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जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप
से जैन धर्म में कृष्ण-कथा लिखने की परम्परा ईसा की प्रथम आधार पर कृष्ण को कर्म-भोग भोगने के लिए नरक में जाना या द्वितीय शताब्दी से प्रारम्भ हुई है। प्रथम शताब्दी के मथुरा पड़ता है, उसके बाद सम्यक्-दर्शन का ज्ञान होने पर वे के अंकनों में अरिष्टनेमि की मूर्ति के साथ कृष्ण तथा बलदेव तीर्थंकर पद को प्राप्त करते हैं। उत्तरपुराण के ७०वें,७१वें, के अंकन भी मिलते हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि जैन ७२वें सर्ग में कृष्ण का वर्णन है जिसमें कृष्ण के चरित्र को मतावलम्बियों ने ई०पू० में ही कृष्ण को एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रकाशित किया गया है। सत्यभामा, सुसीमा, लक्ष्मणा, गान्धारी, के रूप में स्वीकार कर लिया था।
गौरी, पद्मावती आदि रानियों के पूर्वभव के वर्णन के साथ आगमेतर साहित्य के अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है __ कृष्ण के पराक्रम व उनकी वीरता का उल्लेख भी किया गया कि कृष्ण का स्वरूप उसी प्रकार है जिस प्रकार वैदिक है। कंस, शिशुपाल, जरासन्ध आदि को मारने के प्रसंग में वीर परम्परा में देखने को मिलता है। कृष्ण द्वारा कंस-वध, कृष्ण रस, कृष्ण व नन्द गोप की पत्नी यशोदा के प्रसंग में वात्सल्य का अपर नाम वासुदेव होना, कृष्ण की अद्वितीय वीरता, रस तथा अरिष्टनेमि के पास जाकर उनकी वन्दना आदि प्रसंगों पराक्रम और शक्तिसामर्थ्य का प्रसंग लगभग एक जैसा ही है। में शान्त रस का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त यथास्थान यदि कृष्ण के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को हम जैन मान्यता के शृंगार, करुण और अद्भुत रस का परिचय प्राप्त होता है। अनुसार विवेचित करना चाहे तो उन्हें दो रूपों में विवेचित कर उत्तर पुराण की एक विशेषता यह है कि कृष्ण द्वारा राज्य हरण सकते हैं- (क) मुख्य कथा के रूप में- कृष्ण-जन्म से की आशंका से नेमि को विरक्त करने के लिए बाड़े में पशुओं उनके निर्वाण तक की कथा के द्वारा तथा (ख) गौण कथा के को बन्द कराने की आज्ञा का वर्णन है। रूप में - महाभारत-कथा, पांडव-कथा, प्रद्युम्नचरित आदि इस प्रकार जैन साहित्य के अध्ययन के पश्चात् वैष्णव में कृष्ण के कतिपय क्रिया कलापों द्वारा।
और जैन परम्परा में मान्य कृष्ण के स्वरूप में जो मुख्य अन्तर जैन पुराणों की परम्परा में आचार्य जिनसेन (द्वितीय) दृष्टिगोचर होते हैं, वे हैं- जैन मान्यता में कृष्ण को वैदिक
परम्परा की भाँतिन तो ईश्वर माना गया है और न ही कोई दिव्य आचार्य हेमचन्द्र द्वारा संस्कृत भाषा में रचित पुरुष स्वीकार गया है। उन्हें एक असाधारण वीरपुरुष के रूप 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' का नाम विशेष रूप से लिया जाता में वर्णित किया गया है। चूंकि जैन परम्परा में तीर्थंकरत्व को है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में ६३ महापुरुषों के जीवन चरित्र प्राप्त करना ही मानवीय जीवन का परम लक्ष्य माना गया है के साथ ग्रन्थ के आठवें सर्ग में कृष्ण के चरित का वर्णन है। इसलिए कृष्ण को भी भविष्य में तीर्थंकर पद प्राप्त करने की कृष्ण के साथ ही इस पर्व में नेमिनाथ, बलराम, जरासन्ध मानवीय अभिलाषा से वंचित न करते हुए उनके पुरुषार्थ को आदि का वर्णन है। 'हरिवंशपुराण में कृष्ण के विभिन्न स्वरूपों जीवन के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाया गया है तथा उनके को रेखांकित किया गया है, जैसे- वीर, विजिगीषु, न्यायप्रिय, व्यक्तित्व को श्रेष्ठता प्रदान की गई है। वैदिक परम्परा में वर्णित असुर संहारक, आततायी विनाशक, लोकोत्तर, महामानव तथा राधा-कृष्ण की कथा जहाँ विश्वविख्यात है वहीं जैन परम्परा में क्षत्रिय राजा आदि। जैन पुराणों में कृष्ण को नौवां नारायण राधा-कृष्ण का प्रसंग उपलब्ध नहीं होता। यद्यपि गोपकन्याओं कहा गया है। 'उत्तरपुराण' में कृष्ण को 'गोप' कहकर सम्बोधित के साथ रास रचाने का उल्लेख हरिवंशपुराण में अवश्य किया गया है। प्रारम्भ में 'गोप' शब्द 'गोपालक' के बजाय उपलब्ध होता है। अत: कहा जा सकता है कि वैष्णव परम्परा 'गोरक्षक' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, बाद में 'पृथ्वीरक्षक' के में मान्य रासलीला के प्रभाव से जैन परम्परा भी वंचित नहीं रह रूप में स्वीकार किया गया है।
पायी। इसी प्रकार महाभारत युद्ध में कृष्ण की अहम् भूमिका का जैन पुराणों की कथा पर आधारित प्राकृत कृष्ण काव्य वर्णन वैष्णव परम्परा में मिलता है किन्तु जैन परम्परा में कृष्णमें कृष्ण को चक्रवर्ती वीरपुरुष कहकर उनको मानवीय भूमिका कथा के साथ महाभारत का कोई सम्बन्ध किसी भी तरह से में अंकित किया गया है और नेमिनाथ को त्रिकालदर्शी, ज्ञानी जुड़ा नहीं दिखाई पड़ता है जबकि कृष्ण के साथ पाण्डवों, ऋषि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इनमें प्रस्तुत विवरण के कौरवों आदि के सम्बन्धों का उल्लेख मिलता है।