Book Title: Sramana 2009 01
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ जैन धर्म का सामाजिक क्रान्ति के रूप में मूल्यांकन कर्म की श्रेष्ठता की समाज में स्थापना बहुसंख्यक वर्ग दलित था और युग-युग से ईश्वर के नाम पर कर्म का सिद्धान्त जैन धर्म की आधारपीठिका है। यह प्रताड़ित किया जा रहा था। जैन धर्म ने उन्हें नवीन मार्ग दिखाया वह सिद्धान्त है जो मनुष्य की मुट्ठी में उसके भाग्य को केन्द्रित और उन्हें बताया कि उनकी निम्न स्थिति के लिए ईश्वर जिम्मेदार कर देता है और मनुष्य को उसकी श्रेष्ठता का तथा भाग्य का नहीं है, बल्कि वे स्वयं जिम्मेदार हैं, उन्हें कर्म के पथ पर निर्माता बना देता है। जैन धर्म का यह सिद्धान्त कर्म और मनुष्य ___ अग्रसर होने की सलाह दी और बताया कि कर्म की श्रेष्ठता से दोनों की श्रेष्ठता को प्रतिष्ठित करता है और इस दृष्टि में यह वे श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। समाज के बहुसंख्यक आधुनिक साम्यवादी विचारधारा से मेल खाता है। जैन धर्म का कमजोर, पद दलित, अधिकार विहिन मनुष्यों के अन्दर कर्मकर्म-सिद्धान्त मनुष्य की उत्पत्ति में ईश्वरीय हस्तक्षेपको खारिज सिद्धान्त ने जबरदस्त आत्मविश्वास का संचार किया। करते हए, उसे स्वयं के भाग्य का विधाता मानता है। अपने इस प्रकार जैन धर्म ने अपने सामाजिक मूल्यों से सांसारिक एवं आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म तत्कालीन समाज में समाजवाद की विचारधारा, स्त्रियों की के लिए उत्तरदायी है। अतः मनुष्य स्वयं अपने कर्मों की कृति स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव, वर्ण-निरपेक्ष आंदोलन का है। महावीर स्वामी ने कहा कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण या शूद्र सूत्रपात, व्यापार-वाणिज्य एवं नगर-संस्कृति का विकास होता है' अर्थात् मनुष्य के कर्म ही उसकी स्थिति को निर्धारित तथा कर्म की श्रेष्ठता की समाज में स्थापना कर महत्त्वपूर्ण करते हैं। यह विचार तब आया जब भारतीय समाज का कार्य किया। सन्दर्भ : १. ऋग्वेद १०.१६६.१. नं० ०२, जुलाई-सितम्बर, २००७, पृ० १४७-१५१. २. अथर्ववेद ११.५.२४-२६, गोपथब्राह्मण २.८. ७. मिश्र, जयशंकर - प्राचीन भारत का सामाजिक ३. श्रीमद्भागवत ५.२८. इतिहास, बिहार हिन्दी ग्रन्थ कादमी, पटना, २००१, विस्तृत अध्ययन के लिए पढ़ें, बाशम, ए०एल० पृ० ७७६. (सम्पादन) - ए कल्चरल हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, ८. कल्पसूत्र, १३४-३७, आवश्यकनियुक्ति गा० २५९, ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, १९७५, पृ० २६३. १००-११०, पाण्डेय, वी०सी० - प्राचीन भारत का ९. शर्मा, आर०एस० - पूर्वोक्त, पृ० ९८, मजूमदार, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास, भाग-१, सेन्ट्रल आर०सी० - प्राचीन भारत, मोतीलाल बनारसीदास, पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद,१९९८, पृ० २६१,२६२, नई दिल्ली, १९७३, पृ० १४२-४३, झा-श्रीमाली - २७८, २८२, २८३, शर्मा, आर०एस०, प्राचीन भारत प्राचीन भारत, हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, नई दिल्ली, का इतिहास, एनसीईआरटी, नई दिल्ली, १९९०, पृ० २००१, पृ० १४३. ९७, पांडे, विशम्भरनाथ, भारत और मानव संस्कृति, १०. प्राचीन भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक खण्ड-१, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, इतिहास, भाग-१, सेन्ट्रल पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद, भारत सरकार, नई दिल्ली, १९९६, पृ० १००-१२५. १९९८, पृ० २५४. सूत्रकृतांगसूत्र, २.१.३५. ११. वही, पृ० २८१. ६. विस्तृत अध्ययन के लिए पढ़ें, शर्मा, डॉ० आनन्द १२. उत्तराध्ययनसूत्र, २१.२०. ___ कुमार - प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में १३. सूत्रकृतांगसूत्र, २.१.३५. स्त्रियों की स्थिति (गुप्त - वर्धन काल तक),शोध- १४. सूत्रकृतांगसूत्र (जैकोबी-जैन सूत्र जिल्द २, पृ० ३०१समवेत, श्री कावेरी शोध संस्थान, उज्जैन, वो० १६, ०४), उद्धृत पाण्डेय, वी०सी०-पूर्वोक्त, पृ० २७७. 3

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