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प्रेक्षाध्यान द्वारा भावनात्मक चेतना का विकास
वर्तमान में ध्यान की प्रासंगिकता उतनी ही है जितनी प्राचीन काल में थी, बल्कि यह कहा जाए कि वर्तमान में प्राचीन काल से कहीं अधिक है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज के व्यस्त जीवन में मन विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, वृत्तियों, कामनाओं और विकार वासनाओं आदि में सक्रिय रूप से संश्लिष्ट है, जिनकी निवृत्ति के लिए मन का निरोध आवश्यक प्रतीत होता है । आज भौतिक सुखों से उत्पन्न मानसिक अशांति के निराकरण के लिए भारतीय तो क्या पाश्चात्य जैसे विकसित कहे जाने वाले देश भी भारतीय संतों एवं महात्माओं की योग एवं ध्यान की शिक्षा के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे में मन का विरोध करना उचित नहीं जान पड़ता है, क्योंकि विरोध करने से मन कुंठित होकर नाना प्रकार की व्याधियों को जन्म देता है जिससे एक नई समस्या उत्पन्न होती है । अत: योग से मन का निरोध करना चाहिए। योग से चित्त एकाग्र होता है । चित्त की एकाग्रता का प्रबलतम एवं सर्वोत्तम साधन है- ध्यान। ध्यान के माध्यम से मन की चंचलता, अस्थिरता, अशांति तथा व्यग्रता का नाश होता है और आनन्द, सुख स्रोत जो अन्तर्मन में बन्द रहते हैं, खुल जाते हैं। यदि यह कहा जाए कि भटकते हुए मानव को कोई त्राण दिला सकता है तो वह है- सद्ध्यान। आज भारतीय योग और ध्यान की साधना-पद्धत्तियों को विद्वत्जन अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही पश्चिमी देशों के लोगों का ध्यान के प्रति बढ़ते आकर्षण को देखते हुए ध्यान को पश्चिमी देशों के लोगों की रुचि के अनुरूप बनाकर विदेशों में निर्यात किया जा रहा है। योग और ध्यान की साधना में शारीरिक विकृतियों और मानसिक तनावों को समाप्त करने की जो शक्ति है, उसके कारण भोगवादी एवं मानसिक तनावों से संत्रस्त पश्चिमी देशों के लोग चैत्तसिक शांति का अनुभव करते हैं और यही कारण है कि उनका योग और ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है।
श्रमण, वर्ष ६०, अंक १ जनवरी-मार्च २००९
डॉ०
* वरिष्ठ प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी०आई० रोड, करौंदी, वाराणसी
सुधा जैन*
आज का युग समस्याओं का युग है। व्यक्ति समस्याओं के जाल में फँसा हुआ है। किसी को भोजन की समस्या है तो किसी को पानी की, किसी को जमीन की समस्या है तो किसी को मकान की। लेकिन इन सब की जड़ में यदि कोई समस्या है तो वह है मन की समस्या । विकास के क्रम में भले ही व्यक्ति को भौतिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हो जाएं, बौद्धिक विरासत भी चरम सीमा को छू ले, फिर भी जब तक मानसिक समस्याओं का सटीक समाधान प्राप्त नहीं हो जाता तब तक उसकी मानसिक अशांति और उद्विग्नता की परिसमाप्ति नहीं होती। मानसिक तनाव आज विश्व की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। लाखों व्यक्ति प्रतिवर्ष पागल होते हैं और लाखों ही आत्महत्या करते हैं। मानसिक अशांति को दूर करने के लिए आधुनिक दवाईयाँ एवं ड्रग्स के सेवन किये जाते हैं। फलतः व्यक्ति नशा का सेवन करने लगता है। शौकवश या संगति से इसकी लत पड़ जाती है जिससे छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है। नशा का सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है जिससे मस्तिष्क की नाड़ियाँ यानी स्नायुतंत्र इस प्रकार प्रभावित होते हैं कि व्यक्ति उसका आदि हो जाता है। फलतः चोरी, हिंसा आदि के द्वारा धन प्राप्त कर अपने नशे की लत को पूरा करना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। हम सभी जानते हैं कि पूरे विश्व में वैचारिक क्रान्ति के फलस्वरूप द्वन्द्व, टकराहट, युद्ध आदि से मानव बेचैन है। लक्ष्य की स्थिरता के अभाव में जिन्दगी की सभी राहें धूमिल हो चुकी हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रश्न उठता है कि क्या प्रेक्षाध्यान आज के युग में पीड़ित मानव को उसकी पीड़ा से त्राण दिलाने में सक्षम है? यदि है तो कितना और किस रूप में?
मनोविज्ञान में यह माना गया है कि सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम, ऑटोनोमिक नर्वस सिस्टम और हाइपोथेलेमस' - ये तीन बड़े नियामक केन्द्र हैं और इनके साथ-साथ मस्तिष्क तथा नाड़ी संस्थान के कुछ भाग भी नियमन करते हैं। किन्तु योग और अध्यात्म की प्रक्रिया में इनसे हटकर कुछ और भी