्वहित करना चाहिए या भी उसका उद्देश्य होता है। तीर्थंकर नमस्कारसूत्र में जिसे परहित(लोकमंगल)। इतना तो स्पष्ट है कि स्वहित को भारतीय नमोत्थुणं के नाम से भी पुकारा जाता है। में तीर्थंकर के लिए परम्परा में कभी भी श्रेयस्कर नहीं माना गया है। जैन चिन्तन लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप आदि विशेषणों का प्रयोग में भी स्वार्थ और परार्थ पर विचार किया गया है। स्वार्थ किया गया है जो जैन धर्म के लोकहितकारिणी मन्तव्य को आत्मरक्षण है तो परार्थ आत्मत्याग। ऐसा कहा जाता है कि निर्दिष्ट करता है। जैन परम्परा स्वहित पर अधिक बल देती। जो लोग ऐसा अतः इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कहते हैं वे संभवत: इस मान्यता को लेकर उलझन की कर्म-सिद्धान्त की व्याख्या के क्रम में गीता एवं जैन साहित्य स्थिति में हैं- आत्महित करो और यथाशक्य लोकहित भी मानव जीवन के लिए अनासक्त कर्म को प्रस्तुत कर सामाजिक करो, लेकिन जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आदर्श व कर्तव्य भावना को सुदृढ़ करते हैं। फलाकांक्षा रहित आत्महित के कुण्ठन पर ही लोकहित फलित होता हो, तो कर्म जीवन में शांति और संतोष प्रदान करता है और यही वहाँ आत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है। लेकिन ऐसा नहीं है यदि ऐसा वास्तविक मानवीय अवस्था है। इसी में संतुलन, शांति और होता तो तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन और संघ-संस्थापना का आनन्द है। इसी आधार पर गीता और जैन साहित्य सामाजिक कोई औचित्य नहीं रहता, क्योंकि कैवल्य की प्राप्ति के पश्चात् और व्यक्तिगत नैतिकता को समन्वित करते हैं।
संदर्भ: १. जैन, सागरमल, जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार
दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-१, पृ०-२९५ २. वही, पृ०-२९६ ३. डॉ. राधाकृष्णन्, भारतीय दर्शन, भाग-१, पृ० ४९०. ४. संघवी, पं० सुखलाल, दर्शन और चिन्तन, पृ०-२१९ ५. स्थानांगसूत्र, २/४/१०५, ३/१/१२५; ४/२/२९६ ६. समवायांगसूत्र, २/२, ४२/२५१, ५८/३०४ । ७. भगवतीसूत्र, १/१/१०, १/१/१, १/१/१४, १/३/ __१२६, १/३/१२८, १/४/१४६-१५३ ८. प्रज्ञापनासूत्र, २३/२, २३/४, २३/६-१७ ९. उत्तराध्ययनसूत्र, ३२/१-१५ २. प्रो० हिरियन्ना, आउट लाइन्स ऑफ इंडियन
फिलासॉफी, पृ० ७९. ३. ब्रैडले, एथिकल स्टडीज, पृ० ५३. ४. प्रो० वेंकटरमण फिलासाफिकल क्वार्टरली. अप्रैल
१९३२, पृ० ७२. १०. डॉ० राधाकृष्णन्, भारतीय दर्शन, भाग-१, पृ० २०१. ११. वृहदारण्यक उपनिषद्, ३:२, १३. १२. मैत्रायणी उपनिषद्, ३:२.
१३. आचारांगसूत्र, २/३/१३ १४. सूत्रकृतांगसूत्र, १/५/२/२३ १५. कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः। गीता, ४/१७ १६. स्थानांग, टीका, १/११-१२ १७. समयसार, १४५-१४६ १८. ऋग्वेद, १०, ९०, १२. १९. महाभारत, शान्तिपर्व, १२२, ४-५. २०. गीता, ४/१३. २१. वही, १८/४१-४८. २२. वही, ३/३५. २३. गीता, ३/१८ २४. वही, ३/२० २५. अभिधानराजेन्द्र कोश, भाग-४, पृ०-१४४१
२७. जैन, सागरमल, जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार
दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ०-१७७ २८. आत्मसाधना-संग्रह, पृ०-४४१